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वृत्रासुर की कथा (Story Of Vritrasura)

एक बार की बात है- देवराज इंद्र की सभा में संगीत का बड़ा सुन्दर कार्यक्रम चल रहा था। कार्यक्रम के बीच में देवगुरु बृहस्पति पँहुचे गये। इंद्र ने सोचा- इतना अच्छा संगीत चल रहा है, बीच में उठूँगा तो संगीत में बाधा पहुंचेगी, नहीं उठूँगा तो गुरूजी नाराज हो जायेंगे क्या करूँ?

ऐसा सोचकर इंद्र ने देखकर भी अनदेखा कर दिया, दूसरी तरफ देखने लग गया। ऐसा नाटक किया जैसे गुरुजी को देखा ही ना हो।

इंद्र के ऐसे व्यवहार के कारण गुरुजी नाराज होकर देवताओं को छोड़कर चले गये। इधर दैत्यों को जब पता लगा कि देवताओं के गुरु उनसे नाराज हो गये हैं, तब दैत्यों ने आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित कर उनसे स्वर्ग छीन लिया।

brahma jiदेवताओं द्वारा ब्रह्मा जी से प्रार्थना (Deities Pray To Brahma Ji)

गुरु के बिना देवता अनाथ से हो गये। उन्हें कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था। तब वे ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उन्हें डांटा और बोले- तुमने ये बहुत गलत काम किया है। गुरु को नाराज करना सबसे बड़ा अपराध है। अब जब तक गुरु नहीं मिलते तुम “विश्वरूप” जो विद्या में देवगुरु बृहस्पति के समान ही हैं, उनको गुरु बना लो। लेकिन उसकी माता असुर वंश की है इसलिए कभी-कभी वह असुरों का पक्षपात कर सकता है- इस चीज को अनदेखा करके चलोगे तो तुम्हारा काम बन जाएगा।

ये सूत्र हमारे जीवन के लिए भी है- जिसमें बहुत सारे गुण हों और एक- दो दोष हों तो उसको अनदेखा करना सीखना चाहिये, तभी आप जीवन में सफल होगें।

देवताओं को स्वर्ग की पुनः प्राप्ति (Re-Achievement Of Heaven By Deities)

देवताओं ने “विश्वरूप” को गुरु बना लिया। विश्वरूप ने इंद्र से “नारायण कवच” का अनुष्ठान कराया। अब देव-असुर संग्राम हुआ। “नारायण कवच” के कारण देवता विजयी हुए। स्वर्ग का राज्य फिर से इंद्र को मिल गया। अब इंद्र राज्य की सुरक्षा के लिए यज्ञ करने लगा। यज्ञ के समय इंद्र ने देखा कि गुरु विश्वरूप प्रकट रूप में तो देवताओं के पक्ष में आहुति दे रहे हैं और अप्रकट रूप में असुरों के पक्ष में भी दे रहे है। इंद्र को क्रोध आ गया। उसने वज्र उठाया और विश्वरूप का गला काट दिया।

विश्वरूप के पिता द्वारा इंद्र को मारने की इच्छा से अनुष्ठान (Rituals Performed By Vishwaroop’s Father With A Desire To Kill Indra)

vritrasura birthविश्वरूप के मरने पर विश्वरूप के पिता “त्वष्टा” क्रोधित हो गये। वो इंद्र को मारने के लिये अनुष्ठान करने लगे। उनका संकल्प था कि हवन से ऐसा पुत्र हो जो इंद्र को मार डाले पर उच्चारण अशुद्धि के कारण यज्ञ से बेटा तो हुआ, लेकिन इंद्र को मारने वाला नहीं, इंद्र से मरने वाला हुआ।

यहाँ यही बात समझ आती है- कर्मकांड का विषय कठिन है पर भक्ति सरल है। भक्ति में कुछ भी गड़बड़ हो जाये तो भगवान संभाल लेते हैं पर यदि कर्मकांड में कुछ गड़बड़ हो जाये तो जिम्मेदारी हमारी ही होती है।

यज्ञ से उत्पन्न हुए त्वष्टा के इस पुत्र ने सारे लोकों को अपने विशाल शरीर से घेर लिया था, इसलिये उसका नाम पड़ा “वृत्रासुर” जब वृत्रासुर ने हुंकार भरी तो सारे देवता उस पर टूट पड़े। देवताओं ने जितने हथियारों का प्रयोग किया, वृत्रासुर उन हथियारों को पकड़कर तोड़ कर खा गया।

अब देवता घबराये- ये तो हथियार ही तोड़ कर खा गया इसको मारेगा कौन? देवता वहाँ से भागे और भगवान की स्तुति करने लगे।

भगवान द्वारा वृत्रासुर को मारने का उपाय बताना (Suggestion By The Lord To Kill Vritrasura)

indra payer to lordश्री भगवान प्रकट हो गये और बोले- देखो इंद्र! उपाय तो है पर करना कठिन है।

इंद्र बोले- आप सिर्फ उपाय बताइये, उसको करना मेरा काम है।

भगवान बोले- दधीचि ऋषि की हड्डी से अगर वज्र बने तो उसी से वृत्रासुर का संहार होगा। लेकिन दधीचि ऋषि जीवित हैं, हड्डी तब मिलेगी जब वे शरीर-त्याग करें।

इंद्र ने कहा- भगवन! आपने उपाय बता दिया अब दधीचि ऋषि से हड्डी माँगने का काम मेरा है।

अब इंद्र पहुँच गया दधीचि ऋषि के पास, प्रणाम किया और बोला- महाराज ! मुझे आपकी हड्डी चाहियें।

दधीचि बोले- इंद्र, क्या तूने विचार नहीं किया। जो व्यक्ति जीवित रहना चाहता है उसकी हड्डी भगवान भी माँगे तो देने से इन्कार करना पड़ेगा।

