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भक्त रामकृष्ण दास बाबा जी (Bhakt Ramkrishna Das Baba Ji)

krishnaभक्त रामकृष्ण दास बाबा जी का जन्म शुभ सम्वत् 1914, भाद्र मास में हुआ था। इनकी माता कमला देवी व पिता लक्ष्मीनारायण प्रारम्भ से ही भक्तिपूर्ण संस्कार वाले थे। जब बालक रामकृष्ण की आयु चार-पाँच वर्ष की थी, वह जयपुर में श्री गोविन्द देव जी के मन्दिर के प्रांगण में नित्य खेलने जाया करता, खेल के साथी थे गोविन्ददेव जी के सेवाइत गोस्वामी श्री किशोरी मोहन के बालक कृष्णचन्द और राधाचन्द्र, पर इनके साथ खेल में उसे आनन्द न आता। क्योंकि उसकी इच्छा तो मन्दिर में खड़े श्रीगोविन्द देव जी के साथ खेलने की थी। रामकृष्ण श्री गोविन्द जी को रोज़ ही देखते और मन ही मन सोचते कि यह भी तो गोस्वामी बालक है पर इसे सभी अधिक प्यार करते हैं तभी तो उसे इतने अच्छे-अच्छे कपड़े, गहने, मोर-मुकुट और खेलने के लिए वंशी, सुन्दर खिलौने दिये जाते हैं। कितना अच्छा होता कि ये मेरे साथ खेलता पर यह तो कभी मन्दिर से बाहर ही नहीं निकलता।

भक्त के प्रेमवश श्री भगवान का साकार रूप में प्रकट होना (Lord Emerges Out To Light For The Devotee’s love)

एक दिन जब कृष्णचन्द्र और राधाचन्द्र खेलने नहीं आए, रामकृष्ण प्रांगण में खड़ा अपने दोनों हाथों में गोलियाँ खड़खड़ाता हुआ श्री गोविन्द जी की ओर निहार रहा था पर गोविन्द जी में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न हो रही थी। वह रंग-बिंरगी गोलियों से उनके सामने खुद ही खेलने लगा, खेलते-खेलते कभी किसी रंग की गोली उठाकर उन्हें दिखाता तो कभी दूसरे रंग की। आखि़र श्री गोविन्द जी को लोभ हो ही आया, सामने थाल में रखी अपनी सोने की गोली लेकर उतर पड़े अपने सिंहासन से और लगे गोलियाँ खेलने रामकृष्ण के साथ। इतने में ही गोस्वामी जी को आते देख वे फिर से अपने सिंहासन पर जा विराजे। अपनी गोलियाँ तो ले ही गये, रामकृष्ण की भी ले गये। रामकृष्ण ने मेरी गोली, मेरी गोली, कह चीख-चीख कर रोते हुए गोविन्द जी का पीछा किया। गोस्वामी जी ने उसे रोककर उसके रोने का कारण पूछा। उसने कहा- “ये गोविन्द मेरी गोली लेकर भाग आया है।” उन्होंने विस्मय के साथ हँसते हुए कहा- “अच्छा रुको, मैं देखता हूँ।” वे मन्दिर के भीतर गये और उन्होंने देखा कि गोविन्द जी की सोने की गोलियों के साथ उसकी रंगीन गोली भी रखी है। वे आश्चर्य में डूब गये, उनका शरीर रोमांचित हो गया और मन ही मन रामकृष्ण के भाग्य की सराहना करने लगे।

नित्यानंद जी से दीक्षा  (Initiation By Nityanand Ji)

bhaktकुछ बडे़ होने पर रामकृष्ण का खेल का आवेश जाता रहा। अब विद्याध्ययन में इनका आवेश बढ़ता गया। अध्ययन के बीच-बीच में रामकृष्ण माँ से वृन्दावन जाने का आग्रह भी करते।वहाँ पर श्री नित्यानन्द जी का सत्संग सुना करते, धीरे-धीरे इनकी नित्यानन्द जी में श्रद्धा हो गई। अध्ययन समाप्त होने पर इन्होंने नित्यानन्द जी से दीक्षा और वेष ग्रहण किया। लोग इन्हें तब से पण्डित बाबा कहने लगे। फिर वे बरसाने में रहकर निरन्तर भजन करने लगे, वहाँ इन्होंने आठ वर्ष तक एकान्त में भजन किया। एक बार भजन करते में ही इन्हें प्रिया-प्रियतम जी ने साक्षात् दर्शन दिये और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि तुम राघव की गुफा में भजन किया करना। तब से बाबा पूछरी में राघव की गुफा में भजन करने लगे। वे प्रातः 2 बजे भजन में बैठते और अपराहन् 2 बजे तक लीला-स्मरण में लीन रहते। अपराहन् में गुफा से बाहर निकलते। कुछ दिन में बाबा का भजनावेश इतना बढ़ गया कि वह कब भजन में बैठेंगे और कब उठकर बाहर आयेंगे, किसी को कुछ भी पता न रहता।

