Spirtual Awareness

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।2।।

श्री भगवान् बोले- मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्त्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 2 | Bhagavad Gita Chapter 7)

भगवान कहते हैं कि- अब मैं विज्ञान सहित ज्ञान कहूँगा, मैं खुद कहूँगा तथा सम्पूर्णतया से कहूँगा। मैं स्वयं मेरे स्वरूप का जैसा वर्णन कर सकता हूँ, वैसा दूसरे नहीं कर सकते। क्योंकि वे तो सुनकर और अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके ही कह सकते हैं। उनकी बुद्धि समष्टि-बुद्धि का एक छोटा-सा अंश है, वह कितना जान सकती है? इसलिए मैं तेरे लिए उस तत्त्व का वर्णन करूँगा, जिसको जानने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा।

सोने के गहने कितने होते हैं ? इसको मनुष्य नहीं जान सकता, क्योंकि गहनों का अन्त नहीं है, परन्तु उन सब गहनों में तत्त्व से एक सोना ही है, इसको तो मनुष्य जान ही सकता है। ऐसे ही परमात्मा की सम्पूर्ण विभूतियों और सामर्थ्य को कोई जान नहीं सकता, परन्तु उन सबमें तत्त्व से एक परमात्मा ही है इसको तो मनुष्य तत्त्व से जान ही सकता है। परमात्मा को तत्त्व से जानने पर उसकी समझ तत्त्व से परिपूर्ण हो जाती है, बाकी नहीं रहती। जैसे-कोई कहे कि मैनें जल पी लिया तो उसका तात्पर्य यह हुआ कि जल का अन्त नहीं हुआ है प्रत्युत हमारी प्यास का अन्त हुआ है। इसी तरह से परमात्म तत्त्व को तत्त्व से समझ लेने पर परमात्म तत्त्व के ज्ञान का अन्त नहीं हुआ है, प्रत्युत हमारी जो अपनी समझ है जिज्ञासा है वह पूर्ण हुई है उसका अन्त हुआ है, उसमें केवल परमात्म-तत्त्व ही रह गया है।

सब प्राणियों के आदि तथा स्वयं अनादि भगवान को देवता, ऋषि, महर्षि, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त आदि नहीं जान सकते। इसी प्रकार भगवान के अवतार लेने को, लीला को, ऐश्वर्य को कोई जान नहीं सकता, क्योंकि वे अपार हैं, अगाध हैं, अनन्त हैं। परन्तु उनको तत्त्व से तो जान ही सकते हैं।

परमात्म-तत्त्व को जानने के लिए ज्ञानयोग में जानकारी (जानने) की प्रधानता रहती है और भक्तियोग में मान्यता (मानने) की प्रधानता रहती है। जो वास्तविक मान्यता होती है, वह बड़ी दृढ़ होती है। जो वास्तविक परमात्मा सबके मूल में है, उसको कोई मान ले तो यह मान्यता कैसे छूट सकती है? क्योंकि यह मान्यता सत्य है।

भक्तिमार्ग में मानना मुख्य होता है। जैसे दसवें अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा कि – ‘‘हे महाबाहो अर्जुन! मैं तेरे लिए परम् वचन कहता हूँ, तुम सुनो अर्थात् तुम इस वचन को मान लो। वहाँ भक्ति का प्रकरण है। अतः वहाँ मानने की बात कहते हैं। ज्ञानमार्ग में जानना मुख्य होता है। जैसे चौदहवें अध्याय के पहले श्लोक में भगवान् ने कहा कि – ‘‘मैं ज्ञानों में सर्वोत्कृष्ट ज्ञान कहता हूँ जिसको जानने से सब के सब मुनि परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।’’ वहाँ ज्ञान का प्रकरण है। अतः वहाँ जानने की बात कहते हैं। भक्तिमार्ग में मनुष्य मानकर के जान लेता है और ज्ञान मार्ग में जानकर के मान लेता है। अतः पूर्ण होने पर दोनों की एकता हो जाती है।

संसार भगवान् से ही पैदा होता है और उनमें ही लीन होता है इसलिए भगवान इस संसार के महाकारण हैं- ऐसा मानना ज्ञान है। भगवान के सिवाय और कोई चीज है ही नहीं, सब कुछ भगवान ही हैं, स्वयं भगवान ही सब कुछ बने हुए हैं- ऐसा अनुभव हो जाना विज्ञान है।

जो मेरे सिवाय गुणों की अलग सत्ता मान लेता है, वह मोहित हो जाता है। परन्तु जो गुणों से मोहित न होकर अर्थात् ये गुण भगवान् से ही होते हैं और भगवान् में ही लीन होते हैं- ऐसा मानकर मेरे शरण होता है, वह त्रिगुणमयी माया को तर जाता है। ऐसे मेरे शरण होने वाले चार प्रकार के भक्त होते हैं-
 

1. अर्थार्थी   2. आर्त   3. जिज्ञासु   4. ज्ञानी (प्रेमी)

ये सभी उदार हैं पर ज्ञानी अर्थात् प्रेमी मेरे को अत्यन्त प्रिय हैं- ऐसा कहकर ज्ञान बताया (गीता 7/13-18)

जिसको ‘‘सब कुछ वासुदेव ही है’’ ऐसा अनुभव हो जाता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है- ऐसा कहकर विज्ञान बताया।

जो द्वन्द्व मोह से मोहित हो जाते हैं, वे बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं। जो एक निश्चय करके मेरे भजन में लग जाते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे निर्द्वन्द हो जाते हैं-(गीता 7/20-28)। ऐसा कहकर ज्ञान बताया। जो मेरा आश्रय लेते हैं वे चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा उनको अनुभव हो जाता है (गीता 7/29-30)- ऐसा कहकर विज्ञान बताया।

विज्ञान सहित ज्ञान को जानने के बाद जानना बाकी नहीं रहता। तात्पर्य है कि एक परमात्मा को न जानकर संसार की बहुत-सी विद्याओं को जान भी लिया तो वास्तव में कुछ नहीं जाना है, कोरा परिश्रम ही किया है।

ये इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्राकृत हैं, इसलिए ये प्रकृति से अतीत तत्त्व को नहीं जान सकते। स्वयं जब परमात्मा के शरण हो जाता है, तब स्वयं ही परमामा को जानता है। इसलिए परमात्मा को स्वयं से ही जाना जा सकता है, मन-बुद्धि आदि से नहीं।

केवल ‘ज्ञान’ से मुक्ति तो हो जाती है, पर ‘प्रेम’ का अनन्त आनन्द तभी मिलता है, जब उसके साथ ‘‘विज्ञान’’ भी हो। ‘‘विज्ञान’’ (भक्ति) में जो आनन्द है, वह ज्ञान में नहीं है, ज्ञान में तो अखण्ड रस है, पर विज्ञान में प्रतिक्षण वर्धमान रस है। विज्ञान समग्रता का वाचक है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।