Spirtual Awareness

मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।1।।

श्री भगवान् बोले-  हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्म रूप मुझको संशय रहित जानेगा, उसको सुन।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 1 | Bhagavad Gita Chapter 7)

‘‘मय्यासक्तमनाः’’- मेरे में ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् अधिक स्नेह के कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरे में लग गया है, चिपक गया है, उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती। प्रत्युत स्वाभाविक मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं- ऐसा तू मेरे में मन वाला हो।

साधक जब सच्ची नीयत से भगवान के लिए जप-ध्यान करने बैठता है तब भगवान उसे अपना भजन मान लेते हैं। 

जैसे- कोई धनी आदमी किसी मजदूर से कह दे कि तुम यहाँ बैठो, कोई काम होगा तो बता देंगे। किसी दिन उस मजदूर को मालिक ने कोई काम नहीं बताया, वह मजदूर दिन भर खाली बैठा रहा परन्तु शाम को मालिक को उसे पैसे देने पड़ेंगे, क्योंकि वह मालिक के लिए ही बैठा रहा। इस तरह जब एक मनुष्य के लिए बैठने वालों को भी पैसे मिलते हैं, तब जो केवल भगवान में मन लगाने के लिए सच्ची लगन से बैठा है, उसका बैठना क्या भगवान निरर्थक मानेंगे? तात्पर्य यह हुआ कि जो भगवान में मन लगाने के लिए भगवान् का आश्रय लेकर भगवान के ही भरोसे बैठता है, वह भगवान् की कृपा से भगवान् में मन वाला हो जाता है।

‘‘भगवान सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं
भगवान सब समय में हैं तो इस समय भी हैं।
भगवान सबमें हैं तो मेरे में भी हैं
भगवान सबके हैं तो मेरे भी हैं।’’

इसलिए भगवान यहाँ हैं, अभी हैं, अपने में हैं और अपने हैं। कोई देश-काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना और क्रिया उनसे रहित नहीं है, उनसे रहित होना सम्भव ही नहीं है। इस बात को दृढ़ता से मानते हुए भगवन्नाम में, प्राण में, मन में, बुद्धि में, शरीर में, शरीर के कण-कण में परमात्मा हैं। इस भाव की जागृति रखते हुए नाम जप करे तो साधक बहुत जल्दी भगवान् में मन वाला हो सकता है

“मदाश्रयः”- जिसको केवल मेरी ही आशा है, मेरा ही भरोसा है, मेरा ही सहारा है, मेरा ही विश्वास है और जो सर्वदा मेरे ही आश्रित रहता है, वह ‘‘मदाश्रयः’’ है।

किसी न किसी का आश्रय लेना यह जीव का स्वभाव है। परमात्मा का अंश होने से यह जीव अपने अंशी को ढूंढता है परन्तु जब तक इसके लक्ष्य में, उद्देश्य में परमात्मा नहीं होते, तब तक यह शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़े रहता है और शरीर जिसका अंश है, उस संसार की तरफ खिंचता है। वह यह मानने लगता है कि संसार से मेरे को कुछ मिलेगा। परन्तु जब यह भगवान् को ही सर्वोपरि मान लेता है, तब यह भगवान् में आसक्त हो जाता है और भगवान् का ही आश्रय ले लेता है।

संसार का अर्थात् धन, सम्पत्ति, वेैभव, विद्या, बुद्धि, योग्यता, कुटुम्ब आदि का जो आश्रय है, वह नाशवान है, मिटने वाला है, स्थिर रहने वाला नहीं है। वह सदा रहने वाला नहीं है और सदा के लिए पूर्ति और तृप्ति कराने वाला भी नहीं है। परन्तु भगवान् का आश्रय कभी किंचिन मात्र भी कम होने वाला नहीं है। क्योंकि भगवान् का आश्रय पहले भी था, अभी भी है और आगे भी रहेगा। अतः आश्रय केवल भगवान् का ही लेना चाहिए। उन्हीं का आश्रय हो, अवलम्बन हो, आधार हो, सहारा हो। इसी का वाचक यहाँ मदाश्रयः पद है।

“योगं युज्जन्ः”- भगवान् के साथ जो स्वतः सिद्व अखण्ड सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध को मानता हुआ तथा सिद्धि-असिद्धि में सम रहता हुआ साधक जप, ध्यान, कीर्तन में, भगवान की लीला और स्वरूप का चिन्तन करने में स्वाभाविक ही अटल भाव से लगा रहता है। उसकी चेष्टा स्वाभाविक ही भगवान् के अनुकूल होती है। वह भगवद् सम्बन्धी अथवा संसार सम्बन्धी जो भी कार्य करता है, वह सब योग का ही अभ्यास है। तात्पर्य है कि जिससे परमात्मा का सम्बन्ध हो जाये, वह (लौकिक या पारमार्थिक) काम करता है और जिससे भगवान का वियोग हो जाये, वह काम नहीं करता है।

