श्री वारमुखी जी
एक दिन विशाल सन्त मण्डली रास्ते-रास्ते जा रही थी। एक वैश्या के घर के सामने छाया युक्त, स्वच्छ, सुन्दर स्थान देखकर सन्तों के मन को अच्छा लगा। सभी ने वहाँ अपने ठाकुर पधार दिये, आसन लगा लिये। अच्छी ठौर देखकर ठहर गए, उनके मन में धन का लोभ कदापि न था। इतने में ही वह वैश्या आभूषणों से लदी हुई बाहर आ गई।
सन्तों को देख कर वह मन में विचारने लगी- आज मेरे कौन से भाग्य उदय हो गये? जो ये सन्तगण मेरे द्वार पर विराज गये, निश्चित ही इन्हें मेरे नाम और जाति का पता नहीं है। इस प्रकार सोच-विचार कर वह घर में गई और एक थाल में मुहरें भरकर ले आई। उसे महन्त जी के आगे रखकर बोली- ‘प्रभो! इस धन से आप अपने भगवान् का भोग लगाइये, प्रेमवश उसकी आॅँखों में आँसू आ गये।
मुहरें भेंट करती देखकर श्री महन्त जी ने पूछा- तुम कौन हो, तुम्हारा जन्म किस कुल में हुआ है? इस प्रश्न को सुनकर वैश्या चुप हो गई, उसके चित्त में बड़ी भारी चिन्ता व्याप्त हो गई। उसे चिन्तित देखकर श्री महन्त जी ने कहा कि तुम निःशङ्क होकर सच्ची बात खोलकर कह दो, मन में किसी भी प्रकार की शंका न करो। तब, मैं वैश्या हूँ- ऐसा कहकर वह श्रीमहन्त जी के चरणों में आ पड़ी। फिर सम्भलकर प्रार्थना की- प्रभो! धन से भण्डार भरा हुआ है, आप इसे स्वीकार कीजिए। यदि आप मेरी जाति का विचार करेंगे और धन को नहीं लेंगे तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी। तब महन्त जी ने कहा- इस धन के द्वारा श्रीरंगनाथ जी का मुकुट बनवाकर उन्हें अर्पण कर दो।
वैश्या बोली- भगवन्! जिसके धन को ब्राह्मण छूते तक नहीं हैं, उसके द्वारा अर्पित मुकुट को श्रीरंगनाथ जी कैसे स्वीकार करेंगे? महन्त जी ने कहा- हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि वे अवश्य ही तुम्हारी सेवा स्वीकार करेंगे।
वैश्या ने अपने घर का सारा धन लगाकर सुन्दर मुकुट बनवाया। अपना श्रृंगार करके थाल में मुकुट को रखकर वह चली। सन्तों की आज्ञा पाकर वह वैश्या निःसंकोच श्री रगंनाथजी के मन्दिर में गई पर अचानक ही निःशङ्कित होकर लौट पड़ी। अपने को धिक्कारने लगी, क्योंकि उसे संयोग वश मासिक-धर्म हो गया था। वह अपवित्र हो गई थी।
सन्तों ने संकोच का कारण पूछा, उसने बताया- अब मैं जाने योग्य नहीं हूँ। भगवान् ने वैश्या की दैन्यता एवं प्रेम को देखकर अपने पुजारियों से कहा- इसे ले आओ और यह अपने हाथों से हमें मुकुट पहनावे। ऐसा ही किया गया। जैसे ही उसने हाथ में मुकुट लेकर पहनाना चाहा, वैसे ही श्री रंगनाथ ने अपना सिर झुका दिया और मुकुट को धारण कर लिया। इस चरित्र से भक्त-भगवान् की मतिरीझ गई। (पतित-पावनता देखकर) लोग भक्त-भगवान् की जय-जयकार करने लगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।