श्रीमद् भगवद्गीता का माहात्म्य
श्रीमद् भगवद्गीता भगवान के श्रीमुख से निकली हुई परम रहस्यमय दिव्य वाणी है। इसमें स्वयं भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए उपदेश दिया है। महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन ने शत्रु सेना में अपने गुरुजनों, पितामह, भाई व भतीजों को देखा तो वह मोहग्रस्त हो भगवान से युद्ध न करने का आग्रह करने लगा। तब सारथी बने भगवान ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वही श्रीमद् भगवद्गीता के नाम से विख्यात है।
18 अध्याय और 700 श्लोकों से सुशोभित इस ग्रन्थ में भगवान ने- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग – ये तीन योग बतायें हैं। शरीर (अपरा) को लेकर कर्मयोग है, शरीरी (परा) को लेकर ज्ञानयोग है और शरीर-शरीरी दोनों के मालिक (भगवान) को लेकर भक्तियोग है।
आगे भगवान ने ध्यान योग का भी वर्णन किया है क्योंकि वह भी कल्याण करने का एक साधन है। मनुष्य कर्मयोग से जगत के लिए, ज्ञानयोग से अपने लिए और भक्तियोग से भगवान के लिए उपयोगी हो जाता है।
प्रथम अध्याय – अर्जुन विषाद योग
शक्तिशाली योद्धा अर्जुन युद्ध के लिए तैयार विपक्ष सेना में अपने सम्बन्धियों, गुरुजनों को देखता है तो उसका मन मोहग्रस्त हो जाता है और वह युद्ध करने का संकल्प त्याग देता है।
द्वितीय अध्याय – सांख्ययोग
श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद, सांख्ययोग, कर्मयोग एवम क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध की आवश्यकता का निरूपण। सकाम कर्मों की हीनता व निष्काम कर्मों की तथा स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण व उसकी महिमा का वर्णन।
तृतीय अध्याय – कर्मयोग
ज्ञानयोग तथा कर्मयोग दोनों निष्ठाओं का वर्णन करते हुए अर्जुन को कर्तव्य कर्म का उपदेश देना। यज्ञार्थ कर्म की विशेषता, ज्ञानी व अज्ञानी के लक्षण तथा राग-द्वेष रहित कर्म के लिए प्रेरणा।
चतुर्थ अध्याय – ज्ञान कर्म सन्यास योग
भगवान के द्वारा कर्मयोग की प्राचीन परम्परा का दिग्दर्शन। योगी महात्मा पुरुषों के आचरण व उनकी महिमा, विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन व ज्ञान की महिमा।
पंचम अध्याय – कर्मसन्यास योग
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण तथा महत्व, भक्ति सहित ध्यान योग का वर्णन।
षष्ठ अध्याय – आत्मसंयम योग
कर्मयोगी की प्रशंसा और योगारूढ़ पुरुष का लक्षण बताते हुए आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा तथा भगवत्प्राप्त पुरुषों के लक्षण। ध्यानयोग का फल सहित वर्णन, मन का निग्रह तथा योगभ्रष्ट पुरुषों की गति का वर्णन।
सप्तम अध्याय – ज्ञानविज्ञान योग
विज्ञानसहित ज्ञान की प्रशंसा, भगवान के समग्र स्वरुप का वर्णन। आसुरी स्वभाव वाले मनुष्यों की निंद्रा और भगवान के भक्तों की प्रशंसा तथा अन्य देवों की उपासना का वर्णन। भगवान के प्रभाव और स्वरुप को न जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की महिमा।
अष्टम अध्याय – अक्षर ब्रह्मयोग
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के स्वरुप का तथा भक्तियोग का वर्णन। शुक्ल तथा कृष्णमार्ग का वर्णन।
नवम अध्याय – राजविद्याराज गुह्ययोग
विज्ञानयुक्त ज्ञान, भगवान के ऐश्वर्य का प्रभाव और जगत की उत्पत्ति का वर्णन। भगवान के प्रभाव को न जानने के कारण उनका तिरस्कार करने वालों की निन्दा, भक्ति की महिमा, प्रभावसहित भगवान के स्वरुप का वर्णन। सकाम तथा निष्काम उपासना का फल।
दशम अध्याय – विभूतियोग
भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन, फल तथा भक्तियोग का कथन। अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना। भगवान द्वारा विभूतियों का और योगशक्ति का कथन।
एकादश अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोग
भगवान के विश्वरूप दर्शन कराने हेतु अर्जुन की प्रार्थना तथा भगवान के विश्वरूप के दर्शन। अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप दर्शन की प्रार्थना। भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महिमा और अनन्य भक्ति का निरूपण।
द्वादश अध्याय – भक्तियोग
अर्जुन के प्रश्न करने पर भगवान के द्वारा साकार और निराकार स्वरुप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय, भगवत्प्राप्ति के विविध साधनों का वर्णन तथा भगवत्प्राप्त पुरुषों के लक्षण।
त्रयोदश अध्याय – क्षेत्र क्षेत्रज्ञविभागयोग
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान योग का निरूपण तथा ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का वर्णन।
चतुर्दश अध्याय – गुणत्रयविभागयोग
ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति तथा सत्व, रज, तम – तीनों गुणों का विविध प्रकार से वर्णन।
पंचदश अध्याय – पुरुषोत्तमयोग
संसार वृक्ष का कथन, भगवत्प्राप्ति के साधन तथा जीवात्मा का प्रकरण। भगवान के प्रभाव एवं स्वरुप का प्रकरण तथा क्षर-अक्षर एवं पुरुषोत्तम का निरूपण।
षोडश अध्याय – दैवासुर सम्पद्विभाग योग
फलसहित दैवी और आसुरी संपत्ति का वर्णन, आसुरी सम्पदा वालों के लक्षण तथा उनकी अधोगति का वर्णन। काम-क्रोध और लोभरूप नरक द्वारों के त्याग के साथ-साथ शास्त्रानुकूल कर्म करने के लिए प्रेरणा।
सप्तदश अध्याय – श्रद्धात्रयविभाग योग
श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन। तीनों गुणों के अनुसार आहार, यज्ञ, तप और दान के प्रथक-प्रथक भेद तथा ॐ तत्सत के प्रयोग की व्याख्या।
अष्टदश अध्याय – मोक्षसन्यास योग
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा त्याग के स्वरुप का निर्णय, कर्मों में होने में सांख्य सिद्धांत का कथन। तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, बुद्धि, धृति और सुख के प्रथक-प्रथक भेद, फलसहित वर्णधर्म का निरूपण तथा ज्ञान निष्ठा का निरूपण। भक्ति सहित कर्मयोग का वर्णन और शरणागति की महिमा तथा अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिए भगवान का आदेश। श्री गीताजी का माहात्म्य।।