Spirtual Awareness

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । 
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।।6।।

श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् जगत् का मूल कारण हूँ।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 6 | Bhagavad Gita Chapter 7)-

जितने भी देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जंगम (चलने वाले) और वृक्ष-लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब-के-सब मेरी अपरा और परा प्रकृति के सम्बन्ध से ही उत्पन्न होते हैं।

भगवान् ने बताया है कि स्थावर-जंगम योनियों में उत्पन्न होने वाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृति के हैं और उन शरीरों में जो बीज अर्थात् जीवात्मा है वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्मा को भगवान् ने ‘‘परा’’ प्रकृति (7/15) और अपना अंश (15/7) कहा है।

स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकों के जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी हैं, वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृति के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि ‘‘परा’’ प्रकृति ने ‘‘अपरा’’ को अपना मान लिया है, उसका संग कर लिया है- इसी से सब प्राणी पैदा होते हैं- इसको तुम ठीक तरह से समझ लो अथवा मान लो।

वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति परमात्मा से ही मिलती है, इसलिए भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव (उत्पन्न करने वाला) और प्रलय (लीन करने वाला) हूँ।

“प्रभवः”-का तात्पर्य है कि मैं ही जगत् का निमित्त कारण हूँ, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्प से पैदा हुई है। (छान्दोग्य उपनिषद 6/2/3)

जैसे- घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार ही निमित्त कारण (बनाने वाला) है, ऐसे ही संसार मात्र की  उत्पत्ति में भगवान ही निमित्त कारण हैं।

“प्रलयः”– कहने का तात्पर्य है कि इस जगत् का उपादान कारण भी मैं ही हूँ (क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक ही परमात्मा था और कुछ नहीं था, जो कि संसार का उपादान कारण हो सकता) क्योंकि कार्य मात्र उपादान कारण से उत्पन्न होता है; उपादान कारण रूप से ही रहता है और अन्त में उपादान कारण में ही लीन हो जाता है।

जैसे- घड़ा बनाने में मिट्टी उपादान कारण है, ऐसे ही सृष्टि की रचना करने में भगवान् ही उपादान कारण हैं। जैसे- घड़ा मिट्टी से पैदा होता है, मिट्टीरूप ही रहता है और अन्त में टूट करके घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है। ऐसे ही यह संसार भगवान से ही उत्पन्न होता है, भगवान में ही रहता है और अन्त में भगवान में ही लीन हो जाता है- ऐसा जानना ही ‘‘ज्ञान’’ है। सब कुछ भगवद्स्वरूप है, भगवान् के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं- ऐसा अनुभव हो जाना ही ‘‘विज्ञान’’ है।

जो परिवर्तनशील है, उसको जगत् कहते हैं। यहाँ पर जगत् शब्द जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण संसार का वाचक है। इसमें जड़ अंश तो परिवर्तनशील है और चेतन अंश सदा-सर्वदा परिवर्तन रहित तथा निर्विकार है। वह निर्विकार तत्त्व जब जड़ के साथ अपना सम्बन्ध मानकर तादात्म्य कर लेता है, तब वह जड़ (शरीर) के उत्पत्ति विनाश को अपना उत्पत्ति विनाश मान लेता है, इसी से उसके जन्म-मरण कहे जाते हैं। इसलिए भगवान ने अपने को सम्पूर्ण अर्थात् ‘‘अपरा’’ और ‘‘परा’’ प्रकृति का प्रभव तथ प्रलय बताया है।

जड़ से तादात्म्य करने के कारण ही चेतन को ‘‘जगत्’’ नाम से कहा गया है। इस बात पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि जड़ता के साथ एकात्मता करने से जीव ‘‘जगत्’’ (शरीर) कहा जाता है। परन्तु जब यह जड़ से विमुख होकर चिन्मय तत्त्व के साथ अपनी एकता का अनुभव कर लेता है, तब यह “योगी” कहा जाता है।

परिशिष्ट भाव-

जो न खुद को जान सके और न दूसरे को जान सके, वह ‘‘अपरा प्रकृति’’ है। जो खुद को भी जान सके और दूसरे को भी जान सके, वह ‘‘परा प्रकृति’’ है। इन अपरा और परा दोनों के माने हुए संयोग से ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी पैदा होते हैं। –(गीता 13/26)

मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ-  इसका तात्पर्य है कि इस स्थावर-जंगम रूप जगत् को मैं ही उत्पन्न करने वाला हूँ, मैं ही नाश करने वाला हूँ और मैं ही नष्ट (लीन) होने वाला हूँ, क्योंकि मेरे सिवाय संसार का कोई भी दूसरा कारण तथा कार्य है ही नहीं। (7/7) अर्थात् मैं ही इसका निमित्त तथा उपादान कारण हूँ। अतः जगतरूप से मैं ही हूँ।

अमृत और मृत्यु तथा सत और असत भी मैं ही हूँ। -( गीता 9/19)

श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं (11/28/6)- जो कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वस्तु है, वह सर्वशक्तिमान परमात्मा ही हैं। जो कुछ सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसके निमित्त कारण भी वे ही हैं और उपादान कारण भी वे ही हैं अर्थात् वे ही विश्व बनते हैं और वे ही विश्व बनाते हैं, वे ही रक्षक हैं और वे ही रक्षित हैं। वे ही सर्वात्मा भगवान् इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वे भी वे ही हैं।

“तैत्तिरीयोपनिषद” में आया है कि अन्न भी मैं ही हूँ और अन्न को खाने वाला भी मैं ही हूँ। (3/10/6)

तात्पर्य यह हुआ कि‘‘अपरा’’ और ‘‘परा ’’ प्रकृति तथा उनके संयोग से पैदा होने वाले सम्पूर्ण प्राणी- ये सब-के-सब एक भगवान् ही हैं। कारण भी भगवान् हैं और कार्य भी भगवान् हैं।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।