संत नामदेव (Sant Namdev)
सो अनन्य जाके अस मति न टरइ हनुमंत ।
मै सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ।।
जन्म (Birth)
भक्त नामदेव जी का जन्म वि. सं. 1327 में दक्षिण हैदराबाद के नरसी ब्राह्मणी नामक एक गाँव में हुआ। नामदेव जी की माता गोणाई व पिता दामा सेठ जी भगवत भक्त थे; वे निरंतर भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन किया करते थे। नामदेव जी भी उनसे भगवन्नाम सुन-सुनकर वही सीखने लगे।माता-पिता जो कुछ करते हैं, बालक भी वही सीखता है। नामदेव जी को शैशव से ही विठ्ठल के विग्रह की पूजा, विठ्ठल के गुणगान, विठ्ठल नाम का जप आदि देखने और सुनने को मिला। वे स्वंय विठ्ठलमय हो गए।
एक बार दामा सेठ को कहीं बाहर जाना था इसलिए उन्होनें नामदेव जी पर विठ्ठल की पूजा का भार सौंपा। नामदेव जी ने सरल हृदय से पूजा की और कटोरे में भगवान को दूध का नैवेद्य अर्पित करके नेत्र बंद कर लिए। कुछ देर बाद नेत्र खोलकर देखते हैं तो दूध वैसा ही रखा है। बालक नामदेव सोचते हैं कि मेरे ही किसी अपराध से विठ्ठल दूध नहीं पीते हैं। वे बडी दीनता से प्रार्थना करने लगे, उससे भी काम नहीं चला तो रोते-रोते बोले- विठोबा! यदि तुमने आज दूध नहीं पिया तो मैं जीवन भर दूध नहीं पिऊँगा। बालक नामदेव के लिए वह पत्थर की मूर्ति नहीं थी। वे तो सा़क्षाात पांडुरंग थे। जो रूठकर दूध नहीं पी रहे थे। बच्चे की प्रतिज्ञा सुनते ही दयामय भगवान साक्षात प्रकट हो गये और दूध पीया। उसी दिन से नामदेव के हाथ से वे रोज दूध पिया करते।
विवाह और पंढरपुर प्रवास (Marriage And Migration To Pandharpur)
छोटी उम्र में ही जातीय प्रथा के अनुसार नामदेव जी का विवाह गोविंद सेठ की कन्या “राजाई” के साथ हुआ। पिता के परलोक-गमन के अनन्तर घर का भार इन्ही पर पड़ा। स्त्री तथा माता चाहतीं थीं कि ये व्यापार में लगे, किन्तु इन्होनें तो हरि कीर्तन का व्यवसाय कर लिया था। अब नामदेव जी नरसी ब्राह्मणी गाँव को छोडकर पंढरपुर आ बसे।
चंद्रभागा नदी का स्नान, भक्त पुंडलिक तथा उनके भगवान पांडुरंग के दर्शन और विठ्ठल के गुणों का कीर्तन- नामदेव जी की उपासना का यही स्वरूप था। नामदेव जी के भजनों में विठ्ठल की महिमा है, तत्वज्ञान है, भक्ति है और विठ्ठल के प्रति अपार आभार भाव है।
संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी के साथ तीर्थयात्रा (Pilgrimage With Saint Shri Gyaneshwar Maharaj)
प्रसिद्ध संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज को एक बार नामदेव जी के संग की इच्छा हुई। उन्होंने नामदेव जी को अपने साथ तीर्थयात्रा पर चलने को कहा।
नामदेव जी ने कहा – ”आप पांडुरंग से आज्ञा दिला दें तो चलूँगा।”
भगवान ने ज्ञानेश्वरजी से कहा- “नामदेव मेरा बड़ा लाड़ला है। मैं उसे अपने से क्षणभर के लिए भी दूर नहीं करना चाहता। तुम ले जाओ पर इसकी सम्भांल करना। इतना कहकर भगवान ने स्वयं ज्ञानेश्वर को नामदेव जी का हाथ पकड़ा दिया।
नामदेव जी, ज्ञानेश्वर महाराज के साथ भगवदचर्चा करते हुए यात्रा के लिए निकल गये, लेकिन उनका चित्त पांडुरंग के वियोग से व्याकुल था। ज्ञानेश्वर जी ने भगवान की सर्वव्यापकता बताते हुए समझाना चाहा, तो वे बोले- आपकी बात तो ठीक है। किन्तु पुंडलिक के पास खड़े पांडुरंग को देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। उनके इस अनन्य भाव को देखकर ज्ञानेश्वर जी बड़े प्रसन्न हुए।
