वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।26।।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! जो प्राणी भूत काल में हो चुके हैं तथा वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे उन सब प्राणियों को तो मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 26 | Bhagavad Gita Chapter 7)
यहाँ भगवान ने प्राणियों के लिये तो भूत, वर्तमान और भविष्यकाल तीन विशेषण दिए हैं, परन्तु अपने लिए केवल वर्तमानकाल का ही प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि भगवान की दृष्टि में भूत, भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल वर्तमान ही हैं। अतः भूत के प्राणी हों, भविष्य के प्राणी हों अथवा वर्तमान के प्राणी हों- सभी भगवान की दृृष्टि में वर्तमान होने से भगवान सभी को जानते हैं। जैसे- सिनेमा देखने वालों के लिए भूत, वर्तमान और भविष्यकाल का भेद रहता है, पर सिनेमा की फिल्म में सब कुछ वर्तमान है। ऐसे ही प्राणियों की दृष्टि में भूत, वर्तमान और भविष्यकाल का भेद रहता है, पर भगवान की दृष्टि में सब कुछ वर्तमान ही रहता है। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी, काल के अन्तर्गत हैं और भगवान काल से अतीत हैं।
देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि बदलते रहते हैं और भगवान हर दम वैसे के वैसे ही रहते हैं। काल के अंतर्गत आये हुए प्राणियों का ज्ञान सीमित होता है और भगवान का ज्ञान असीम है। भगवान तो जीवों को और संसार को सब समय स्वतः जानते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जीव नित्य निरंतर भगवान में ही रहते हैं, भगवान से कभी अलग हो ही नहीं सकते। भगवान में भी यह ताकत नहीं है कि वे जीवों से अलग हो जाएँ ! अतः प्राणी कहीं भी रहे, वे कभी भी भगवान की दृष्टि से ओझल नहीं हो सकते।
जैसे- बाँस की चिक दरवाजे पर लटका देने से भीतर वाले तो बाहर वालों को पूर्णतया देखते हैं, पर बाहर वाले भीतर वालों को नहीं देख पाते, उन्हें केवल दरवाजे पर लटकी हुई चिक दिखाई देती है। ऐसे ही योग माया रूपी चिक से अच्छी तरह से आवरत होने के कारण भगवान को मूढ़ लोग नहीं देख पाते, पर भगवान सबको देखते हैं।
भगवान ने अपनी तरफ से मनुष्य को अंतिम जन्म दिया है। अब इस जन्म में मनुष्य अपना उद्धार कर ले अथवा पतन कर ले- यह उसके ऊपर निर्भर करता है (गीता- 7/27, 8/6)। उसके उद्धार अथवा पतन का निर्णय भगवान नहीं करते।
बिना कारण कृपा करने वाले (कृपानिधान) प्रभु जीव को मनुष्य शरीर देते हैं। (मानस- 7/44/3) ऐसे ही मनुष्य मात्र को विवेक और उद्धार की पूरी सामग्री देकर भगवान ने कहा है कि- तू अपना उद्धार कर ले अर्थात अपने उद्धार में तू केवल निमित्त मात्र बन जा, मेरी कृपा तेरे साथ है। इस मनुष्य शरीर रूपी नौका को पाकर मेरी कृपा रूपी अनुकूल हवा से जो भव सागर को नहीं तरता अर्थात अपना उद्धार नहीं करता, वह आत्म हत्यारा है । (श्रीमद् भागवत- 11/20/17) गीता में भी भगवान ने कहा है कि जो परमात्मा को सब जगह सामान रीती से परिपूर्ण देखता है, वह अपनी हत्या नहीं करता, इसलिए वह परम गति को प्राप्त होता है।- (गीता- 13/28)
इससे यह भी सिद्ध हुआ कि मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर अपना उद्धार करने का अधिकार, सामर्थ, समझ आदि पूरी सामग्री मिलती है। ऐसा अमूल्य अवसर पाकर भी जो अपना उद्धार नहीं करता वह अपनी हत्या करता है और इसी से वह जन्म-मरण में जाता है। अगर यह जीव मनुष्य शरीर पाकर शास्त्र और भगवान से विरुद्ध न चले तथा मिली हुई सामग्री का ठीक-ठीक उपयोग करे, तो इसकी मुक्ति स्वतः सिद्ध है। इसमें कोई बाधा लग ही नहीं सकती।
मनुष्य के लिए खास बात है कि भगवान ने कृपा करके जो सामर्थ, समझ आदि सामग्री दी है, उसका मैं दुरूपयोग नहीं करूँगा, भगवान के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं चलूँगा- ऐसा यह अटल निश्चय कर ले और उस निश्चय पर डटा रहे। अगर अपनी सामर्थ से कभी दुरूपयोग भी हो जाये तो मन में उसकी जलन पैदा हो जाये और भगवान से कह दें कि- हे नाथ! मेरे से गलती हो गई, अब ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा। हे नाथ! ऐसा बल दो, जिससे कभी आपके सिद्धांत से विपरीत न चलूँ तो उसका प्रायश्चित हो जाता है और भगवान से मदद मिलती है।
चर-अचर अनंत जीवों के लिए भगवान ऐसा संकल्प नहीं करते कि उनके अनेक जन्म होंगे। हाँ, यह बात अवश्य है कि मनुष्य के सिवाय दूसरे प्राणियों के पीछे परम्परा से कर्मफलों का ताँता लगा हुआ है, जिससे वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। ऐसी परम्परा में पड़े हुए जीवों में से कोई जीव किसी कारण से मनुष्य शरीर में अथवा किसी अन्य योनि में भी प्रभु के चरणों की शरण हो जाता है, तो भगवान उसके अनंत जन्मों के पापों को नष्ट कर देते हैं। (मानस- 5/44/1)
परिशिष्ट भाव
हमने ही अहम् के कारण संसार को सत्ता और महत्ता दे रखी है। इसलिए भगवान हमारी भाषा में भूत, भविष्य, वर्तमान की बात कहते हैं। अगर वे हमारी भाषा में नहीं बोलेंगे तो हम समझेंगे कैसे?
भगवान का ज्ञान नित्य है। सब कुछ भगवान के ज्ञान के अन्तर्गत है। उनके ज्ञान से बाहर कुछ भी नहीं है। भगवान के ज्ञान में उनके सिवाय कुछ नहीं है (गीता 7/7)। जीव ने ही अहम् के कारण (अज्ञान से) जगत् को धारण कर रखा है- (गीता 7/5)। अतः बन्धन और मोक्ष जीव के ही बनाए हुए हैं। तत्त्व से न बन्धन है, न मोक्ष; किन्तु केवल भगवान ही हैं। (आत्मोपनिषद 31)- “न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बन्ध है, न बद्ध है और न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त है- यही परमार्थता अर्थात् वास्तविक तत्त्व है।”
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।