भक्त नरसिंह मेहता (Bhakt Narsinh Mehta)
जीवन परिचय (Life Introduction)
नरसिंह भक्त, जो जन्म से ही गूंगे थे, का जन्म 15 वीं शताब्दी के संवत 1470 में तलाजा नामक गाँव जो जिला जूनागढ़, सौराष्ट्र में स्थित है के एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता का नाम श्री कृष्ण दामोदर दास, माँ का नाम लक्ष्मीगौरी था, जो नरसिंह भक्त को 5 वर्ष की अवस्था में छोड़ कर स्वर्ग सिधार गए थे। अतः इनका पालन पोषण इनकी दादी, जयकुंवरि और इनके ज्येष्ठ भ्राता, वंशीधर की देखरेख में हुआ। दादी के सानिध्य में बालक को धार्मिक संस्कार संतों महात्माओं की सेवा का पूरा-पूरा लाभ मिला।
जब नरसिंह भक्त 8 वर्ष के हुए तो दादी ने फागुन शुक्ल पंचमी के दिन जूनागढ़ के ही हाटकेश्वर महादेव मंदिर में जाकर हमेशा की तरह नरसिंह के साथ दर्शन किये और दर्शन के बाद जब लौट रही थीं तो उनकी निगाह एक महात्मा पर पड़ी, जो मंदिर के ही एक कोने में आसन बिछाकर पद्मासन में नारायण-नारायण का जप कर रहे थे। जयकुंवरी अपने नाती संग महात्मा के निकट जाकर चरण वंदना कर अपने नाती के आज दिन तक ना बोलने के विषय में प्रार्थना करते हुए नम्रता से निवेदन करती है कि आपकी कृपा हो जाये तो यह बोलने लग जाये। महात्मा का चेहरा दैवीय शक्ति संपन्न तेज से जगमगा रहा था, उन्होंने बालक को अपनी गोदी में बिठाया और उसके कान में कहा- “बच्चा! कहो “राधेकृष्ण-राधेकृष्ण।” चमत्कार हो गया भगवान की कृपा से बच्चा राधेकृष्ण-राधेकृष्ण बोलने लगा।
नरसिंह के भाई वंशीधर जो दरोगा के पद पर थे,नरसिंह को लालन पालन के साथ-साथ शिक्षा के लिए भी प्रेरित कर रहे थे और एक संस्कृत पाठशाला में दाखिल भी करा दिया था। लेकिन नरसिंह का मन तो राधेकृष्ण भक्ति की और आकृष्ट हो चुका था, निरंतर उन्ही का जाप करते और श्री शंकर भगवान में भी श्रद्धा होने से वे मन्दिर में जाकर बहुत श्रद्धा व प्रेम के साथ उमा-महेश्वर के गुणगान करते व भोलेनाथ की पूजा-अर्चना करते। द्वारिका आने जाने वाले संत जब गाँव में आते और ठहरते, तो नरसिंह उनकी यथोचित सेवा करते व उनके उपदेश सुनते। नरसिंह के भाई वंशीधर तो ज्यादा कुछ नहीं कहते थे, पर उनकी पत्नी (दुरितगौरी) नरसिंह को बड़ी प्रतारणा देती थी, पर नरसिंह पर तो भक्ति का ऐसा रंग चढ़ चुका था कि भाभी की जली कटी, डांट, निंदा, प्रतारणा सब भगवत्प्रेम के ऊपर वार दिया करते थे।
गृहस्थ जीवन (Marital Life)
जब से नरसिंह की वाणी खुली, तभी से शीघ्रातिशीघ्र दादी उनका विवाह कराने के लिए चिंतित थीं। 9 वर्ष की आयु में ही उन्होंने नरसिंह का विवाह 7 वर्षीया सरूपवती और सुलक्षणा मणिकगौरी के साथ कर दिया। 16 वर्ष की अवस्था में नरसिंह की पत्नी माणिकगौरी को एक पुत्री कुंवरबाई व दो वर्ष बाद एक पुत्र शामलदास की प्राप्ति हुई।
भगवत प्राप्ति (Divine Achievement Of The Lord)
एक दिन भाभी के उलाहनो से तंग आकर नरसिंह घर से निकल गए व शिवमंदिर में जा कर 7 दिन तक तक बिना खाए पिये भगवान शंकर की आराधना करने लगे, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर सातवें दिन भोले बाबा ने भक्तराज नरसिंह से वर मांगने को कहा।
भक्तराज नरसिंह ने बड़ी विनम्रता से कहा- “मुझे किसी वरदान की जरूरत नहीं पर आपकी आज्ञा है तो आप मुझे वरदान में वो दो, जो आपको अत्यंत प्रिय हो।”
भगवान शंकर ने कहा- “वत्स! तुमने तो वरदान बड़ा ही सुन्दर माँगा। जगत्भर में भगवान श्रीकृष्ण से अधिक प्रिय मेरी दृष्टि में और कोई नहीं है। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करा दूँ।”
भक्तराज नरसिंह ने कहा-“भगवन! यही तो इस असार संसार में सारभूत और दुर्लभ है। फिर जो आपको प्रियातिप्रिय है, उन्हें अप्रिय कौन कह सकता है?”
