Spirtual Awareness

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ।।20।।

श्री भगवान बोले- उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 20 | Bhagavad Gita Chapter 7)

‘उन-उन’ अर्थात् इस लोक के और परलोक के भोगों की कामनाओं से जिनका ज्ञान ढक गया है, आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए जो विवेकयुक्त मनुष्य शरीर मिला है, उस शरीर में आकर परमात्मा की प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओं की पूर्ति करने में ही लगे रहते हैं। जब हम इतना सुनते हैं तो पक्का हो जाना चाहिए, लेकिन नहीं होता, क्योंकि मन सुखों में तथा कामनाओं में पड़ा रहता है तो तुरन्त फँस जाते हैं।
संयोगजन्य सुख की इच्छा को कामना कहते हैं। कामना दो तरह की होती है-

1. यहाँ के भोग भोगने के लिए धन-संग्रह की कामना। धन संग्रह की कामना दो तरह की होती है-

  • यहाँ चाहे जैसे भोग भोंगें, चाहे जब, चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें, सुख-आराम से दिन बीतें आदि के लिए अर्थात् संयोगजन्य सुख के लिए धन-संग्रह की कामना होती है।
  • मैं धनी हो जाऊँ, धन से मैं बड़ा बन जाऊँ आदि के लिए अर्थात् अभिमानजन्य सुख के लिए धन संग्रह की कामना होती है।

2. स्वर्गादि परलोक के भोग भोगने के लिए पुण्य-संग्रह की कामना। पुण्य-संग्रह की कामना भी दो तरह की होती हैं-

  • यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ।
  • परलोक में मेरे लिए भोग मिलें।

इन सभी कामनाओं से सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार, बन्ध-मोक्ष आदि का विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होने से वे यह समझ ही नहीं पाते कि जिन पदार्थों की हम कामना कर रहे हैं, वे पदार्थ हमारे साथ कब तक रहेंगे और हम उन पदार्थों के साथ कब तक रहेंगे? कामनाओं के कारण विवेक ढ़का जाने से वे अपने स्वभाव के परवश रहते हैं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सबमें मुख्य होता है, अतः व्यक्तिगत स्वभाव को कोई छोड़ नहीं सकता। परन्तु इस स्वभाव में जो दोष हैं, उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है। अगर उन दोषों को मनुष्य छोड़ नहीं सकता होता तो फिर मनुष्य-जन्म की महिमा ही क्या हुई? मनुष्य अपने स्वभाव को निर्दोष, शुद्ध बनाने में सर्वथा स्वतन्त्र है। परन्तु जब तक मनुष्य के भीतर कामनापूर्ति का उद्देश्य रहता है, तब तक वह अपने स्वभाव को सुधार नहीं पाता और तभी तक स्वभाव की प्रबलता और अपनी निर्बलता दिखती है। परन्तु जब मनुष्य का उद्देश्य कामना मिटाने का हो जाता है और भगवान से प्रेम हो जाता है, तब वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) का सुधार कर सकता है।अर्थात् उसमें प्रकृति की परवशता नहीं रहती। कामनाओं के कारण अपनी प्रकृति के परवश होने पर मनुष्य कामना-पूर्ति के अनेक उपायों को और विधियों को ढूंढता रहता है। अमुक यज्ञ करने से कामना पूरी होगी, कि अमुक तप करने से? अमुक दान करने से कामना पूरी होगी, कि अमुक मन्त्र का जप करने से? आदि-आदि उपाय खोजता रहता है।

कामना-पूर्ति के लिए अनेक उपायों और नियमों को धारण करके मनुष्य अन्य देवताओं की शरण लेते हैं, भगवान की शरण नहीं लेते। <अर्थार्थी और आर्त भक्त तो केवल भगवान की ही शरण होते हैं, पर ये मनुष्य भगवान को छोड़कर अन्य देवताओं के शरण होते हैं।

कामनाएँ, देवता, मनुष्य और नियम ये सभी अनेक हुआ करते हैं। अगर अनेक कामनाएँ होने पर भी उपास्य-देव एक परमात्मा हों तो वे उपासक का उद्धार कर देंगे। परन्तु कामनाएँ भी अनेक हों और उपास्य-देव भी अनेक हों तो उद्धार कौन करेगा ?

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।