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जडभरत जी की कथा (The Story Of Jadbharat)

bharataऋषभदेव जी के सबसे श्रेष्ठ पुत्र भरत जी थे। वे बड़े ही भगवत भक्त थे। इन्हीं भरत के नाम से अपने देश का नाम भरतखण्ड पड़ा। ऋषभदेव जी के पश्चात महाराज भरत ने देश का शासन संभाला।

महाराज भरत बहुत ज्ञानी थे। वे अपने-अपने कर्मों में लगी हुई प्रजा का अपने बाप दादों के समान स्वधर्म में स्थित रहते हुए अत्यंत वात्सल्य भाव से पालन करने लगे। वे अनेकों यज्ञ करते और उस यज्ञकर्म से होने वाले पुण्यरूप फल को यज्ञपुरुष भगवान वासुदेव के अर्पण कर देते थे। इस प्रकार कर्म की शुद्धि से उनका अन्तः करण शुद्ध हो गया व उन्हें दिनों दिन वेगपूर्वक बढ़ने वाली श्रीहरि की उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त हुई। ऐसे एक करोड़ वर्ष निकल जाने पर उन्होंने राज्य भोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंश परम्परागत संपत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया व अपने सर्वसम्पत्ति सम्पन्न राजमहल का विवेकपूर्वक त्याग कर दिया। यदि विषय हमें छोड़ जाएँ तो अशांति होती है। किन्तु यदि हम स्वयं उन्हें छोड़ दें तो शांति प्राप्त होती है।

भरत जी का मृग में मोह  (Bharat Ji’s Extreme Attachment To The Deer)

jadbhartaएक बार भरतजी गण्डकी नदी में स्नान कर जप करते हुए नदी की धारा के पास बैठे थे। उसी समय एक गर्भिणी हिरणी प्यास से अत्यंत व्याकुल हो अकेली ही जल पीने के लिए नदी के तीर पर आई। अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की भयंकर दहाड़ सुनाई पड़ी। प्राणों पर आ बनी देखकर उसने ज्यों ही नदी पार करने के लिए छलांग मारी त्यों ही दैववश उसका गर्भ अपने स्थान से हट कर योनिद्वार से निकलकर नदी के प्रवाह में गिर गया। अत्यंत पीड़ित वह हिरणी किसी गुफा में जा पड़ी और मर गई। नदी के प्रवाह में बहते बच्चे को देखकर भरत जी को अत्यंत दया आई, वे उसे बचाकर आश्रम पर ले आए।

उस मृगछौने से उनकी ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। वे नित्य उसके खाने-पीने का प्रबंध करने, व्याघ्रादी से बचाने, लाड़ लड़ाने और पुचकारने आदि की चिंता में ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में मृग में आसक्ति के कारण उनके यम, नियम और भगवत् पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अन्त में सभी छूट गए। वे सोचते कि वह मृग उनके शरणागत है और वे ही उसके रक्षक हैं। उठते, बैठते, टहलते, ठहरते व सोते समय भी उनका चित्त उस मृग के स्नेहपाश में बंधा रहता। हर जगह वह उसे अपने कंधे पर बिठा कर साथ ले जाते। कभी वह दिखाई न देता तो धन लुटे दीन-हीन मनुष्य की भांति व्याकुल हो जाते।

मृग योनी में जन्म (Rebirth As A Deer)

deerदिन प्रतिदिन उस नन्हें मृगशावक में भरत जी की आसक्ति बढ़ती ही जा रही थी। एक दिन वह बच्चा खेलता-कूदता घने वन में चला गया और रात होने पर भी वापिस ना आया। भरत जी को चिंता होने लगी कि मेरे बच्चे का क्या हुआ होगा, कब लौटेगा। उस मृगछौने के पालन-पोषण और लाड़ प्यार में ही लगे रहकर वे अपने आत्मस्वरुप को भूल गये थे। उसी समय भरत जी को पकड़ने के लिए प्रबल वेगशाली कराल काल आया। मृत्यु किसी पर दया नहीं करती। उस समय भी उनका चित्त उसी मृगशावक में लगा हुआ था। इस प्रकार उसकी आसक्ति में ही उनका शरीर छूट गया। जिसके कारण उन्हें अगले जन्म में मृग का ही शरीर मिला और वह मृग जिसने भरत जी के पास में शरीर छोड़ा, वह अगले जन्म में राजा रहूगण बना।

