Spirtual Awareness

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।7।।

श्री भगवान् बोले- हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 7 | Bhagavad Gita Chapter 7)-

हे अर्जुन! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है, मैं ही सब संसार का महाकारण हूँ। जैसे- वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है, आकाश में ही रहती है और आकाश में ही लीन होती है अर्थात् आकाश के सिवाय वायु की कोई पृथक स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान से उत्पन्न होता है, भगवान् में ही स्थित रहता है और भगवान में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान के सिवाय संसार की कोई पृथक स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।

यहाँ ‘‘परतरं’’ कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारण के आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारण का कोई उत्पादक नहीं है। भगवान ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपन से इन सबका होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्ता से ये सभी ‘‘है’’ दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं।

जो कार्य होता है, उसकी कारण के सिवाय कोई अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। वास्तव में कारण ही कार्य रूप से दीखता है। इस प्रकार जब कारण का ज्ञान हो जायेगा, तब कार्य कारण में लीन हो जायेगा अर्थात् कार्य की अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी। ‘‘एक परमात्मा के सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है’’– ऐसा अनुभव स्वतः हो जायेगा।

यह सारा संसार सूत में सूत की मणियों की तरह मेरे में पिरोया हुआ है, अर्थात् मैं ही सारे संसार में व्याप्त हूँ। जैसे- सूत से बनी मणियों में और सूत में सूत के सिवाय अन्य कुछ नहीं है; ऐसे ही संसार में मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है।

संसार में जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम-रूप आकृति आदि से अलग-अलग दीखते है, पर वास्तव में उनमें व्याप्त रहने वाला चेतन तत्त्व एक ही है। वह चेतन तत्त्व मैं ही हूँ। (गीता 13/2) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनों में मैं ही परिपूर्ण हूँ, व्याप्त हूँ। साधक जब संसार को संसार बुद्धि से देखता है, तब उसको संसार में परिपूर्ण रूप से व्याप्त परमात्मा नहीं दीखते। जब उसको परमात्म तत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्याप्त-व्यापक भाव मिटकर एक परमात्व तत्त्व ही दीखता है।

अपरा और परा का भेद “अपरा” प्रकृति के कारण ही है; क्योंकि अपरा को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण ही जीव है।(7/5) अतः अपरा प्रकृति जगत् में भी है और जीव में भी। परन्तु परमात्मा में न अपरा है न परा है; न जगत् है, न जीव है। तात्पर्य है कि वास्तव में न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रूई) ही है। इसी तरह न अपरा है, न परा है, प्रत्युत एक परमात्मा ही हैं।

कारण ही कार्य में परिणित होता है; जैसे- रूई ही धागा बनती है, बीज ही वृक्ष बनता है। अतः सबके परम कारण भगवान होने से सब रूपों में भगवान् ही हैं- “वासुदेवः सर्वम्”। इसलिए भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता को देखना भूल है।

उपनिषद  में आया है- (कठोपनिषद 1/3/11)

पुरुष से पर कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही परम गति है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।