अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित: ।
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान् ।।11।।
श्री भगवान् बोले – यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 11 | Bhagavad Gita Chapter 12)-
पूर्व श्लोक (Verse) में (10वाँ) भगवान् ने सब कर्म (Deed) अपने लिए करने को कहा जिससे भगवद् प्राप्ति होगी। भगवान् के लिए समस्त कर्म करने में भक्ति की प्रधानता होने से उसे भक्तियोग (Bhakti yoga) कहेंगे और इस श्लोक (Verse) में ‘सर्व कर्म फल त्याग’ में केवल फल त्याग की मुख्यता होने से इसे कर्म योग (Karm yoga) कहेंगे। इस प्रकार भगवत्प्राप्ति के ये दोनों ही स्वतन्त्र (पृथक-पृथक) साधन हैं।
भगवान ने इस श्लोक में मन-बुद्धि-इन्द्रियों (Mind-Intellect-Senses) के सहित शरीर पर विजय प्राप्त करने की बात कही है। आत्म संयम की विशेष आवश्कता कर्म योग (Karm yog) में है। जो लोग देश, समाज की सेवा आदि करने में लगे हैं, वह सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण न कर सकें तो जिस फल को प्राप्त करना उनके हाथ की बात नहीं है, उस फल की इच्छा का त्याग कर दें। फल की इच्छा का त्याग करके कर्तव्य कर्म करने से उनका संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जायेगा। फलासक्ति होने के कारण बन्धन का भय रहता है। यदि मन-बुद्धि-इन्द्रियों आदि का संयम नहीं होगा तो स्वाभाविक ही मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होगा, इससे उसका पतन होने की सम्भावना रहेगी। – (गीता 2/62, 63)
फलत्याग का उद्धेश्य होने से साधक मन-इन्द्रियों का संयम सुगमता से प्राप्त कर सकता है। साधक को चाहिए कि स्वरूप से कर्म फल का त्याग न होकर कर्म फल में ममता, आसक्ति, कामना, वासना आदि का त्याग ही करे।
कर्मयोग (Karm yoga) के साधक को अकर्मण्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि कर्म फल त्याग की बात सुनकर साधक सोचता है कि जब कुछ लेना ही नहीं है तो फिर कर्मों को करने की क्या आवश्यकता? इसलिए भगवान् ने कर्म का त्याग न बताकर केवल ममता-आसक्ति का त्याग कहा है।
फलासक्ति का त्याग करके क्रियाओं को करते रहने से क्रियाओं को करने का वेग शान्त हो जाता है और पुरानी आसक्ति मिट जाती है। फल की इच्छा न रहने से कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और नयी आसक्ति पैदा नहीं होती।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।