यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।21।।
श्री भगवान बोले- जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर कर देता हूँ।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 21 | Bhagavad Gita Chapter 7)
जो मनुष्य जिस देवता को पूजना चाहते हैं, भगवान उसकी श्रद्धा को उसी देवता के प्रति दृढ़ कर देते हैं। वे दूसरों में न लगकर, मेरे में ही लग जायें- ऐसा भगवान नहीं करते। देवताओं में लगने से और कामनाओं के कारण उनका कल्याण नहीं होता और जो भगवान में श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, अपना कल्याण करना चाहते हैं, भगवान उनकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ कर देते हैं। कारण कि भगवान प्राणिमात्र के सुहृद हैं, जो जैसी श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही फल पाता है। मनुष्य चाहे देवताओं की उपासना करे, चाहे भगवान की, इसमें वह स्वतन्त्र है।
परिशिष्ट भाव
प्रायः मनुष्य दूसरे मनुष्यों को अपनी तरफ लगाना चाहते हैं, अपना शिष्य या दास बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदाय में शामिल करना चाहते हैं, अपने में श्रद्धा करवाना चाहते हैं, अपना पूजन, आदर, मान-सम्मान करवाना चाहते हैं, अपनी बात मनवाना चाहते हैं। परन्तु भगवान सर्वोपरि होते हुए भी किसी को अपने अधीन नहीं बनाते, प्रत्युत जो जहाँ श्रद्धा रखता है, उसकी श्रद्धा को वहीं दृढ़ कर देते हैं- यह भगवान की कितनी उदारता है, निष्पक्षता है।
भगवान की दृष्टि में सब कुछ उनका ही स्वरूप है इसलिए भगवान में किसी के प्रति तनिक भी पक्षपात नहीं है। परन्तु भगवान का यह पक्षपात रहित स्वभाव सहज ही समझ में नहीं आता, प्रत्युत गहरा विचार करने से ही समझ में आता है। अगर यह स्वभाव किसी के समझ में आ जाये तो वह भगवान का भक्त हो जायेगा (रामचरित मानस, सुन्दरकाण्ड 34/2), (गीता 15/19)।
दूसरे को अपना दास वही बनाता है, जिसमें कोई कमी है। भगवान में कोई कमी है ही नहीं, इसलिए वे अपनी तरफ से किसी को अपना दास (अधीन) कैसे बना सकते हैं? परन्तु कोई उनका दास बनना चाहे तो वे मना नहीं करते और दयापूर्वक उसको दास स्वीकार कर लेते हैं। यह उनकी विशेष उदारता है। जैसे- छोटे से बालक को देखकर कोई व्यक्ति रीझ जाता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस बालक से उसका कोई स्वार्थ-भाव है। ऐसे ही जो भगवान का दास बनता है, उसके सरल स्वभाव से भगवान रीझ जाते हैं- ‘‘मोरें अधिक दास पर प्रीति’’ (मानस, उत्तरकाण्ड 16/4)।
गीता के 18 वें अध्याय में जहाँ भगवान के द्वारा यह कहा गया कि तुम जैसा चाहो, वैसा करो तो यह सुनकर अर्जुन घबरा गया। तब भगवान दया परवश होकर अर्जुन से बोले कि तू मेरी शरण में आ जा। ( गीता 18/66)।
दूसरे को अपना दास बनाने की नियत न होने पर भी अगर कोई दूसरा सहारा न मिलने पर मनुष्य घबरा जाये और उनका दास बनना चाहे तो भगवान दया-परवश होकर उसको स्वीकार कर लेते हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि जो किसी देवता पर श्रद्धा रखता है, उसकी श्रद्धा को भगवान उस देवता में दृढ़ कर देते हैं और जो भगवान पर श्रद्धा रखता है, उसकी श्रद्धा को भगवान अपने में दृढ़ कर दें- इसमें सन्देह ही क्या है ? कारण कि भगवान की दृष्टि भक्त के हित के लिए होती है, अपने स्वार्थ के लिए नहीं।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।