बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।।19।।
मार्मिक बात
‘‘वासुदेवः सर्वम्’’– इस तत्त्व को समझने के दो प्रकार हैं-
1. संसार का अभाव करके परमात्मा को रखना अर्थात् संसार नहीं है और परमात्मा हैं।
2. सब कुछ भगवान ही भगवान हैं। इसमें जो परिवर्तन दीखता है, वह भी भगवान का ही स्वरूप है, क्योंकि भगवान के सिवाय उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
उपर्युक्त दोनों ही प्रकार साधकों के लिए हैं, जिस साधक का पदार्थों को लेकर संसार में आकर्षण (राग) है, उसको ‘‘यह सब कुछ नहीं है’’, ‘‘केवल भगवान ही हैं’’– इस प्रणाली को अपनाना चाहिए।
भगवान की दृष्टि में अपने सिवाय अन्य कोई तत्त्व है ही नहीं (गीता 7/7)। जैसे-सूत की माला में मणियों की जगह सूत की गाँठ लगा दी तो माला में सूत के सिवाय अन्य क्या रहा? केवल सूत ही रहा। हाँ, दीखने में गाँठें अलग दीखती हैं और धागा अलग दीखता है, परन्तु तत्त्व से एक ही चीज (सूत) है। ऐसे ही परमात्मा संसार में व्यापक हैं, परन्तु तत्त्व से परमात्मा और संसार एक ही है। उसमें व्याप्य-व्यापक का भाव नहीं है। अतः सब कुछ एक ‘‘वासुदेव’’ ही है- ऐसा जिसको अनुभव होता है, वह भी भगवद्स्वरूप ही हुआ| भगवद्स्वरूप हो जाना ही उसकी शरणागति है।
भगवान की यह एक अलौकिक विलक्षणता है कि वे भूखे के लिए अन्नरूप से, प्यासे के लिए जल रूप से, और विषयी के लिए शब्द, रूप, रस, गन्ध रूप से बनकर आते हैं। वे ही मन, बुद्धि , इन्द्रियाँ बनकर आते हैं। वे ही संकल्प-विकल्प बनकर आते हैं। वे ही व्यक्ति बनकर आते हैं। परन्तु साथ ही साथ दुःख रूप से आकर मनुष्य को चेताते हैं कि अगर तुम इन वस्तुओं को भोग्य मानकर इनके भोक्ता बनोगे तो इसके फलस्वरूप तुमको दुःख ही दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को शर्म आनी चाहिए कि मैं भगवान को भोग-सामग्री बनाता हूँ। मेरे सुख के लिए भगवान को सुख की सामग्री बनना पड़ता है। भगवान कितने विचित्र दयालु हैं कि यह प्राणी जो चाहता है, भगवान वैसे ही बन जाते हैं।
देखने, सुनने और समझने में जो कुछ आ रहा है और जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों का विषय नहीं है, वह सब भगवान ही हैं और भगवान का ही है- ऐसा मान लें, वास्तविकता से अनुभव कर लें तो मनुष्य विलक्षण हो जाता है ‘‘स महात्मा सुदुर्लभः’’ हो जाता है।
एक महात्मा जी के पास सोने के बने हुए एक गणेश जी और एक चूहे की मूर्ति थी। पैसे की आवश्यकता होने पर सुनार के पास गए और बेचने की बात कही तो तौल में दोनों मूर्तियाँ बराबर होने के कारण सुनार ने बराबर-बराबर पैसे सामने रख दिये। बाबाजी बिगड़ गये कि गणेश जी और चूहे का मूल्य बराबर कैसे हो सकता है? सुनार बोला- बाबाजी! मैं गणेश जी या चूहा नहीं खरीदता, मैं तो सोना खरीदता हूँ। सोने के वजन के हिसाब से आपको मूल्य दे रहा हूँ। मेरी दृष्टि सोने पर है, मूर्तियों पर नहीं। भगवान के साथ अभिन्न हुआ महात्मा संसार को नहीं देखता, वह तो केवल भगवान को ही देखता है।
जो ऊँचे दर्जे के तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं, वे अभिन्न भाव और अखण्ड रूप से केवल अपने स्वरूप में अथवा भगवद्तत्त्व में स्थित रहते हैं। उनके जीवन से, उनके दर्शन से, उनके चिन्तन से, उनके शरीर का स्पर्श की हुई वायु के स्पर्श से जीवों का कल्याण होता रहता है।
