त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ।।13।।
श्री भगवान बोले- गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से ये सारा संसार-प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 13 | Bhagavad Gita Chapter 7)-
सत्व, रज और तम- तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपने को सात्विक, राजस और तामस मान लेता है। इस प्रकार तीनों गुणों से मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं पाता कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्मा की तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होने वाली वृत्तियों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है- यही उसका मोहित होना है। मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं- यह नित्य सम्बन्ध पक्का और सच्चा है एवं स्थाई है, इसमें लेश भी अन्तर नहीं आ सकता।
उदाहरण के तौर पर- किसी सेठ जी का लड़का दूसरे शहर में चला जाये और तीन प्रकार के लड़कों से मित्रता कर ले। जिसमें एक सात्विक भावों का है, एक राजसी भावों का है एवं एक तमोगुणी वृत्तियों का है। वह जब जिसके साथ मिलता है, उसी प्रकार की वृत्तियाँ उसे भी घेर लेती हैं एवं अपने को ‘‘मैं अमुक सेठ जी का लड़का हूँ’’ यह भूलकर कभी अपने को सात्विक, कभी राजस, कभी खराब आदमी, ऐसा मानता रहता है।
उपर्युक्त उदाहरण से हम अपनी तुलना कर सकते हैं। संसार में आकर शरीर से ममता कर ली और अपने को शरीर मान लिया, यह अहमता हुई और मोहित हो गये। मोहित हो जाने से गुणों से सर्वथा अतीत जो भगवद् तत्त्व है, उसे भूल गए। जब त्रिगुणात्मक शरीर के साथ जीव की अहमता-ममता मिट जाती है, तभी वह उस भगवद् तत्त्व को जान सकता है। यह सिद्धान्त है कि मनुष्य संसार से सर्वथा अलग होने पर ही संसार को जान सकता है और परमात्मा से सर्वथा अभिन्न होने पर ही परमात्मा को जान सकता है। परमात्मा के साथ स्वयं सर्वथा अभिन्न है और इसको अनुभव करने के लिये भगवान की कृपा ही मुख्य है। थोड़ी-थोड़ी देर में कहते रहें- “हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं। हे नाथ! मैं आपका हूँ, आप मेरे हैं”- ऐसा बार-बार कहने से उनकी कृपा से हमारा जो परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध है, उसका अनुभव हो जायेगा।
परिशिष्ट भाव-
मनुष्य भगवान को न देखकर सात्विक, राजस और तामस भावों को ही देखता है, उनका भोग करता है, उनसे सुख लेता है, वह उन भावों से मोहित हो जाता है अर्थात् भगवान की कठिन गुणमयी माया से बंँध जाता है और फलस्वरूप बार-बार जन्मता-मरता है। तात्पर्य है कि सात्विक, राजस और तामस भाव (कर्म, पदार्थ, काल, स्वभाव, गुण आदि) अनित्य हैं और भगवान नित्य हैं। जो अनित्य का भोग करते हैं, वे बँध जाते हैं परन्तु जो अनित्य का त्याग करके नित्य स्वरूप भगवान का आश्रय लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं।– (गीता 7/14)
जीव जगत् के उत्पत्ति-विनाश को अपना उत्पत्ति-विनाश, जगत् के लाभ-हानि को अपना लाभ-हानि मान लेता है। जैसे- मनुष्य कामना के साथ अभिन्न होकर कामरूप हो जाता है – (गीता 2/43) और भगवान के साथ अभिन्न होकर ‘‘मनमयाः’’ अर्थात् भगवत् रूप हो जाता है। – (गीता 4/10)
जो गुणों में आसक्त नहीं होते, उनके सामने जड़ता रहती ही नहीं। इसलिए उनको सब जगह भगवान ही भगवान दीखते हैं-‘‘वासुदेवः सर्वम्’‘ (गीता- 7/19)।
भक्त की दृष्टि तो भगवान को छोड़कर दूसरी तरफ जाती ही नहीं, पर गुणों में आसक्त संसारी लोगों की दृष्टि संसार को छोड़कर दूसरी तरफ नहीं जाती। इसलिए भक्त को आनन्द ही आनन्द प्राप्त होता है और संसारी मनुष्य को दुःख ही दुःख (गीता 8/15)।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।