पूर्वजन्म में किये हुए तप व भक्ति के फलस्वरूप भरत जी को मृग योनी में भी अपना पिछला जन्म पूर्ण रूप से स्मरण रहा। वे जानते हैं कि मृग आसक्ति के कारण ही वे मनुष्य से चौपाया बने घूम रहे हैं। वे सोचते हैं कि अब उन्हें नई प्रारब्ध नहीं बनानी, बस यही प्रारब्ध भोगनी है। इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के हृदय में जो वैराग्य-भावना जाग्रत हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे अकेले रहकर सूखे पत्ते, घास और झाड़ियों द्वारा निर्वाह करते मृगयोनि की प्राप्ति कराने वाले प्रारब्ध के कटने की बाट देखते। अंत में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गंडकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।

भरत जी का ब्राह्मण कुल में जडभरत के रूप में जन्म (Bharat Ji Reincarnated As The Brahmin Jadbharat)

भरत जी परम संत थे अतः एक पवित्र ब्राह्मण के घर उनका यह अंतिम जन्म जडभरत के रूप में हुआ। उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान था कि हिरण की माया में फँसने के कारण उन्हें पशुदेह धारण करनी पड़ी थी। अतः वे इस जन्म में किसी से भी बोलते नहीं थे। बोलने और खाने, यह दोनों कार्य करने वाली जीभ पर यदि अंकुश लगा दिया जाए तो हमारे बहुत से कर्म बनने से बच जाएँगे। वे हर समय श्रीभगवान के युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते।

jadbharatभरत जी के पिता ने उन्हें पंडिताई पढ़ाई परन्तु वे जानबूझकर मंत्रोच्चारण अच्छे ढंग से नहीं करते थे क्योंकि वे अपना ज्ञान प्रसिद्ध नहीं करना चाहते थे। माता-पिता के शरीर त्यागने पर उनके भाई ने इन्हें पढ़ाने-लिखाने का आग्रह भी छोड़ दिया। भरत जी को मान अपमान का कोई विचार न था, जब कोई उन्हें पागल, मूर्ख कहते तब वे उसी के रूप भाषण करने लगते।

जडभरत के भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द तथा बर्तनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन आदि खाने के लिए देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे। भरत जी रास्ता देख देखकर चलते कि कहीं किसी जीव की हिंसा न हो जाए। वे किसी कर्म बंधन में फँसना नहीं चाहते थे। भाई उनसे जो भी कार्य करने को कहते, वे उसका उल्टा ही करते। खेत में मेढ़ बनाने को कहते तो गड्ढा बना देते। खेत की रखवाली करने को कहते तो वे खेत में गायों को चरने के लिए छोड़ देते। वे गायों को रोकते न थे अपितु कहते थे- “खाने वाला राम, खिलाने वाला राम, तो रोकने का क्या काम।”

माँ भद्रकाली का प्राकट्य एंव जडभरत की रक्षा (Maa Bhadrakali Revealed Herself In Front Of Jadbharat And Saved His Life )

bhadrkaliकिसी समय डाकुओं के सरदार ने, जिसके सामंत शूद्र जाति के थे, पुत्र की कामना से मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसका पकड़ा हुआ पुरुष-पशु उसके फंदे से दैववश भाग गया। अंधियारी आधी रात में उसे ढूंढते-ढूंढते अकस्मात ही सैनिकों की दृष्टि इन आंगिरसगोत्रीय ब्राह्मण कुमार भरत जी पर पड़ी, जो मर्ग-वराह आदि जीवों से खेत की रखवाली कर रहे थे। सैनिक जन इन्हें बंदी बनाकर चंडिका मंदिर में ले आये। तदनन्तर उन चोरों ने विधिपूर्वक उनको स्नान कराया, विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषणों, चंदन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धुप, दीप, माला आदि उपहार सामग्री सहित बलिदान की विधि से भरत जी को माँ भद्रकाली के सामने नीचा सिर करके बिठा दिया।

जड़ भरत ने माताजी को मन ही मन प्रणाम किया व सिर नवाकर शांत चित्त से बैठ गए। इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने भरतजी के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिए देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया। यह भयंकर कुकर्म देखकर माँ भद्रकाली मूर्ति तोड़ कर प्रकट हुईं। उन्होंने क्रोध से भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस खड्ग से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिए तथा मस्तक की गेंद बनाकर खेलने लगीं। ज्ञानी भक्तों की रक्षा के लिए सहस्त्रबाहु भगवान हर पल उनकी रक्षा के लिए खड़े रहते हैं।

जडभरत और राजा रहूगण की भेंट (King Rahugana Meets Jadbharat)