भगवान अपने स्वरूप में नित्य-निरन्तर स्थित रहते हैं, यह उनके ऊँचे दर्जे की बात है, परन्तु वे ही भगवान अत्यधिक कृपालुता के कारण, कृपा के परवश होकर जीवों का उद्धार करने के लिए अवतार लेकर आदर्श लीला करते हैं। उनकी लीलाओं को देखने-सुनने से लोगों का उद्धार होता है। भगवान नीचे उतरते हैं तो उपदेश करते हैं। उससे नीचे उतरते हैं तो ऐसा करो, ऐसा मत करो-ऐसी आज्ञा देते हैं और भी नीचे उतरते हैं तो शासन करके लोगों को सही रास्ते पर लाते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो श्राप और वरदान दे देते हैं अथवा उसके और संसार के हित के लिए उसका शरीर से वियोग भी करा देते हैं।
परिशिष्ट भाव-
सब कुछ भगवान ही हैं- यह वास्तविक ज्ञान है। सृष्टि के आदि में जब कुछ नहीं था, तब भगवान के मन में (महतत्व) एक संकल्प उठा ‘‘एकोऽहम् बहुस्याम् ’’ अर्थात् मैं एक से अनेक हो जाऊँ और वह परमात्मा एक से अनेक हो गए, सृष्टि रच गई, सबसे पहले ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए और अन्य सभी प्रकार की सृष्टि रच गई। ऐसे वास्तविक ज्ञान वाला महात्मा भक्त भगवान की शरण हो जाता है अर्थात् अपना अस्तित्त्व (मैं पन) मिटाकर भगवान में लीन हो जाता है। फिर उसको मैं पन नहीं रहता, प्रत्युत केवल प्रेम स्वरूप भगवान रह जाते हैं। जिनमें मैं, तू, यह, वह चारों ही नहीं है, यही शरणागति का वास्तविक स्वरूप है।
महात्मा शब्द का अर्थ है- ‘‘महान आत्मा’’ अर्थात् अहमभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयता से सर्वथा रहित। जो भगवान से अभिन्न हो गए हैं। जो परम् प्रेम को प्राप्त हो चुके हैं। जो सुकृति हैं, उदार हैं, अद्वेष्टा हैं, जिसमें मैत्री, करुणा होती है, ऐसे महात्मा भगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं।
भगवान सम्पूर्ण संसार के बीज हैं (गीता 10/39) (गीता 7/10)। बीज से जितनी चीजें पैदा होती हैं, वे सब बीजरूप ही होती हैं। जैसे- गेहूँ से पैदा होने वाली खेती को भी गेहूँ ही कहते हैं। किसान लोग कहते हैं कि गेहूँ की खेती बहुत अच्छी हुई है! देखो, खेत में गेहूँ खड़े हैं। परन्तु कोई शहर में रहने वाला व्यापारी हो, वह उसको गेहूँ कैसे मान लेगा, वह कहेगा मैंने गेहूँ देखा है, यह तो घास है, डण्ठल और पत्ती है, यह गेहूँ नहीं है। जबकि किसान कहेगा कि यह वह घास नहीं है जो पशु खाया करते हैं, यह तो गेहूँ है। कारण कि यह पहले भी गेहूँ ही था, अन्त में भी गेहूँ रहेगा। अतः बीच में खेतीरूप से अलग दीखते हुए भी गेहूँ ही है। इसी तरह संसार के पहले भी परमात्मा थे, अन्त मे भी परमात्मा ही रहेंगे (छान्दोग्य उपनिषद 6/2/1), (श्रीमद् भागवत 10/3/25)। अतः बीच में भी सब कुछ भगवान ही हैं- ‘‘वासुदेवः सर्वम्’’।
जब तक साधक में अहम् है, तब तक वह भोगी है। मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं प्रेमी हूँ- यह सब भोग हैं। जब तक साधक में भोग रहता है, तब तक उसके पतन की सम्भावना रहती है। जो योग का भोगी है, वह कभी विषयों का भोगी भी हो सकता है। जब साधक भोगी नहीं रहता, उसमें अहम् भावना अर्थात् मैं पन का त्याग हो जाता है, तब केवल योग रहता है। योग रहने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है। योग अर्थात ‘‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’’।
