Spirtual Awareness

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ।।17।।

श्री भगवान बोले- उन चार प्रकार के भक्तों में नित्य मुझमें एक ही भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 17 | Bhagavad Gita Chapter 7)

उन अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों में ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि वह नित्य युक्त है अर्थात् वह सदा सर्वदा केवल भगवान में ही लगा रहता है भगवान के सिवाय दूसरे किसी में किंचिन्मात्र भी नहीं लगता।

जैसे- गोपियाँ गाय दोहते समय, दही बिलोते समय, धान आदि कूटते समय, तुलसी आदि को जल देते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को पालने में झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी सुनाते समय तथा झाडू देने आदि सब कर्मों को करते समय प्रेमपूर्ण चित्त से आँखों में आँसू भरकर गद्गद् कण्ठ से श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का गान करती रहती हैं, वे श्रीकृष्ण में निरन्तर चित्त लगाये रहने वाली ब्रजवासिनी गोपियाँ धन्य हैं। ऐसे ही वह ज्ञानी भक्त लौकिक और पारमार्थिक सब क्रियायें करते समय सदा-सर्वदा भगवान से जुड़ा रहता है। भगवान से सम्बन्ध रखते हुये ही उसकी सब क्रियायें होती हैं। 

उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त का आकर्षण केवल भगवान में होता है, उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं रहती, इसलिए वह श्रेष्ठ है। निष्काम भक्त होने के कारण वह भगवान को अत्यन्त प्रिय होता है।

जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरह की भी इच्छा नहीं रहती, तब उसमें स्वतः सिद्ध प्रेम पूर्णरूप से जाग्रत हो जाता है अर्थात् उसके प्रेम में कोई कमी नहीं रहती। प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता, क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है।

परिशिष्ट भाव

भगवान् ने अपने प्रेमी भक्त को ‘‘ज्ञानी’’ नाम से इसलिए कहा है की “सब कुछ परमात्मा ही हैं” – यही वास्तविक और अन्तिम ज्ञान है, इसके आगे कुछ नहीं है। ऐसे भक्त की दृष्टि में एक परमात्मा के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं, जबकि विवेकी पुरुष की दृष्टि में सत् और असत्- दो सत्ता रहती हैं।

गीता में भगवान ने मुख्य रूप से भक्त को ही ‘‘ज्ञानी’’ कहा है, क्योंकि वही अन्तिम और असली ज्ञानी है। उसका केवल भगवान में ही प्रेम होता है, इसलिए वह श्रेष्ठ है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।