Spirtual Awareness

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।9।।

श्री भगवान बोले- मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 9 | Bhagavad Gita Chapter 7) –

पृथ्वी गन्ध-तन्मात्रा से उत्पन्न होती है, गन्ध-तन्मात्रा रूप से रहती है और गन्ध-तन्मात्रा में ही लीन होती है। तात्पर्य है कि गन्ध के बिना पृथ्वी कुछ नहीं है।भगवान कहते हैं कि पृथ्वी में वह पवित्र गन्ध ‘‘मैं’’ हूँ।

यहाँ गन्ध के साथ ‘‘पुण्यः’’ विशेषण देने का तात्पर्य है कि गन्ध मात्र पृथ्वी में रहती है। उसमें पुण्य अर्थात् पवित्र गन्ध तो पृथ्वी में स्वाभाविक रहती है, पर दुर्गन्ध किसी विकृति से प्रकट होती है। ‘‘तेज’’ रूप-तन्मात्रा से प्रकट होता है, उसी में रहता है और अन्त में उसी में लीन हो जाता है। अग्नि में तेज ही तत्त्व है। तेज के बिना अग्नि निस्तत्त्व है, कुछ नहीं है। वह तेज मैं ही हूँ।

सम्पूर्ण प्राणियों में एक जीवनी शक्ति है, प्राणशक्ति है, जिससे सब जी रहे हैं। उस प्राणशक्ति से वे प्राणी कहलाते हैं। प्राणशक्ति के बिना उनमें प्राणीपना कुछ नहीं है। प्राणशक्ति के कारण नींद में सोता हुआ आदमी भी मुर्दे से विलक्षण दीखता है।वह प्राणशक्ति मैं ही हूँ।

द्वन्दों को सहने को ‘‘तप’’ कहते हैं। परन्तु वास्तव में परमात्व तत्त्व की प्राप्ति के लिए कितने ही कष्ट आयें, उनमें निर्विकार रहना ही असली तप है। यही तपस्वियों में ‘‘तप’’ हेै, इसी से वे तपस्वी कहलाते हैं और इसी तप को भगवान अपना स्वरूप बताते हैं। अगर तपस्वियों में से ऐसा तप निकाल दिया जाए तो वे तपस्वी नहीं रहेंगे।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।