Spirtual Awareness

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।।19।।

श्री भगवान बोले- बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 19 | Bhagavad Gita Chapter 7)

मनुष्य जन्म सम्पूर्ण जन्मों का अन्तिम जन्म है। भगवान ने जीव को मनुष्य शरीर देकर उसे जन्म-मरण के प्रवाह से अलग होकर अपनी प्राप्ति का पूरा अधिकार दिया है। परन्तु यह मनुष्य भगवान को प्राप्त न करके राग के कारण फिर पुराने प्रवाह में अर्थात् जन्म-मरण के चक्कर में चला जाता है। इसलिए भगवान कहते हैं कि- (गीता 9/3) (गीता 16/20) मेरे को प्राप्त किए बिना ही ये प्राणी अधम गति को चले जाते हैं अर्थात् वे मरने के बाद मनुष्य योनि में भी चले जाते तो कम से कम मनुष्य तो रह जाते, पर वे मेरी प्राप्ति का पूरा अधिकार प्राप्त करके भी अधम गति को चले गए (जानवर योनि)।

सन्तों की वाणी और शास्त्रों में आता है कि मनुष्य जन्म केवल अपना कल्याण करने के लिए मिला है, विषयों का सुख भोगने के लिए तथा स्वर्ग की प्राप्ति के लिए नहीं। इसलिए भगवान ने स्वर्ग की प्राप्ति चाहने वालों को मूढ़ और तुच्छ बुद्धि वाला कहा है (2/42, 7/23)।

मनुष्य जन्म में सम्पूर्ण पापों का नाश करके, सम्पूर्ण वासनाओं का नाश करके अपना कल्याण कर सकते हैं, भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए यह सम्पूर्ण जन्मों का अन्तिम जन्म है।

भगवान ने (8/6) श्लोक में कहा है कि जो मनुष्य अन्त समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, उस-उस भाव को ही वह प्राप्त होता है। इस तरह मनुष्य को जिस किसी भाव का स्मरण करने में जो स्वतन्त्रता दी गई है, इससे मालूम होता है कि भगवान ने मनुष्य को पूरा अधिकार दिया है अर्थात् मनुष्य के उद्धार के लिए भगवान ने अपनी तरफ से यह अन्तिम जन्म दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्म की तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले- इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है (मानस- 7/121/5)। इस बात को लेकर भगवान ने मनुष्यमात्र को परमात्मा-प्राप्ति का अधिकारी माना है और डंके की चोट के साथ, खुले शब्दों में कहा है कि- वर्तमान का दुराचारी से दुराचारी, पूर्व जन्मों के पापों के कारण नीच-योनि में जन्मा हुआ पाप-योनि और चारों वर्ण वाले स्त्री पुरुष – ये सभी भगवान का आश्रय लेकर परम-गति को प्राप्त हो सकते हैं (गीता- 9/30-33)।

नवें अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में (9/32) ऐसा विचित्र ‘‘पाप योनि’’ शब्द कहा है, जिसमें शुद्र से भी नीचे कहे और माने जाने वाले चांडाल, यवनादि तथा पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता आदि सभी लिये जा सकते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि पशु-पक्षी आदि मनुष्य से नीचे की योनियों में परमात्मा की तरफ चलने की योग्यता नहीं है, परन्तु परमात्मा के अंश होने से उनके लिए परमात्मा की तरफ से मना नहीं है। उनमें से बहुत से प्राणी भगवान और सन्त-महापुरुषों की कृपा से तथा तीर्थ और भगवद्धाम के प्रभाव से परम-गति को प्राप्त हो जाते हैं। देवता भोग-योनि है, वे भोगों में ही लगे रहते हैं, इसलिए उनको ‘‘अपना उद्धार करना है’’ ऐसा विचार नहीं होता। परन्तु वे अगर किसी कारण से भगवान की तरफ लग जाये तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इन्द्र को भी ज्ञान प्राप्त हुआ था- ऐसा शास्त्रों में आता है।

भगवान ने मनुष्य को अपना कल्याण करने की स्वतन्त्रता इस मनुष्य जन्म में दी है। अगर यह प्राणी इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न करे अर्थात् भगवान और शास्त्रों से विपरीत न चले, कम से कम अपने विवेक के विरुद्ध न चले तो उससे भगवान और शास्त्रों के अनुकूल चलना स्वाभाविक होगा।

शास्त्र की आज्ञानुसार निष्काम-भावपूर्वक कर्म करने की अवस्था में करने का प्रवाह मिट जाता है और क्रिया तथा पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कामना न होने से पुराना राग मिट जायेगा तो स्वतः बोध हो जायेगा (गीता- 4/32)।

निष्काम-भाव से विधिपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्म का पालन किया जाये तो अनादि काल से बने हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (4/23)। ज्ञान-योग से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से तर जाता है (4/36)। भगवान भक्त को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं (18/66)। जो भगवान को अज-अनादि जानता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है (गीता 10/3)। इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों योगों से पाप नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह निकला कि अन्तिम मनुष्य जन्म केवल कल्याण के लिये ही मिला है।