इंद्र ने कहा- मैं समझता हूँ कि मेरा आपसे हड्डी माँगना अनुचित है पर समस्या इतनी विकट है कि मैं माँगने को विवश हूँ। यदि आप अपनी हड्डी दे देंगे तो समस्त देवताओं की जान बच जायेगी।

दधीचि ऋषि ने भगवान का ध्यान किया और योग के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया। उसके बाद इंद्र ने दधीचि ऋषि की हड्डी से वज्र बनाया।

इंद्र और वृत्रासुर युद्ध (War Of Indra And Vritrasura)

वज्र प्राप्त करने के बाद देवता उत्साह से भर गये। वृत्रासुर के साथ जितने असुर थे डर के मारे भागने लगे। इधर वृत्रासुर ने जोर से हुंकार भरी और इंद्र की तरफ बढ़ा। इंद्र ने अपनी गदा का प्रयोग किया। वृत्रासुर ने बाएँ हाथ से इंद्र के हाथी ऐरावत के मस्तक पर प्रहार किया। जिससे ऐरावत का मस्तक फूट गया।

इंद्र सहम गया। उसके हाथ में वज्र है जो दधीचि ऋषि की हड्डी से बना है, फिर भी उसे डर लग रहा है कि ये भी गदा की तरह व्यर्थ न हो जाये।

वृत्रासुर कहता है- इंद्र! तू वज्र का प्रयोग क्यों नहीं कर रहा है? तू ये मत सोच कि गदा के जैसे वज्र भी व्यर्थ हो जायेगा। वज्र में तीन-तीन शक्तियाँ हैं- 1.भगवान नारायण  2.दधीचि ऋषि की तपस्या  3.इंद्र का प्रारब्ध। तू प्रहार कर! तेरे को सफलता अवश्य मिलेगी। 

vritrasur and indraइंद्र मैं तो दोनों स्थिति में प्रसन्न हूँ- अगर विजयी हुआ तो भी खुश, मैं अपने भाई का बदला ले लूँगा। अगर पराजित हुआ तो भी खुश क्योंकि मरने के बाद इस पंचभौतिक शरीर से पशु-पक्षियों का भण्डारा हो जाएगा और मैं इस शरीर को छोड़कर ठाकुर जी के धाम चला जाऊँगा।

इंद्र ये सुनकर घबरा गया। वज्र का प्रहार नहीं कर पा रहा है।

वृत्रासुर कहता है- जब तक तू वज्र का प्रहार नहीं कर रहा है, तब तक मैं अपने ठाकुर का ध्यान कर लेता हूँ। वृत्रासुर आँख बंद करके भाव-समाधि में पहुँच जाता है। भगवान से वार्तालाप करता है- प्रभु! कुछ ही समय बाद इस शरीर को छोड़ कर मैं आपके चरणों में आने वाला हूँ, आपके धाम में आने वाला हूँ। इस युद्ध का परिणाम मैं जानता हूँ, क्या होगा? इस युद्ध में इंद्र की विजय होगी, मेरी पराजय होगी।

भगवान ने कहा- पर मैं तो अपने भक्त को कभी पराजित नहीं होने देता। तूने कैसे सोच लिया कि तू पराजित होगा?

वृत्रासुर मुस्कुराता है- प्रभु! मैं जानता हूँ, जिसकी विजय होगी, उसको स्वर्ग मिलेगा और जिसकी पराजय होगी, उसको बैकुंठ मिलेगा। आप अपने भक्त को छोटी वस्तु नहीं देंगे! इसलिए मुझे मालूम है इस युद्ध में मेरी पराजय होगी।

वृत्रासुर की मृत्यु (Death Of Vritrasura)

वृत्रासुर भाव समाधि से बाहर आया तो देखता है कि इंद्र हाथ में वज्र लिए खड़ा है। वृत्रासुर ने कहा- “इंद्र ! तू युद्ध करने आया है, या मेरा दर्शन करने आया है? वज्र का प्रहार कर!”

इंद्र कहता है- हे दानवराज वृत्रासुर! हम तुम्हें असुर कहते हैं पर तुम कोई सिद्ध महात्मा लगते हो। इस विपरीत परिस्थिति में भी इतनी निष्ठा, इतना प्रेम भगवान के लिए, इतना प्रेम तो बड़े- बड़े सिद्ध- महात्माओं में देखने को नहीं मिलता। तू तो कोई सिद्ध महापुरुष है।

इसके बाद इंद्र ने वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया। वृत्रासुर का सर धड़ से अलग हो गया। एक दिव्य ज्योति निकली और भगवान के धाम को चली गयी।

शिक्षा (Moral)

  1. हमेशा गुरुजनों का और आदरणीय लोगों का सम्मान करना चाहिए वरना हमारी आयु, बल, बुद्धि, तेज क्षीण हो जाते हैं।
  2. सकाम भाव से कुछ पूजा, यज्ञ करते हैं और उच्चारण में कुछ गलती हो जाये तो उसका उल्टा फल निकलता है, परन्तु निष्काम भाव से भक्ति करते हैं तो भगवान सब गलती माफ़ कर देते हैं।
  3. भक्त को भगवान पर इतना विश्वास होता है कि विपरीत परिस्थिति में भी उसे डर नहीं लगता। वृत्रासुर का भगवान के लिए इतना प्रेम है कि वो जरा भी नहीं डर रहा था।
  4. मित्र प्रशंसा करे उसका ज्यादा महत्व नहीं। पर यदि शत्रु प्रशंसा करने लग जाए, उसका बहुत महत्त्व है। इंद्र ने खुद अपने शत्रु वृत्रासुर की प्रशंसा की।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।