Spirtual Awareness

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥25॥

श्री भगवान बोले- अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। इसलिए यह अज्ञानी जन-समुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 25 | Bhagavad Gita Chapter 7)

जब मैं अवतार लेता हूँ, तब सबके सामने प्रकट होता हूँ और फिर अन्तर्धान हो जाता हूँ। जैसे- सूर्य भगवान उदय होते हैं, तब सबके सामने आ जाते हैं और अस्त होते हैं, तब हमारे नेत्रों से ओझल हो जाते हैं, छिप जाते हैं। सूर्य तो तीनों कालों में अन्तरिक्ष में विराजमान है। ऐसे ही मैं केवल प्रकट और अन्तर्धान होने की लीला करता हूँ (गीता 9/11)।

भगवान को अज, अविनाशी न मानने में कारण है कि इस मनुष्य का भगवान के साथ जो स्वतः अपनापन है, उसको भूलकर इसने शरीर को अपना मान लिया कि ‘‘यह शरीर ही मैं हूँ और यह शरीर मेरा है।’’ इसलिए इसके सामने पर्दा आ गया, जिससे वह भगवान को भी अपने समान ही जन्मने-मरने वाला मानने लगा।

मूढ़ मनुष्य मेरे को अज और अविनाशी नहीं जानते। उनके न जानने में दो कारण हैं- 1. मेरा योगमाया से छिपा रहना और 2. उनकी मूढ़ता।

जैसे- किसी शहर में किसी का एक घर है और वह अपने घर में बन्द है तथा उस शहर के सब के सब घर शहर की चहारदीवारी (परकोटे) में बन्द हैं। अगर वह मनुष्य बाहर निकलना चाहे तो अपने घर से तो निकल सकता है, परन्तु शहर की चहारदीवारी से निकलना उसके हाथ की बात नहीं है। हाँ, यदि उस शहर का राजा चाहे तो वह उसके घर का दरवाजा भी खोल सकता है और चहारदीवारी का दरवाजा भी खोल सकता है। ऐसे ही प्राणी अपनी मूढ़ता को दूर करके (गुरु के सान्निध्य में रहकर) अपने नित्य स्वरूप को जान सकता है। परन्तु भगवत्तत्व का बोध तो भगवान की कृपा से ही हो सकता है। भगवान जिसको जनाना चाहें, वही उनको जान सकता है (मानस 2/127/2)।

अगर मनुष्य सर्वथा भगवान के शरण हो जाये तो भगवान उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी हटा देते हैं।

जो मेरे को अजन्मा, अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर मानते हैं, मेरे में श्रद्वा-विश्वास रखते हैं, उनके भावों के अनुसार मैं उनके सामने प्रकट रहता हूँ।
बालक अपने पिता के जन्म को कैसे देख सकता है? क्योंकि वह उस समय पैदा ही नहीं हुआ था। वह तो पिता से पैदा हुआ है। अतः उसका पिता के जन्म को न जानना दोषी नहीं है। जीव भगवान का अंश है। जिस समय भगवान ने संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, उस समय को जीव जानता ही नहीं। फिर भगवान एक से अनेक हो गए और अनेक जीव अनेक जन्म-मरण में चले गये। अब वे जानते ही नहीं कि वे भगवान से आये हैं। जीव देह धारण करते हैं और फिर अनेक जन्मों के बाद भक्त बनते हैं एवं भगवान से मिलकर एक हो जाते हैं। इस सारी प्रक्रिया को जीव ने देखा ही नहीं है इसलिए वह अपने पिता भगवान को जानता ही नहीं है, फिर उन भगवान के प्रकट होने को कोई सर्वथा जान ही नहीं सकता। मनुष्य भगवान को अज, अविनाशी मान सकते हैं। यदि वे भगवान को अज, अविनाशी नहीं मान पाते तो यह उनका दोष है। इसलिए उनको यहाँ मूढ़ कहा है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।