नरसिंह की ऐसी निष्ठा देखकर शंकर जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने भक्तराज को दिव्यदेह प्रदान कर, उन्हें साथ ले दिव्य द्वारिका के लिए तुरन्त प्रस्थान किया।
भगवान शंकर द्वारिकाधीश के राजमहल में पहुँचे। उस समय वहाँ भगवान की धर्मसभा बैठी हुई थी। राजराजेश्वर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर विराजमान थे। उनकी सभा के सभासद परमभागवत उग्रसेन, बलराम, अक्रूर, उद्धव, विदुर, अर्जुन आदि यथास्थान बैठे थे तथा भगवान की सोलह हज़ार एक सौ आठ पटरानियाँ भी विद्यमान थीं। सभी ने उठकर शंकर जी का स्वागत किया तथा स्वयं श्रीभगवान भी आसन छोड़कर स्वागत के लिए दौड़ पड़े।
जब उन्होंने सदाशिव की विधिवत् पूजा करके आगमन का कारण पूछा तो उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। शंकर जी बोले- “प्रभु! इस भक्त ने मुझे अति प्रसन्न किया है और इसीलिए मैं इस वैष्णव भक्त को आपके पुनीत चरणकमलों में समर्पण करने के लिए लाया हूँ। आप भक्तवत्सल हैं, इस भक्त को भी स्वीकार कीजिए।”
इतना सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक भक्तराज नरसिंह के सिर पर हाथ रखकर उन्हें स्वीकार कर लिया और भगवान शंकर वहाँ से विदा हो गये।
भक्तराज ने अपने अश्रुओं से प्रभु के चरण पखारे। श्रीभगवान बोले- “वत्स! जो मनुष्य मुझे अपना स्वामी समझता है, मैं उसका दास बन जाता हूँ। तुम्हारी नैष्ठिक भक्ति देखकर आज मैं अतिप्रसन्न हुआ हूूँ” और यह कहकर भगवान नेे उन्हें अपनी सेवा में ले लिया।
शरद पूर्णिमा के दिन जब रास हुआ तो भक्तराज ने भी गोपी वेष में अपना राग छेड़ दिया और भगवद्गान में तल्लीन हो गये। श्रीभगवान ने पुरस्कार में नरसिंह को अपना पीताम्बर ओढ़ा दिया। भगवान ने नरसिंह के हाथों में एक दीपक देकर उन्हें रासमण्डल के मध्य खड़ा कर दिया। अकस्मात् दीपक की जलती हुई शिखा उनके हाथ के वस्त्र में लग गयी तथा हाथ जलने लगा। जलते-जलते उनका हाथ मशाल बन गया, परन्तु उन्हें तनिक भी सुधि न रही। मन का सम्बन्ध प्रभु के साथ ऐसा जुड़ा कि अपने शरीर के साथ उनका सम्बन्ध ही ना रहा।
“अन्त में रासलीला समाप्त होने पर स्वयं भगवान की दृष्टि उन पर पड़ी। तुरन्त उन्होंने आगे बढ़कर हाथ की आग को बुझा दिया व नरसिंह की सारी पीड़ा को दूर कर दिया। भक्तराज की इस तन्मयता को देखकर सभी रानियाँ भी आश्चर्यचकित रह गईं तथा माता रुक्मिणी ने तो अपने गले का हार ही उतार कर भक्तराज को पहना दिया।”
इस प्रकार आनन्दोत्सव भगवद् दर्शन व भगवत्सेवा में एक मास बीत गया। एक दिन भगवान ने इनकी सेवा से प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा। धन्य है नरसिंह भक्त जिन्होंने भगवान से माँगा- “प्रभु! मुझे तो अब आप सदा अपने चरणों की सेवा में ही रखें।”
