गोस्वामी तुलसीदास (Goswami Tulsidas)
तुलसीदास जी अवतारी महापुरुष थे। अपना कल्याण कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता, ये तो कोई अवतारी महापुरुष ही कर सकता है। कलियुग में जीवों के कल्याण के लिये महर्षि वाल्मीकि जी ने ही ‘गोस्वामी तुलसीदास’ जी के रूप में जन्म लिया था। इस संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिये आपने सर्व साधारण भाषा में ‘श्रीरामचरितमानस’ रूपी सरल-सुगम-सुन्दर नौका का निर्माण कर भगवन्नाम को घर-घर तक पहुँचाया।
रामबोला का जन्म और बाल्यकाल (Rambola’s Birth And Childhood)
प्रयाग से चित्रकूट के रास्ते में स्थित ‘राजापुर’ गाँव में एक ब्राह्मण दम्पति श्री आत्माराम दुबे व हुलसी देवी के यहाँ इनका जन्म हुआ। श्री आत्माराम जी सर्वगुण सम्पन्न, गाँव के मुखिया एंव राजगुरू थे।
सन्तान सुख से वंचित रहने के कारण पति-पत्नी ने अनेक व्रत-उपवास किये, जिसके फलस्वरूप सम्वत् 1554 श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को तुलसीदास जी का जन्म हुआ। जन्म के समय ही इस बालक में कुछ अदभुत बातें थीं। यह सामान्य शिशुओं की तरह बिल्कुल नहीं रोये, गर्भ से बाहर निकलते ही इन्होंने ‘रा….म’, ‘रा….म’, ‘रा….म’ नाम का उच्चारण किया इसीलिये इनका नाम रामबोला पड़ा, इनके मुँँह में पूरे बत्तीस दाँँत थे जिसकी वजह से इनका उच्चारण स्पष्ट था, पर अज्ञानी संसारी कलयुगी लोगों की बुद्धि ने इन्हें विलक्षण पवित्र महानविभूति न मानकर किसी राक्षस का जन्म माना और इनके कोई भी मांगलिक संस्कार नहीं किये।
विधाता का विधान कहें या बालक का दुर्भाग्य कि इनके जन्म के तीन दिन के अन्दर ही इनकी माँँ का देहान्त हो गया और जाते-जाते वह इस बालक की सुरक्षा व पालन-पोषण का भार अपनी विश्वासपात्र दासी चुनियाँँ को दे गई तथा उसे बहुत सी धन सम्पत्ति देकर राजापुर से बाहर भेज दिया जिससे कि इस बालक को कोई नुकसान न पहुँचा सके।
अभी रामबोला पाँच वर्ष पाँच महीने के ही थे कि इनका पालन-पोषण करने वाली माँ चुनियाँ का भी देहान्त साँप के डसने से हो गया और बालक रामबोला अनाथ हो गये। इन्हें राक्षस समझ कर कोई भिक्षा भी देने को तैयार नहीं होता बल्कि जिस दरवाजे पर भी जाते लोग मारपीट कर इन्हें वहाँ से भगा देते।
संसार के लोग रामबोला के खिलाफ कुछ न कुछ करते ही रहते। अतः भगवान ने एक लोक-सुलभ उपाय निकाला जिससे उनकी रक्षा की जा सके।
गुरुदेव की कृपा (The Divine Grace Of Mentor)
उन दिनों श्री नरहरिदास जी चित्रकूट में कुटी बनाकर भजन करते थे, भगवान शिव ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर रामचरितमानस की कथा सुनाई और अनाथ रामबोला के बारे में बताकर कहा कि आप उस बालक को लेकर अयोध्या जाइये और ‘श्रीराम’ नाम की दीक्षा देकर मेरे द्वारा कही कथा उसे सुनाइये, आगे चलकर यही बालक सुन्दर छन्दों में श्रीराम नाम के सुयश का वर्णन करके इस लोक का कल्याण करेगा।
श्री नरहरिदास जी से मिलते ही बालक को ऐसा लगा कि साक्षात् भगवान ही नर रूप में उनका मंगल करने के लिये उनके पास आ गये हैं। अपने इस भाव को तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में अभिव्यक्त भी किया है।
‘बन्दउँ गुरू पद कंज, कृपा सिन्धु नररूप हरि।’
श्री नरहरिदास जी इन्हें अपने साथ अयोध्या ले आये और सरयू के तट पर बालक रामबोला का यज्ञोपवीत एंव वैष्णव पंच संस्कार करके श्रीराम मंत्र की दीक्षा दी तथा अपने इस शिष्य का नाम रखा- ‘तुलसीदास’।
श्री नरहरिदास जी के संरक्षण में ही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा आरम्भ हुई। एक महीने के अन्दर ही तुलसीदास जी व्याकरण में पारंगत हो गये। तब शिवजी के आदेशनुसार उन्होंने श्रीरामचरितमानस की कथा सुनाई और तब तक सुनाते समझाते रहते जब तक शिष्य को उसका बोध न हो जाता।
काशी आगमन और अध्ययन (Arrival at kashi And Receiving Spiritual Knowledge)
किसी पुण्यपर्व के अवसर पर श्री नरहरिदास जी शिष्य को लेकर काशी आ गये, जहाँ उनकी आगे की शिक्षा एक बहुत बड़े विद्वान, सिद्ध, ज्ञानवृद्ध संत श्री शेषसनातन जी के संरक्षण में प्रारम्भ हुई। जहाँ मात्र तीन वर्षो के अन्दर ही येे ब्रह्मसूत्र, वेद-वेदान्त, शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, संहिता आदि के गूढ़ रहस्यों को जानने के साथ-साथ काव्य-कला में भी पारंगत हो गये।