जैसे जलतत्व में समुद्र, नदी, वर्षा, ओस, कोहरा, भाप, बादल आदि सब मिटकर एक हो जाते हैं, ऐसे ही ‘‘वासुदेव: सर्वम्’’ में सभी साधन, योग मार्ग मिटकर एक वासुदेव रूप हो जाते हैं। जैसे जल तत्व में कोई भेद नहीं है, ऐसे ही ‘‘वासुदेव: सर्वम्’ में कोई भेद नहीं है। मतभेद से असंतोष होता है, पर वासुदेव: सर्वम् में कोई मतभेद न होने से सबको सर्वथा सन्तोष हो जाता है।‘वासुदेवः सर्वम्’’ में न योगी है, न ज्ञानी है, न प्रेमी है इसलिए उसका अनुभव करने वाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
एक ही जल बर्फ, कोहरा, बादल, ओला, वर्षा, नदी, तालाब, समुद्र आदि अनेक रूपों में हो जाता है। कढ़ाई में बर्फ डालकर उसको अग्नि पर रखा जाये तो बर्फ पिघलकर पानी हो जायेगी, फिर पानी भी भाप हो जाएगा और भाप परमाणु होकर निराकार हो जायेगा। जल ही कोहरा रूप से होता है, वही बादल रूप से होता है, वही निराकार रूप से होता है, वही बर्फ रूप से होता है, वही ओला रूप से होता है, वही वर्षा रूप होकर पृथ्वी पर बरसता है, वही नदी रूप से होता है, वही समुद्र रूप से होता है। अनेक रूप से होने पर भी तत्त्व से जल एक ही रहता है। इसी तरह एक ही भगवान अनेक रूप से बन जाते हैं।
साधक से एक गल्ती होती है कि वह अपने को अलग रखकर संसार को भगवत्स्वरूप देखने की चेष्टा करता है अर्थात् ‘‘वासुदेवः सर्वम्’’ को अपनी बुद्धि का विषय बनाता है।
वास्तव में दीखने वाला संसार ही भगवत्स्वरूप नहीं है, प्रत्युत देखने वाला भी भगवत्स्वरूप है (विष्णु पुराण 3/7/32)। अतः साधक को ऐसा मानना चाहिए कि अपनी देहसहित सब कुछ भगवान ही हैं। सब कुछ भगवान ही हैं- इसको मानने के लिए साधक को बुद्धि से जोर नहीं लगाना चाहिए, प्रत्युत सहजरूप से जैसा है, वैसा स्वीकार कर लेना चाहिए। (श्रीमद् भागवत 11/29/18)।
जब ‘‘सब कुछ भगवान ही हैं’’– ऐसा निश्चय हो जाये, तब साधक इस अध्यात्मविधा (ब्रह्मविद्या) के द्वारा सब प्रकार से संशय रहित होकर सब जगह भगवान को भली-भांति देखता हुआ उपराम हो जाये अर्थात् ‘‘सब कुछ भगवान ही हैं’’- यह चिन्तन भी न रहे, प्रत्युत साक्षात् भगवान ही दीखने लगें।
तात्पर्य है कि ‘‘सब कुछ भगवान ही हैं- इस भाव से भी उपराम हो जाये अर्थात् न द्रष्टा (देखने वाला) रहे, न दृश्य (दीखने वाला) रहे और न दर्शन (देखने की वृत्ति) ही रहे, केवल भगवान ही रहें।
मेरे तो एक भगवान ही हैं, भगवान के सिवाय मेरा कोई है ही नहीं और कोई है तो होगा, हमें उससे क्या मतलब? – यह सीधे-सरल, विश्वासी भक्तों की दृष्टि से ‘‘वासुदेवः सर्वम्’’ है।
ब्रज में एक साधु कुएँ पर किसी से बातें कर रहा था कि ब्रह्म ऐसा होता है, जीव ऐसा होता है आदि-आदि। वहाँ जल भरने के लिए आयी एक गोपी ने ये बातें सुनीं तो उसने दूसरी गोपी से पूछा- अरी! ये ब्रह्म, जीव, अहम् आदि क्या होते हैं? वह गोपी बोली कि ये हमारे लाला (श्रीकृष्ण) के ही कोई सगे सम्बन्धी होंगे, तभी साधु लोग उनकी बात करते हैं, नहीं तो साधुओं को लाला के सिवाय ओर से क्या मतलब?
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।