प्रभु ने कहा- “तुम्हारी निष्ठा धन्य है परन्तु जगत् में प्रत्येक गृहस्थ के ऊपर तीन ऋण होते हैं- पहला स्त्री-पुत्रादि का, दूसरा पितरों का और तीसरा देवों का। अतः तुम मेरी आज्ञा से मृत्युलोक में जाकर इन तीनों ऋणों से मुक्त हो जाओ।” भगवान नें उन्हें अपनी एक प्रतिमा और करताल सौंप दी एवं पीताम्बर और मयूरपुच्छ का मुकुट पहना दिया। नरसिंह ने बार-बार भगवान के चरणों में प्रणाम किया व भगवती प्रेरणा से तुरन्त जूनागढ़ अपने भाई वंशीधर के यहाँ जा पहुँचे।
गृह त्याग और प्रभु की शरण (Renunciation From Home And Taking Shelter Of The Lord)
वंशीधर नरसिंह जी को इस वेष में देखकर क्रोधित हो उठे और कहने लगे- “बहुत हो गया अब जाओ कामधंधा कर कुछ कमाओ और इस वेश को त्याग दो।” इस पर नरसिंह भक्त ने भगवद प्रसाद रूप मिली वस्तुओं को उतरने से मना कर दिया और भाइयों में कहासुनी शुरू हो गई इतने में भोजाई भी आ गई और उसने नरसिंह को परिवार सहित घर से निकल जाने का आदेश सुना दिया।
भक्तराज नरसिंह बिना कुछ प्रतिक्रिया किये अपने परिवार को लेकर गाँव से बाहर एक धर्मशाला में जाकर ठहर गए। आधी रात तक भजन करते रहे और प्रेम अश्रुओं से प्रभु के चरण पखारते रहे। तभी भगवान ने अपने दूत को भेजकर अपने भक्त के लिए समस्त सुविधाओं से सज्जित मकान, खाने पीने का व 3 वर्ष का सामान व 5000 स्वर्ण मुद्राएँ नित्य व्यय हेतु व्यवस्था करा दी। सुबह होते ही भक्तराज उस मकान में परिवार सहित चले गए।
नरसिंह भक्त का अब तो सारा समय सत्संग, भजन व कीर्तन में लगने लगा आये दिन संतों साधुओं के भंडारे होने लगे और 6 माह में ही 3 वर्ष की व्यवस्था समाप्त होने को आई। बहुत निश्चिन्त हो भजन ध्यान में अपना पूरा-पूरा मन लगाये रहते। जब-जब भी भक्तराज को गृहस्थ निर्वाह हेतु कोई भी समस्या आती वो चाहे इनकी पुत्री के विवाह के दहेज़ की व्यवस्था हो, पुत्र की शादी के खर्च की व्यवस्था हो, चाहे पुत्र की मृत्यु का कारण सामने आया, चाहे पिता के श्राद्ध के व्यय की व्यवस्था सामने आई, पत्नी के निधन की बात हो, उन्होंने एक मात्र प्रभु पर पूरा-पूरा भरोसा रखा, भजन कीर्तन सत्संग नहीं छोड़ा। इस प्रकार भक्तराज के लिए भगवान को 52 बार उनके कार्य पूर्ण करने को स्वयं आना पड़ा ।
अंतिम अवस्था (Last Stage)
अंतिम पांच वर्षों में भक्तराज ने अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते-करते हजारों भक्ति पूर्ण पदों की रचना की और इस प्रकार वे गुजराती भाषा के उच्चकोटि के भक्त कवी कहलाये। जिस प्रकार हिंदी कवियों में जो स्थान भक्त कवि सूरदास को मिला, वही स्थान गुजरती लेखन में भक्त कवि नरसिंह को मिला। 79 वर्ष की अवस्था में भक्तराज नरसिंह मेहता देह त्यागकर परमात्मपद को प्राप्त हो संसार से विदा ले गए।