Spirtual Awareness

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ।।3।।

श्री भगवान् बोले- हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 3 | Bhagavad Gita Chapter 7)-

हजारों मनुष्यों में कोई एक ही मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है। तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओं की तरह खाना-पीना और ऐशो-आराम करना नहीं है, वे ही वास्तव में मनुष्य हैं। उन मनुष्यों में भी जो नीति और धर्म पर चलने वाले हैं, ऐसे मनुष्य हजारों हैं (संसार में करोड़ों-करोड़ों की आबादी है) उन हजारों मनुष्यों में भी कोई एक ही सिद्धि के लिए यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुख का लेश भी नहीं और आनन्द की किंचिन मात्र भी कमी नहीं, कमी की सम्भावना ही नहीं- ऐसे स्वतः सिद्ध नित्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए यत्न करता है।

जो परलोक में स्वर्गादि की प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोक में धन, मान, भोग, कीर्ति आदि नहीं चाहता अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं में नहीं अटकता और भोगे हुए भोगों के तथा मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि के संस्कार रहने से उन विषयों का संग होने पर, उन विषयों में रूचि होते रहने पर भी जो अपनी मान्यता, उद्देश्य, विचार, सिद्धान्त आदि से विचलित नहीं होता- ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धि के लिए यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए यत्न करने वाले अर्थात् दृढ़ता से उधर लगने वाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।

परमात्मा प्राप्ति की तरफ न लगने में कारण है- भोग और संग्रह में लगना। सांसारिक भोग पदार्थों में केवल आरम्भ में ही सुख दीखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देने वाले साधनों में ही लगते हैं, उनका परिणाम क्या होगा, इस पर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्य के परिणाम पर विचार करने लग जायें कि भोग और संग्रह के अन्त में कुछ नहीं मिलेगा, रीते रह जायेंगे और उनकी प्राप्ति के लिए किए हुए पाप कर्मों के फल रूप चैरासी लाख योनियों तथा नरकों के रूप में दुख ही दुख मिलेगा तो वे परमात्मा के साधन में लग जायेंगे।

इतिहास में भी देखते हैं तो सकाम भाव से तपस्या आदि साधन करने वालों के ही चरित्र विशेष आते हैं। कल्याण के लिए तत्परता से साधन करने वालों के चरित्र बहुत ही कम आते हैं।

वास्तव में परमात्म तत्त्व की प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इधर सच्ची लगन से तत्परता पूर्वक लगने वाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़ता से न लगने में संयोगजन्य सुख की तरफ आकृष्ट होना और परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के लिए भविष्य की आशा रखना ही कठिनता का खास कारण है।

परमात्मा सब देश में, सब काल में, सम्पूर्ण व्यक्तियों में, सब वस्तुओं में, सब घटनाओं में, सब परिस्थितियों में और सम्पूर्ण क्रियाओं में स्वतः परिपूर्ण रूप से मौजूद हैं, अतः उनकी प्राप्ति में भविष्य का कोई कारण ही नहीं है। परमात्मा सब समय में है तो अभी भी है, जब अभी हैं तो भविष्य क्यों? परमात्मा सबमें हैं तो मेरे में भी हैं, जब मेरे में हैं तो दूसरे किसी में खोजने की पराधीनता नहीं।

मुक्त तो कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी आदि सभी हो सकते हैं, पर भगवान् के समग्र रूप को जानने वाले सब नहीं होते। भगवान् ने गीता में कहा है- ‘‘मेरे समग्र रूप को परा भक्ति से ही जाना जा सकता है। (गीता 18/55)’’

भगवान् के समग्र रूप को भगवान् की कृपा से ही जाना जा सकता है, विचार से नहीं। (गीता 10/11)

जैसे- दूध पिलाते समय गाय अपने बछड़े को स्नेहपूर्वक चाटती है तो उससे बछड़े की जो पुष्टि होती है, वह केवल दूध पीने से नहीं होती। ऐसे ही भगवान् की कृपा से जो ज्ञान होता है, वह अपने विचार से नहीं होता, क्योंकि विचार करने में स्वयं की सत्ता रहती है, अहंकार रहता है, जो कि अज्ञान है।

केवल निर्गुण को जानने वाला (ज्ञानी) परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता, प्रत्युत सगुण-निर्गुण दोनों को (समग्र को) जानने वाला ही परमात्मा को तत्त्व से जानता है।

जो मनुष्य सांसारिक दुखों से छूटना चाहता है, पराधीनता से छूटकर स्वाधीन होना चाहता है, वह कामनाओं का त्याग कर दे तो मुक्त हो जाये। परन्तु जो मनुष्य संसार से दुखी होकर ऐसा सोचता है कि कोई तो अपना होता, जो मेरे को अपनी शरण लेकर, अपने गले लगाकर मेरे दुःख, सन्ताप, पाप, अभाव, भय, नीरसता आदि को हर लेता- उसको भक्ति प्राप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मुक्ति पाने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत भक्ति पाने के लिए ईश्वर की आवश्यकता है।

जब मनुष्य इस बात को जान लेता है कि इतने बडे संसार में, अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान् की आवश्यकता का अनुभव होता है। कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें। जो कभी हमारे से अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों, ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि भगवान् मिलते क्यों नहीं? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान् की प्राप्ति के बिना सुख-आराम से रहता है, वह अपनी आवश्यकता को भूले रहता है। वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ में ही सन्तोष कर लेता है। अगर वह भगवान् की आवश्यकता का अनुभव करे, उनके बिना चैन से न रह सके तो भगवान् की प्राप्ति में देरी नहीं है। कारण कि जो नित्य प्राप्त है उसकी प्राप्ति में क्या देरी? वे तो सब देश में, सब समय में, सब वस्तुओं में, सब अवस्थाओं में, सब परिस्थितियों में, ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।