एक बार ज्ञानेश्वर महाराज के पूछने पर नामदेव जी ने भजन के संबंध में कहा- मेरे भाग्य में ज्ञान कहाँ है। मुझे तो विठ्ठल की कृपा का ही भरोसा है। मुझे तो नाम संकीर्तन ही प्रिय लगता है। समस्त विश्व में एकमा़त्र विठ्ठल को देखना और हृदय में उनके चरणों का स्मरण करते हुए रहना ही उत्तम ध्यान है। मुख से उच्चारण किये जाते हुए नाम में मन को दृढ़तापूर्वक लगाकर तल्लीन हो जाना ही श्रवण है। भगवच्चारणों का दृृढ अनुसन्धान निदियमान है। सर्वभाव से एकमात्र विठ्ठल का ही ध्यान, समस्त प्राणियों में उन्हीें का दर्शन, सब और से आसक्ति हटाकर उनका ही चिन्तन- भक्ति है।
इस प्रकार तीर्थयात्रा करते हुए मार्ग में बीकानेर के पास कौलायत गाँव के पास में पहुँचकर दोनों को बड़ी प्यास लगी। पास में एक कुआँ तो था, पर वह सूख चुका था। ज्ञानेश्वर जी सिद्धयोगी थे। उन्होनें लघिमा-सिद्धि से कुँए के भीतर जमीन में प्रवेश कर जल पिया और नामदेव जी के लिए जल उपर ले आए। नामदेव जी ने वह जल पीना स्वीकार नहीं किया।
वे भावमग्न होकर कहने लगे- “मेरे विठ्ठल को क्या मेरी चिन्ता नहीं है, जो मैं इस प्रकार जल पिऊँ?”
भगवत्कृपा से कुआँ जल सेे भर गया। नामदेव जी ने इस प्रकार जल पिया।
कुछ दिनों में यात्रा पूर्ण करके संत ज्ञानेश्वर और नामदेव जी पंढरपुर लौट आये। अपने हृदय धन पांडुरंग के दर्शन करके आनन्द में भरकर कहने लगे- “मेरे मन में भ्रम था, इसलिए तो आपने मुझे भटकाया। आपके बिना अन्यदेव की ओर मेंरे चरण चलना नहीं चाहते। मैं आपके सिवा कुछ नहीं जानता हूँ परन्तु आपने मुझपर बड़ी कृपा की जो सर्वत्र मेरे लिये पंढरपुर कर दिया और याद करते ही मुझे दर्शन देते रहे।”
ज्ञानेश्वर महाराज के समाधि लेने पर नामदेव उत्तर भारत में गए। नामदेव का जीवन पंढरपुर में और उत्तरार्ध पंजाब आदि में भक्ति का प्रचार करते बीता। “विसोबा” से इन्हें पूर्व ज्ञान का बोध हुआ था। अतः उन्हें ही ये गुरू मानते थे।
नामदेव प्रत्येक पदार्थ में केवल भगवान को ही देखते थे। उनकी स्थिति का उनके जीवन की अनेक घटनाओं से पता लगता है।
नामदेव जी के जीवन की अलौकिक घटनाएँ (Divine And Supernatural Events Of Namdev Ji’s Life)
एक बार नामदेव जी की कुटिया में आग लग गयी और ये प्रेम में मस्त होकर दूसरी ओर की वस्तु भी अग्नि में फैंकते हुए कहने लगे- “स्वामी। आज तो आप लाल-लाल लपटोें का रूप बनाए बड़े अच्छे पधारे किन्तु एक ही ओर क्यों दूसरी ओर की इन वस्तुओं ने क्या अपराध किया है, आप इन्हें भी स्वीकार करें।” कुछ देर बाद में आग बुझ गई। उनकी चिन्ता करने वाले विठ्ठल स्वयं मजदूर बनकर पधारे और उन्होनें कुटिया बनाकर छान छा दी। तब से पांडुरंग नामदेव जी की छान छा देने वाले प्रसिद्ध हुए।
एक बार नामदेव जी किसी जंगल में पेड़ के नीचे रोटी बना रहे थे। इतने में एक कुत्ता आया और रोटियाँ मुहँ में उठाकर भाग चला। नामदेव जी ने घी का कटोरा हाथ में लेकर यह पुकारते हुए कुत्ते के पीछे दौड़े- “भगवन ! रोटियाँ रुखी हैं, अभी चुपड़ी नहीं हैं। मुझे घी लगाने दीजिये, फिर भोग लगाइये।”
भगवान ने कुत्ते का रूप त्यागकर शंख-चक्र-गदा-पदम् धारण किये। नामदेव जी ने दिव्य चतुर्भुज रूप में भगवान का दर्शन किया।
नामदेव जी की भक्ति बड़ी ही ऊँची थी। जिसका अनुमान उपरोक्त घटनाओं से किया जा सकता है। अनेकों लोगों को भक्ति मार्ग में लगाकर वि.सं.-1407 में 80 वर्ष की अवस्था में आप नश्वर शरीर को त्यागकर परमधाम पधारे।