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अजामिल की कथा (The Story Of Ajamila)

गुरु भगवान ने बताया- भगवान की शरण में रहने वाले विरले भक्तों के पाप श्री भगवान के नामोच्चारण से ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य उदय होने पर कोहरा नष्ट हो जाता है। जिन्होंने अपने भगवद गुण अनुरागी मन मधुकर को भगवान श्री कृष्ण के चरणारविन्द मकरन्द का एक बार पान करा दिया; उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिए। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते।

इसी सन्दर्भ में कन्नौज के दासीपति ब्राह्मण अजामिल की कथा आती है। अजामिल बड़ा ही शास्त्रज्ञ शीलवान, सदाचारी व सदगुणों का खजाना था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मंत्रवेत्ता और पवित्र भी था। इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी। अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढ़ता था।

अजामिल का भ्रष्ट जीवन (The Adulterous Life Of Ajamila)

ajamil bad companyएक दिन वन से फल-फूल, समिधा व कुश लाते समय अजामिल ने एक कामी व निर्लज्ज भ्रष्ट शूद्र को शराब पीकर एक वेश्या के साथ विहार करते हुए देखा। वेश्या भी शराब पीकर अर्द्धनग्न अवस्था में मतवाली हो रही थी। अजामिल उन्हें इस अवस्था में देखकर सहसा मोहित व काम के वश हो गया। उसने अपने धैर्य व ज्ञान के अनुसार अपने काम वेग से विचलित मन को रोकने की बहुत कोशिश की परन्तु उस वेश्या को निमित्त बना कर काम पिशाच ने अजामिल के मन को ग्रस लिया। वह मन ही मन उस वेश्या का चिंतन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया। उस कुलटा को प्रसन्न करने के लिए अजामिल ने अपने पिता की सारी सम्पत्ति भी दे डाली व अपनी कुलीन नवविवाहिता पत्नी तक का त्याग कर दिया। धन पाने की चेष्टा में वह पतित कभी बटोहियों को बाँध कर उन्हें लूट लेता, कभी लोगों को जुए के छल से हरा देता, किसी का धन धोखा-धड़ी से ले लेता तो किसी का चुरा लेता। इस प्रकार उसकी आयु का एक बहुत बड़ा भाग, 88 वर्ष बीत गये और वह वेश्या के 10 पुत्रों का लालन-पालन करता रहा।

अजामिल के सबसे छोटे पुत्र का नाम था ‘नारायण’। वृद्ध अजामिल ने पुत्र मोह में अपना सम्पूर्ण ह्रदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। उसकी तोतली बोली सुनकर अजामिल फूला न समाता, उसे अपने साथ ही खिलाता-पिलाता व उसी के मोहपाश में बंधा रहता। वह मूढ़ इस बात को जान ही ना पाया कि काल उसके सर पर आ पहुँचा है।

मृत्यु के समय पुत्र को पुकारना (At The Time Of Death, Ajamila Calls Out For His Son)

अजामिल की मृत्यु का समय आ पहुँचा। उसने देखा कि उसे ले जाने के लिए अत्यंत भयावने तीन यमदूत आये हैं, जिनके हाथों में फाँसी की रस्सी है, मुँह टेढ़े-मेढे हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं। उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था। यमदूतों की भयावह छवि से व्याकुल अजामिल ने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा- ‘नारायण’ ‘नारायण’। भगवान के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान नारायण का नाम ले रहा है अतः वे झटपट वहाँ आ पँहुचे। उस समय यमदूत अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। चारों विष्णु दूतों ने उन्हें बलपूर्वक रोका।

विष्णुदूतों व यमदूतों के बीच का संवाद (A Dialogue Between The Messengers Of Vishnu And The Messengers Of Yama)

ajamila yamadutaयमदूतों ने कहा कि इस पापी अजामिल ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छंद आचरण किया है। इसने अनेकों वर्षों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है। इसका सारा जीवन पापमय है और इस पापी के पापों का प्रायश्चित दंडपाणि भगवान यमराज के पास नरक यातनायें भोगकर ही होगा।

भगवान के पार्षदों ने कहा- यमदूतों! इसने कोटि जन्म की पाप राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है क्योंकि इसने विवश हो कर ही सही, भगवान के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण किया है। जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। भगवन्नाम उच्चारण बड़े से बड़े पाप को काटने की सामर्थ्य रखता है क्योंकि भगवान के नाम के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरुप में रम जाती है और स्वयं भगवान की भी उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।

संकेत में, परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई ‘नाम’ उच्चारण करे तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग भंग होते समय, साँप के डसते समय, आग में जलते समय व चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यम यातना का पात्र नहीं रह जाता।

यमदूतों! जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान बूझकर या अनजाने में, भगवान के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जान कर अनजाने में पी ले, तो भी अमृत उसे अमर बना ही देता है वैसे ही अनजाने में उच्चारण करने पर भी भगवान का नाम अपना फल देकर ही रहता है। अजामिल ने श्री भगवान का नाम नारायण का उच्चारण किया है अतः यमदूतों तुम अजामिल को मत ले जाओ।

भगवान के पार्षदों ने भागवत धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया व अजामिल को यमदूतों के पाश से बचा कर मृत्यु के मुख से छुड़ा लिया।

bhagwad dhamअजामिल को ग्लानि, जीवन परिवर्तन व भगवान के श्री चरणों की शरण (Ajamila Feels Guilty, Transforms Himself And Finds Shelter In The Lord’s Lotus Feet)

अजामिल ने यमदूतों व विष्णुदूतों के सारे संवाद को देखा व सुना। वह यमदूतों के फंदे से छुटकर निर्भय व स्वस्थ हो गया। सर्व पापहारी भगवान की महिमा सुनने से अजामिल के ह्रदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। उसे अपने जीवन पर बहुत पश्चाताप होने लगा। उसके ह्रदय में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य होने लगा। अजामिल सबके संबंध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चला गया। योगमार्ग व आत्म चिंतन का आश्रय लेकर अजामिल ने इन्द्रियों, मन व बुद्धि को विषयों से पृथक कर भगवान में लीन कर दिया। तब उसने देखा कि उसके सामने वही चारों विष्णुदूत खड़े हैं, जिन्हें उसने पहले देखा था। अजामिल ने सर झुका कर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद अजामिल ने उसी तीर्थ हरिद्वार में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाशमार्ग से भगवान लक्ष्मीपति के निवास स्थान बैंकुठ को चला गया।

शिक्षा (Moral)

1. भगवान के नाम में इतने पापों को काटने की शक्ति है, जितने पाप मनुष्य कर भी नहीं सकता।

2. जो मनुष्य मोहग्रस्त होकर घर गृहस्थी का ही बोझा ढोते रहते हैं व भगवन्नाम के दिव्य रस से विमुख हैं, वे ही बार-बार नरक यातनाओं व जन्म-मरण के चक्र में फंसने के लिए धर्माधिकरी यमराज के सम्मुख लाए जाते हैं।

3. बड़े से बड़े पापों का सर्वोत्तम, अंतिम और पाप वासनाओं को भी निर्मूल कर डालने वाला प्रायश्चित यही है कि केवल श्री भगवान के गुणों, लीलाओं और नामों का कीर्तन किया जाए। भगवान के आश्रित भक्तों की ओर यमदूत आँख उठा कर भी नहीं देखते।

कलियुग केवल नाम आधारा। सिमर सिमर नर उतरहिं पारा।।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।