एक समय सिंध देश के राजा रहूगण तत्त्व ज्ञान प्राप्ति कि इच्छा से कपिल मुनि के आश्रम की ओर जा रहे थे। रास्ते में पालकी उठाने वाला एक कहार भाग गया तो बाकी तीन कहार जडभरत को पकड़ लाए। उन्होंने पालकी उठाई। सम्पूर्ण भरतखण्ड के राजा जो स्वयं अनेकों बार पालकी में बैठे थे, आज पालकी उठा रहे हैं। अपनी प्रारब्ध भुगतनी ही पड़ती है। प्रभु के ध्यान में निमग्न भरत जी की अनोखी दशा है। वे कभी व्याकुल हो रोते हैं तो कभी मन ही मन भगवान के दर्शन कर हँसते हैं। रास्ते में चींटी भी दिखती तो भरत जी कूद जाते जिससे बार-बार रहूगण का सिर पालकी से टकरा जाता। राजा ये सहन ना कर सके व क्रोध से जडभरत का अपमान करने लगे। बोले- “अरे सेवक, तू तो जीते जी ही मरा हुआ है, तुझे कुछ भाव ही नहीं है, ठीक से चल वरना मैं तुझे दंड दूंगा।”

राजा रहूगण को उपदेश (Preachings Given To King Rahugana)

jadbharat and raja rahuganaजडभरत ब्रह्मज्ञानी हैं। क्रोधित राजा पर उन्हें दया आई कि ज्ञान लेने की इच्छा से जाते हुए राजा अंहकार से कितने भरे हुए हैं। दीनता की अपेक्षा इतना अंहभाव होगा तो कपिल मुनि राजा को विद्या नहीं देंगे। इसे अधिकारी बनना होगा। जडभरत ने अपना मौन तोड़ा व राजा रहूगण को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया।

भरत जी ने कहा- “राजन! केवल मैं ही नहीं सारा जगत ही जीते जी मृत-सा है, इसमें हर शरीर शव के समान है। सत्य तो केवल परमात्मा ही हैं।”

व्यवहारिक दृष्टि से ही भेद है, आत्मिक दृष्टि से तुम और मैं एक ही हैं। शरीर को शक्ति देता है मन और मन को बुद्धि परन्तु बुद्धि को प्रकाशित करने वाले तो केवल श्री हरि परमात्मा ही हैं। राजन हर जीव में परमात्मा हैं यही सोच कर मैं चींटी का भी ख्याल करते हुए इस प्रकार छलांग लगाते हुए चलता हूँ।

जडभरत के ऐसे विद्वता पूर्ण कथन सुनकर राजा रहूगण अचंभित रह गए, सोचने लगे यह कोई पागल नहीं, परमहंस है, ज्ञानी महात्मा हैं, अवधूत संत हैं। इन अलौकिक ब्रह्मनिष्ठ का अपमान करके मैंने बहुत क्षति कर दी। यह सोच राजा चलती हुई पालकी से कूद पड़े। जो मारने को तैयार था, अब वंदन कर रहा है।

भरत जी तो सच्चे संत थे। अपमान व सम्मान दोनों में ही सम रहे। रहूगण के सभी प्रश्नों के उत्तर देकर उन्होंने उसे ब्रह्मज्ञान दिया- “राजन इस मन को परमात्मा में लगा दो। मन के सुधरने पर ही जगत सुधरता है। इस मन को मृगबाल में लगाने के कारण ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़ा। तुम मन को दण्ड दोगे तो यमराज तुम्हें दण्ड नहीं देंगे।”

संसार को स्वप्नवत जानो और मन को शुद्ध करने के लिए संतों का समागम करो। सत्संग से ज्ञान की और संतों व गुरुजनों की सेवा से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

सद्गुरु के आसरे से ही इस भवाटवी से बाहर निकल सकते हैं। जीव की यात्रा परमात्मा से शुरू हुई है और इस मार्ग की अंतिम अवधि भी परमात्मा ही हैं।

शिक्षा (Moral)

जडभरत जी का चरित्र यह शिक्षा देता है कि मन की आसक्तियाँ ही बार-बार जन्म मरण में लाती हैं।

आसक्ति ही दुःख देती है, जन्म-मरण के चक्र में फँसा देती है। गुरु भगवान के सानिध्य में ज्ञान और भक्ति से ही इस आसक्ति को काट सकते हैं और भगवान के चरणों में लगा सकते हैं।

जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तों की शरण ले लेते हैं, उनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती। फिर भरत जी ने प्रभु का ध्यान करते हुए शरीर त्याग दिया।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।