“असंशयं समग्रं मां”- जिसका मन भगवान् में आसक्त हो गया है, जो सर्वथा भगवान के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान के सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया है- ऐसा पुरुष भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है अर्थात् सगुण- निर्गुण, साकार-निराकार, अवतार-अवतारी और शिव, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि जितने भी रूप हैं उन सबको वह जान लेता है।

विशेष बात

इस श्लोक में ‘‘आसक्ति केवल मेरे में ही हो, ‘‘आश्रय’’ भी केवल मेरा ही हो, फिर योग का अभ्यास किया जाए तो मेरे समग्र रूप को जान लेगा।’’ ऐसा कहने में भगवान् का तात्पर्य है कि अगर मनुष्य की आसक्ति भोगों में है और आश्रय रूपये-पैसे, कुटुम्बादि का है तो कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि किसी योग का अभ्यास करता हुआ भी मेरे को नहीं जान सकता। मेरे समग्र (सर्वत्र भगवान हैं) रूप को जानने के लिए तो मेरे में ही प्रेम हो, मेरा ही आश्रय हो। ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए। इस कामना को छोडकर भगवान जो करते हैं, वही होना चाहिए और भगवान जो नहीं करना चाहते, वह नहीं होना चाहिए- इस भाव से केवल मेरा आश्रय लेता है, वह मेरे समग्र रूप को जान लेता है।

शरणागति के पर्याय- आश्रय, अवलम्बन, आधीनता, प्रपत्ति और सहारा– ये सभी शब्द शरणागति के पर्यायवाचक हैं।

आश्रय- जैसे हम पृथ्वी के आधार के बिना जी नहीं सकते और उठना-बैठना आदि कुछ कर ही नहीं सकते, ऐसे ही प्रभु के आधार के बिना हम जी नहीं सकते और कुछ कर भी नहीं सकते।

अवलम्बन- जैसे किसी के हाथ की हड्डी टूटने पर डाॅक्टर लोग उस पर पट्टी बाँध उसको गले के सहारे लटका देते हैं तो वह हाथ गले के अवलम्बित हो जाता है। ऐसे ही संसार से निराश और अनाश्रित होकर भगवान् के गले पड़ने अर्थात् भगवान को पकड़ लेने का नाम ‘‘अवलम्बन’’ है।

अधीनता- अपना कुछ भी प्रयोजन न रखकर केवल भगवान के ही अनन्य भाव से सर्वथा उन्हीं का दास बन जाना और केवल उन्हीं को ही अपना स्वामी मान लेना ‘‘अधीनता’’ है।

प्रपत्ति- जैसे कोई किसी समर्थ के चरणों में लम्बा पड़ जाता है, ऐसे ही संसार की तरफ से सर्वथा निराश होकर भगवान के चरणों में गिर जाना (शरणागत हो जाना) ‘‘प्रपत्ति’’ है।
 

सहारा- जैसे जल में डूबने वाले को किसी वृक्ष, लता, रस्से आदि का सहारा मिल जाये, ऐसे ही संसार में बार-बार जन्म-मरण में डूबने के भय से भगवान का आधार ले लेना ‘‘सहारा’’ है।

इस प्रकार उपर्युक्त सभी शब्दों में केवल शरणागति का ही भाव प्रकट होता है। शरणागति तब होती है, जब भगवान में ही आसक्ति हो और भगवान का ही आश्रय हो अर्थात् भगवान में ही मन लगे और भगवान में ही बुद्धि लगे। यदि मनुष्य मन-बुद्धि सहित स्वयं भगवान के आश्रित (समर्पित) हो जाये तो शरणागति के उपर्युक्त सभी भाव उसमें आ जाते हैं।

मन और बुद्धि को अपने न मानकर “ये भगवन के ही हैं” ऐसा दृढ़ता से मान लेने से मय्यासक्तमना: और मदाश्रयः हो जाता है। सांसारिक वस्तु मात्र प्रतिक्षण प्रलय की तरफ जा रही है और किसी भी वस्तु से अपना नित्य सम्बन्ध है ही नहीं- यह सबका अनुभव है। अगर इस अनुभव को महत्त्व दिया जाये अर्थात मिटने वाले सम्बन्ध को अपना न माना जाये तो अपने कल्याण का उद्धेश्य होने से भगवान की शरणागति स्वतः आ जाएगी। कारण की स्वयं स्वतः ही भगवान का है। संसार के साथ सम्बन्ध केवल माना हुआ है और भगवान से विमुखता हुई है (जो है नहीं)। इसलिए माना हुआ सम्बन्ध छोड़ने पर भगवान के साथ जो स्वतः सिद्ध सम्बन्ध है, वह प्रकट हो जाता है। सब कुछ भगवान ही हैं- यह भगवान का समग्र रूप है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता। 
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।