मनुष्य जन्म में सत्संग मिल जाये, गीता जैसे ग्रन्थ से परिचय हो जाये भगवन्नाम से परिचय हो जाये तो साधक को यह समझना चाहिए कि भगवान ने बहुत विशेषता से कृपा कर दी है। अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही, अब आगे हमारा जन्म-मरण नहीं होगा। कारण कि अगर हमारा उद्धार नहीं होना होता, तो ऐसा मौका नहीं मिलता। अब तत्परता और उत्साहपूर्वक साधन में लगे रहना चाहिए। समय सार्थक बने, कोई समय खाली न जाये- ऐसी सावधानी हरदम रखनी चाहिए। परन्तु अपने कल्याण की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अब तक जिसने इतना प्रबन्ध किया है, वही आगे भी करेगा। जैसे- किसी ने भोजन के लिये निमन्त्रण दिया हो, आसन बिछा दिया हो, हमें आसन पर बिठा दिया हो, पत्तल दे दी, लौटे में जल भरकर पास में रख दिया। अब कोई चिन्ता करे कि यह व्यक्ति भोजन देगा कि नहीं देगा तो यह बिल्कुल गल्ती की बात है। अगर भोजन नहीं देना होता तो वह निमन्त्रण क्यों देता? इतनी तैयारी क्यों करता? हम भोजन कि चिन्ता क्यों करें? अब तो बस, ज्यों-ज्यों भोजन के पदार्थ आयें, त्यों-त्यों उनको पाते जायें। ऐसे ही भगवान ने हमको मनुष्य शरीर दिया है और उद्धार की सब सामग्री जैसे- सत्संग, भगवन्नाम, कीर्तन आदि जुटा दी है, तो हमारा उद्धार होगा ही, अब तो हम संसार-समुद्र के किनारे आ गए हैं- ऐसा दृढ़ विश्वास करके निमित्तमात्र बनकर साधन करना चाहिए।

वासुदेवः सर्वम्

जो चीज आदि और अन्त में होती है, वही चीज मध्य में भी होती है। जैसे- सोने के गहने आदि में सोना थे और अन्त में सोना रहेंगे तो गहनों में दूसरी चीज कहाँ से आयेगी? केवल सोना ही सोना है। मिट्टी से बनने वाले बर्तन पहले मिट्टी थे और अन्त में मिट्टी ही हो जायेंगे तो बीच में मिट्टी के सिवाय क्या है? केवल मिट्टी ही मिट्टी है। खाँड़ से बने हुए खिलौने पहले खाँड़ थे और अन्त में खाँड़ ही हो जायेंगे तो बीच में खाँड़ के सिवाय क्या है? केवल खाँड ही खाँड है। इसी तरह सृष्टि के पहले भगवान थे और अन्त में भगवान ही रहेंगे तो बीच में भगवान के सिवाय क्या है? केवल भगवान ही भगवान हैं। जैसे- सोने को चाहे गहनों के रूप में देखें, चाहे पासे के रूप देखें, चाहें ईंट के रूप में देखें, है वह सोना ही। ऐसे ही संसार में अनेक रूपों में, अनेक आकृतियों में एक भगवान ही हैं।

जब तक मनुष्य की दृष्टि गहनों की तरफ, उसकी आकृतियों की तरफ रहती है, उसी को महत्त्व देती है, तब तक ‘‘यह सोना ही है’’ इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। जब संसार की तरफ दृष्टि नहीं रहती, तब संसार में भगवान की भावना – ‘‘सब कुछ भगवान ही हैं, भगवान के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं’’ ऐसी भावना होती है।

संसार को सत्ता देने से ‘‘वासुदेव सर्वम्’’ का अनुभव नहीं होता। यह जो कुछ संसार दीखता है, सब भगवान का ही स्वरूप है। भगवान के सिवाय इस संसार की स्वतन्त्र सत्ता थी नहीं, है नहीं और कभी होगी भी नहीं। अतः देखने, सुनने और समझने में जो कुछ संसार आता है, वह सब का सब भगवद्स्वरूप ही है।

‘‘मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ। मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है’’। (श्रीमद्  भागवत् 11/13/24)

इस आज्ञा के अनुसार ही उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमी का जीवन हो जाता है। वह सब जगह भगवान को ही देखता है (गीता 16/30)। वह सब कुछ करता हुआ भी भगवान में ही रहता है (गीता  6/31)।

किसी को एक जगह भी अपनी प्रिय वस्तु मिल जाती है तो उसको बड़ी प्रसन्नता होती है। फिर जिसको सब जगह ही अपने प्यारे ईष्टदेव का अनुभव होता है, उसकी प्रसन्नता का, आनन्द का क्या ठिकाना? उस आनन्द में विभोर होकर भगवान का प्रेमी-भक्त कभी हँसता है, कभी रोता है (श्रीमद् भागवत 11/14/24)।
 

“जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करती-करती गद्गद् हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं को याद करते -करते द्रवित हो जाता है, जो बारम्बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है।”

इस तरह उसका जीवन अलौकिक आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। फिर उसके लिए कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। वह सर्वथा पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसके लिए किसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।

जो भक्तिमार्ग पर चलता है, वह ‘‘यह सत् है और यह असत् है’’ इस विवेक को लेकर नहीं चलता। उसमें विवेक, ज्ञान की प्रधानता नहीं रहती। उसमें केवल भगवद्भाव की ही प्रधानता रहती है। केवल भगवद्भाव की प्रधानता रहने के कारण उसके लिए यह सब संसार चिन्मय हो जाता है।

To be Continued…

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।