Spirtual Awareness

गजेन्द्र मोक्ष (Gajendra Moksha)

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना (The Crocodile Caught Hold Of The Elephant)

क्षीर सागर में त्रिकूट नाम का एक प्रसिद्ध सुंदर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। दस हजार योजन की उंचाई, लम्बाई, व चौड़ाई वाले उस पर्वत की लोहे, चांदी व सोने की तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशायें, व आकाश जगमगाते रहते थे। विविध जाति के वृक्षों, लताओं व झाड़ियों से सुशोभित वह पर्वत झरनों की झर-झर से सदा गुंजायमान रहता। उसकी कंदराओं में सिद्ध, चारण, गन्धर्व विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिए प्रायः बने ही रहते।

पर्वत की तलहटी में तरह–तरह के जंगली जानवरों व मधुर कंठों से चहकते पक्षिओं का बसेरा था। वहाँ के निर्मल जल के सरोवरों में जब देवांगनाएँ स्नान करतीं तो वह जल और भी सुगन्धित हो जाता। इसी पर्वत की तराई में भगवान वरुण का एक उद्यान था “ऋतुमान” जिसमें मंदार, पारिजात, गुलाब, अशोक, आम, खजूर, चन्दन, अर्जुन, बरगद व अनेकों प्रकार के दिव्य वृक्ष थे जो सदा फलों व फूलों से झूलते ही रहते। यहीं उद्यान में एक बड़ा भारी सरोवर था जिसमें सुनहरे कमल खिल रहे थे।

elephanta with familyउस पर्वत के घनघोर जंगल में बहुत सी हथनियों के साथ एक गजेन्द्र निवास करता था जो वहाँ के बड़े–बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक बार वह पर्वत पर अपनी हथनियों के साथ बांस तथा बड़ी-बड़ी झाड़ियों को रौंदता हुआ विचर रहा था। उसकी गंध मात्र से सिंह, गैंडे आदि हिंसक पशु डर कर भाग रहे थे और उसकी कृपा से भेड़िये, सूअर, कुत्ते, बंदर, खरगोश आदि सब निर्भय विचरण कर रहे थे। गज भरी धूप में प्यास से व्याकुल हो अपने छोटे बच्चों, हाथियों व हथनियों के साथ उस सुगन्धित सरोवर की ओर चल पड़ा। सभी ने पहले तो सरोवर के जल में स्नान किया बाद में जल क्रीड़ा करने लगे। गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषों की तरह मोहग्रस्त होकर अपनी सूंड से जल की फुहारें छोड़ कर हथनियों व बच्चों को नहलाने लगा व उनके मुंह में सूंड डालकर जल पिलाने लगा।

भगवान् की माया से मोहित हुए उन्मत्त गजेन्द्र को यह ज्ञात ही नहीं था कि उसके सिर पर बहुत बड़ी विपत्ति मंडरा रही है। ठीक उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से एक बलवान ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया। गज ने अपने को छुड़ाने की बहुत चेष्टा की, परन्तु सब व्यर्थ हो गई। दूसरे हाथियों, हथनियों व बच्चों ने भी विकलता से चिंघाड़ते हुए सहायता करनी चाही, परन्तु वे भी इसमें असफल रहे। कभी गज ग्राह को बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह उसे अन्दर को खींच ले जाता। गजेन्द्र व ग्राह अपनी पूरी- पूरी शक्ति लगाकर लगातार एक हजार साल तक लड़ते रहे। यह अनोखा युद्ध देखकर देवता भी आश्चर्य चकित हो गए।

जल में लम्बे समय तक खींचे जाने से गजेन्द्र का शरीर व मन, दोनों शिथिल पड़ गए और ग्राह तो ठहरा जलचर, अतः वह तो और अधिक उत्साह और बल से गजेन्द्र को खींचने लगा।

इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अपने प्राणों को संकट में फंसा देख विचार करने लगा कि यह ग्राह विधाता की फाँसी ही है। मैं स्वयं व मेरा सम्पूर्ण परिवार मुझे न बचा पाया, अब तो मैं सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् की ही शरण लेता हूँ। वे ही मेरी रक्षा करंगे।

गजेन्द्र द्वारा प्राण रक्षा के लिए भगवान की स्तुति (The Elephant Praises Lord Shri Hari & Pleads To Save Himself)

गजेन्द्र द्वारा भगवान् की स्तुतिअपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को ह्रदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्त्रोत के जप द्वारा अनेकों प्रकार से भगवान् की स्तुति करने लगा।