अक्सर दो-तीन दिन लगातार गुफा में बैठे भजन करते रहते, इसी बीच एक बार इनकी माँ जयपुर से उन्हें देखने आयीं। तीन दिन तक वे गुफा के बाहर बैठी इन्तजार करती रहीं, तीसरे दिन जब वे बाहर निकले तो वे माँ से मिले भी नहीं। वे सीधे मधुकरी के लिए चले गये। माँ ने रो-रोकर कई बार उन्हें पुकारा पर उन्होंने एक बार भी पलटकर नहीं देखा। अन्त में माँ रो-रोकर अपने निजस्थान को चली गईं पर माता के चले जाने के बाद उनका चित्त अस्थिर रहने लगा, उनके भजन में बाधा आने लगी, उन्होंने सोचा कि कोई अपराध हुआ है। वे अपने गुरु नित्यानन्द जी के पास गये, उन्होंने उनसे इनका कारण जानना चाहा, गुरुजी ने बताया कि तुमसे माँ के प्रति अपराध हुआ है वे तुम्हारे व्यवहार से दुःखी होकर चली गईं, इसी से तुम्हारा भजन में मन नहीं लग रहा है। पण्डित बाबा ने माँ को चिट्ठी लिखकर बुलाया और एक वैश्य के घर उन्हें रखकर उनकी सेवा की। सात-आठ वर्ष पीछे उनकी माँ का शरीर शांत हो गया और अब वे निर्विघ्न रूप से भजन करने लगे।

पण्डित बाबा अपने गुरु श्री नित्यानन्द जी को प्राण गोपाल कहकर सम्बोधित करते। वे उनका बहुत आदर करते थे, कुछ समय से बाबा इन्फ्लुएंजा से पीड़ित थे, जिससे उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया। लोगों ने उन्हें दूध पीने के लिए आग्रह किया, पर उन्होंने किसी की न सुनी। उन्होंने 40 वर्षों से दूध नहीं लिया था, सबने प्राण गोपाल प्रभु से प्रार्थना करी कि आप दूध न पीने का आग्रह छुटवाने का प्रयास करें। श्री नित्यानन्दजी स्वयं दूध का गिलास लेकर गये और उसके मुख से लगाकर कहा- “इसे आपको पीना होगा।” बाबा ने बच्चों की तरह उनके हाथ से दूध पी लिया।

भक्त अपराध और उसका प्रायश्चित (Devotee’s Guilt And Repentance)

एक बार बाबा की कुटिया पर गोवर्धन थाने के अधिकारी उनके दर्शन करने आये। वे बाबा में बहुत श्रद्धा रखते थे। उनके साथ उनकी पत्नी और उनके परिवार की एक महिला भी दर्शन के लिए आयीं। उन्होंने देखा कि कुटिया में पानी का केवल एकमात्र बर्तन है, जो मिट्टी का बना है, जो न जाने कब का पुराना है। अगर बाबा से पानी पीने को कहा तो उसी में से पीना पडे़गा और इसलिए वे प्यासी ही घर लौट आयीं। यह बात जब उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र को बतायी तो उन्होंने कहा कि बाबा के बर्तन के प्रति तुमने घृणा-दृष्टि रखकर अच्छा नहीं किया, तुमसे यह अपराध हुआ है। पत्नी को बहुत पश्चाताप हुआ। उन्होंने अपने अपराध के लिए प्रायश्चित की बात कही तो श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- बर्तन से क्षमा माँगकर उसका जल पीने से तुम्हारा अपराध क्षमा हो सकता है।

Lord-Krishnaवे दोनों बाबा की कुटिया पर दूसरे दिन फिर गयीं, बर्तन की तरफ़ देखकर मन ही मन उससे क्षमा माँगी फिर बोलीं- बाबा प्यास लगी है। बाबा ने सेवक के द्वारा उन्हें पानी पिलवाया। जब वह पानी पी रही थीं तो बर्तन में चमचमाते हुए चिन्मय स्वरूप के दर्शन हुए। दर्शन कर वह आश्चर्य चकित रह गयीं। सन्त तो स्वयं ही चिन्मय होते हैं और उनकी हर वस्तु भी चिन्मय हो जाती है।

अब बाबा 80 वर्ष के हो रहे थे। उनकी दुर्बलता बढ़ती ही जा रही थी फिर भी भजन सम्बन्धी सारे नियमों का पालन विधिवत् चलता रहता। वही रात में 2 बजे उठना, अपराह्न् 2 बजे तक भजन में संलग्न रहना, नित्य मधुकरी को जाना, नित्य श्रीगोविन्द जी के दर्शन करना, एकादशी आदि तिथियों पर निर्जल व्रत रखना, आचार्यों की समाधि पर जाकर दण्डवत् करना, चाहे आँधी हो या तूफ़ान। वे अपने नियमों को ज़रूर पूरा करते।

दिन-प्रतिदिन बाबा की दुर्बलता बढ़ती गई। एक दिन जब कुशल सिंह जी और हरि सिंह जी गोविन्दजी की प्रसादी माला लाये तब उन्होंने माला बाबा के गले में डाली। माला का स्पर्श होते ही बाबा ने शरीर छोड़ दिया। श्री गोविन्द जी आये और अपने बचपन के साथी रामकृष्ण दास को अपने साथ ले गये।

श्रीगोविन्द का यह स्वभाव है कि वे जिससे प्रीति करते हैं, उससे अन्त तक निभाते हैं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।