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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ।।8।।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द, और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 8 | Bhagavad Gita Chapter 7)-
जैसे- साधारण दृष्टि से लोगों ने रूपयों को ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रूपये पैदा करने और उनका संग्रह करने में लोभी आदमी की स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझने में जो कुछ जगत् आता है, उसका कारण भगवान हैं। –(7/6) भगवान के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं- ऐसा मानने से भगवान में स्वाभाविक रूचि हो जाती है, फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है।
भगवान ने कहा -(10/8) ‘‘मैं सम्पूर्ण संसार का कारण हूँ, मेरे से ही संसार की उत्पत्ति होती है’’- ऐसा समझकर बुद्धिमान मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही (18/46) में कहा है कि- ‘‘जिस परमात्मा से सम्पूर्ण जगत् की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्मों के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।”
’’भगवान ने कहा- जलों में ‘‘रस’’ मैं हूँ। जल रस-तन्मात्रा से पैदा होता है; रस-तन्मात्रा में रहता है और रस-तन्मात्रा में ही लीन होता है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन स्थूल पंचमहाभूतों के कारणों का नाम भी क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द है, जो पंचतन्मात्रायें कहलाती हैं।
जल में से अगर ‘‘रस’’ निकाल दिया जाये तो जल तत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जल रूप से है। वह ‘‘रस’’ मैं हूँ।
चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश करने की जो एक विलक्षण शक्ति ‘‘प्रभा’’ है, वह मेरा स्वरूप है। ‘‘प्रभा’’ रूप-तन्मात्रा से उत्पन्न होती है, रूप-तन्मात्रा में रहती है और अन्त में रूप-तन्मात्रा में ही लीन हो जाती है।
रूप-तन्मात्रा में दो शक्तियाँ होती हैं, एक प्रकाशिका अर्थात् प्रकाश करने वाली, एक दाहिका अर्थात् जलाने वाली। प्रकाशिका शक्ति को ‘‘प्रभा’’ कहते हैं और दाहिका शक्ति को ‘‘तेज’’ कहते हैं। अगर चन्द्रमा और सूर्य में से प्रभा निकाल दी जाये तो चन्द्रमा और सूर्य प्रकाश रहित हो जायेंगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्य रूप से प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि- वह ‘‘प्रभा’’ भी मैं ही हूँ।
(प्रभा दाहिका शक्ति के बिना भी रह सकती है जैसे- मणि और चन्द्रमा में प्रभा तो होती है पर तेज (दाहिका शक्ति) नहीं होती, पर दाहिका शक्ति प्रभा के बिना नहीं रह सकती।)
सम्पूर्ण वेदों में ‘‘प्रणव’’ (ओंकार) मेरा स्वरूप है। कारण कि सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणव से त्रिपदा-गायत्री और त्रिपदा-गायत्री से वेदत्रयी (तीनों वेद) प्रकट हुये हैं। इसलिए वेदों में सार प्रणव ही रहा। अगर वेदों में से प्रणव निकाल दिया जाए तो वेद वेदरूप से नहीं रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्री रूप से प्रकट हो रहा है। वह प्रणव मैं ही हूँ ।
सब जगह यह जो कोलाहट दीखती है, यह आकाश है। आकाश शब्द-तन्मात्रा से पैदा होता है, शब्द-तन्मात्रा में ही रहता है और अन्त में शब्द-तन्मात्रा में ही लीन हो जाता है। अतः शब्द-तन्मात्रा ही आकाशरूप से प्रकट हो रही है। शब्द-तन्मात्रा के बिना आकाश कुछ नहीं है। वह शब्द मैं ही हूँ।
मनुष्यों में सार चीज जो पुरुषार्थ है, वह मेरा स्वरूप है। वास्तव में नित्य प्राप्त परमात्मा का अनुभव करना ही मनुष्यों में असली पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्यों ने अप्राप्त को प्राप्त करने में ही अपना पुरुषार्थ मान रखा है; जैसे- निर्धन आदमी धन की प्राप्ति में पुरुषार्थ मानता है, अनपढ़ आदमी पढ़ लेने में पुरुषार्थ मानता है। निष्कर्ष यह निकला कि जो अभी नहीं है, उसकी प्राप्ति में ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ मानता है, पर वास्तव में यह पुरुषार्थ, पुरुषार्थ नहीं है। कारण कि जो पहले नहीं थे, प्राप्ति के समय भी जिनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है और अन्त में जो ‘‘नहीं’’ में भरती हो जायेंगे, ऐसे पदार्थों को प्राप्त करना पुरुषार्थ नहीं है। परमात्मा पहले भी मौजूद थे, अब भी मौजूद हैं और आगे भी सदा मौजूद रहेंगे, क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता। इसलिए परमात्मा को उत्साहपूर्वक प्राप्त करने का जो प्रयत्न है, वही वास्तव में पुरुषार्थ है। उसकी प्राप्ति करने में ही मनुष्यों की मनुष्यता है। उसके बिना मनुष्य कुछ नहीं है अर्थात् निरर्थक है।
परिशिष्ट भाव-
यद्यपि कारण की अपेक्षा कार्य में विशेष गुण होता है, पर स्वतन्त्र सत्ता कारण की ही होती है अर्थात् कारण के बिना कार्य की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे- मिट्टी कारण है और घड़ा कार्य है। घड़े में जल भरा जा सकता है, पर यह विशेषता मिट्टी में नहीं है। परन्तु मिट्टी के बिना घड़े की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। तात्पर्य है कि कारण ही कार्य रूप में परिणित होता है। घड़े की रचना में कर्ता, कारण और कार्य- तीनों एक नहीं होते अर्थात् कारण (मिट्टी) और कार्य (घडा़) की तो एक सत्ता होती है पर कर्ता (कुम्हार) की अलग स्वतन्त्र सत्ता होती है। परन्तु सृष्टि की रचना में कर्ता, कारण और कार्य- तीनों एक भगवान ही होते हैं।
अतःरस भी भगवान हैं और जल भी भगवान हैं।
प्रभा भी भगवान हैं और चन्द्र, सूर्य भी भगवान हैं।
ओंकार भी भगवान हैं और वेद भी भगवान हैं।
शब्द भी भगवान हैं और आकाश भी भगवान हैं।
पुरुषार्थ भी भगवान हैं और मनुष्य भी भगवान हैं।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।