मैं उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ, जो जगत के मूल कारण हैं व सबके ह्रदय में विद्यमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार की चेतनता का विस्तार होता है।

वे ही सबके मूल हैं और अपने मूल में भी वही हैं। कार्य कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें। नट की भांति अनेक रूप धारण कर, लीला करने वाले सर्वेश्वर प्रभु मेरी रक्षा करें।

वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यंत आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ। स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।

जैसे समस्त नदी, झरने आदि का परमाश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम्तात्पर्य हैं। आप मोक्ष स्वरुप हैं और सब संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं, अतः मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फांसी काट देते हैं। हे नित्यमुक्त, परम करुणामय आप अपने भक्तों का कल्याण करने में कभी आलस्य नहीं करते। आपके श्री चरणों में मेरा नमस्कार है।

हे प्रभु! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य आप ही का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं आप उन्हें सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। हे! परम दयालु प्रभु,आप ही मेरा उद्धार करें।

प्रभु आप ना देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य हैं, ना पशु-पक्षी, ना स्त्री हैं, ना पुरुष, ना ही नपुंसक। ना ही आप कोई साधारण या असाधारण प्राणी हैं। ना आप गुण हैं, ना कर्म, ना कार्य हैं, ना ही कारण। सबका निषेध हो जाने पर जो शेष बच रहता है, वो आप हैं, वही आपका स्वरुप है। आप ही मेरे उद्धार के लिए प्रकट हुए हैं। हे सर्वशक्तिमान माधुर्यनिधि भगवान्! मैं आपकी शरण में हूँ।

संकट से रक्षा हेतु श्री हरि का प्रकट होना (Shri Hari Emerges Promptly For His Devotees At The Time Of Distress)

ऐसी आर्त स्तुति सुनकर भक्तवत्सल करुणा वरुणालय सर्वात्मा भगवान् श्री हरि बिना देरी के स्वयं वहां प्रकट हो गए और वेदमय गरुण पर सवार हो बड़ी शीघ्रता से वहां के लिए चल पड़े जहाँ गजेन्द्र अत्यंत संकट में पड़ा हुआ था। सरोवर में व्याकुल गजेन्द्र ने जब आकाश में चक्र-पाणि भगवान श्री हरि को देखा तो उसने अपनी सूंड में कमल का एक सुंदर पुष्प लेकर ऊपर को उठाया और आर्त भाव से बोला– नारायण! भगवन! आपको नमस्कार है।

भक्तवत्सल प्रभु गरुड़ को एक बारगी छोड़ कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर भगवान् श्री हरि ने चक्र से ग्राह का मुंह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

गज व ग्राह का पूर्व चरित्र व उनका उद्धार (The Past Lives Of The Elephant & The Crocodile And Their Reformations)

गज व ग्राह उद्धारउस समय सभी देवता भगवान् की प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीर से सम्पन्न हो गया। यह ग्राह पूर्वजनम में हूहू नामक एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवताओं के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। उसने सर्वेश्वर भगवान के चरणों में प्रणाम किया, तत्पश्चात वह भगवान् के सुयश का गान करता हुआ उनकी परिक्रमा कर अपने लोक चला गया। श्री भगवान् के कृपापूर्ण स्पर्श से उसके पाप-ताप सब नष्ट हो गए व उसे उत्तम गति प्राप्त हुई।

गजेन्द्र जो पूर्वजन्म में द्रविड़ देश के पांडयवंशी राजा इन्द्र्धुमन थे, भक्ति में संलग्न हो अगस्त्य ऋषि को प्रणाम ना करने के कारण ऋषि के शाप से शापित हो उन्हें हाथी कि योनि मिली थी। परन्तु भगवान् की आराधना का ऐसा फल है कि अंत समय में भगवान की स्मृति हो गई और अज्ञान के बंधन से मुक्त हो भगवान् का ही रूप प्राप्त हो गया, भगवान् ने उसे अपना पार्षद बना लिया और उसे साथ लेकर अपने अलौकिक धाम को चले गए।

यह प्रसंग सुनने वालों के कलिमल और दुःस्वपन्न को मिटाने वाला, यश उन्नति तथा स्वर्ग को देनेवाला है। भगवान् ने कहा प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जागकर तुम्हारे द्वारा की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उनकी मृत्यु के समय मैं उन्हें निर्मल बुद्धि का दान दूँगा।

बोलिए भक्तवत्सल भगवान् की जय।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
 लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।