मात्र 15 वर्ष की आयु में ही तुलसीदास जी ने अपने गुरू की कृपा से अपने गुरूकुल के विद्यार्थी एंव गाँव वालों को पिशाच के भय से मुक्त कराने के लिये अपने सबसे पहले ग्रन्थ ‘हनुमान चालीसा’ की रचना की, जिसके पाठ से व्यक्ति सदा के लिये निर्भय हो जाता है।
कुछ ही अन्तराल में अपने दीक्षा गुरू, शिक्षा गुरू व पिता के परलोक सिधारने और पत्नी से अपमानित होकर इनके मन में इतना वैराग्य उत्पन्न हुआ कि 20 वर्ष की आयु में ही विरक्त वेश धारण कर सन्यास ले लिया और 14 वर्ष 10 महीने 17 दिन तक अकेले ही पैदल भारत भ्रमण करने के पश्चात वापिस काशीपुरी में निवास किया।
भगवान श्री राम के दर्शन (Divine Sight Of Lord Rama)
काशी में वे नित्य ही भागवत्कथा कहते, जिसे काशी के रसिकजन बड़े प्रेम से सुनते।
नगर से बाहर दक्षिण दिशा में विशाल पीपल का वृक्ष था। तुलसीदास जी शौच-क्रिया के लिए ‘अस्सी’ नदी के पार जाया करते थे। जब शौच करके लौटते तो शेष-जल उसी पीपल के वृक्ष के नीचे गिरा दिया करते, जिसे उस पेड़ पर रहने वाला प्रेत पी लिया करता। संत तुलसीदास जी के शौच के जल को पीकर ही उसके बहुत पाप नष्ट हो गये और उसके अन्दर नवीन शक्ति का संचार हुआ। अतः वह प्रेत तुलसीदास जी के समक्ष प्रकट होकर बोला- ‘मुने ! आप आज्ञा करें, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’
तुलसीदास जी ने कहा-‘क्या तुम मुझे श्री राम के दर्शन करा सकते हो?’
प्रेत बोला- ‘नहीं महाराज ! ये सामर्थ तो मुझमें नहीं है। परन्तु मैं आपको एक उपाय बता देता हूँ। श्री हनुमान जी आपकी कथा सुनने सबसे पहले आते हैं और सबके बाद में जाते हैं। आप सुन्दर अवसर देखकर उनके चरण पकड़ लीजिये। वे अवश्य ही आपको श्री राम के दर्शन करा सकते हैं।’
प्रेत के कथनानुसार तुलसीदास जी ने वैसे ही किया। हनुमान जी ने तुलसीदास जी से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया और वर माँगने को कहा।
तुलसीदास जी ने कहा- ‘आप कृपा करके मुझे भगवान श्री रामचन्द्र जी के सुन्दर भूप-रूप का दर्शन कराइये।’
अब तुलसीदास जी भगवद-दर्शन की लालसा में चित्रकूट धाम पहुँचे। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि- उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास जी उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
मौनी अमावस्या को उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास जी से कहा- ‘बाबा ! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?’ हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा-
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास श्रीराम जी की उस अदभुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।
श्री रामचरितमानस की रचना (Composition Of Shri Ramcharitmanas)
तुलसीदास जी ने भगवान शिवजी, हनुमान जी का आर्शीवाद प्राप्त कर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय, श्री रामचरितमानस को सरल शब्दों में लिखना प्रारम्भ किया। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन के बाद श्रीराम-विवाह के दिन ये ग्रन्थ पूर्ण हुआ। श्रीरामचरितमानस अपने नाम के ही अनुरूप सबके मानस में बस गया।
भगवान श्रीराम की आज्ञा से ही तुलसीदास जी इस ग्रन्थ को लेकर काशी आये। भगवान शिव को उसका एक पारायण सुनाकर उस ग्रन्थ को वहीं शिवलिंग के समीप रखकर मन्दिर के पट बन्द कर दिये। सुबह जब पट खुले तो लोगों ने देखा मानस पर ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ लिखा हुआ है। यह देख लोग उनकी जय जयकार करने लगे।
तुलसीदास जी से ईर्ष्या रखने वाले पण्डितों ने उस ग्रन्थ की चोरी हेतु दो चोरों को इस काम के लिये चुना पर स्वयं भगवान इस ग्रन्थ के सुरक्षा पहरे पर थे अतः उनकी एक न चली। बल्कि भगवान के दर्शन मात्र से उनके सभी पाप धुल गये और वे सब कुकर्म छोड़कर तुलसीदास जी से दीक्षा लेकर भगवन्नाम का जप करने लगे।
कालान्तर में तुलसीदास जी ने ‘गीतावली’ एंव ‘विनयपत्रिका’ की भी रचना की।
मृतक को जीवनदान (Life To The Deceased)
ऐेसे ही एक बार ये अपनी कुटी के द्वार पर बैठकर नाम जप कर रहे थे तभी एक स्त्री ने इनके चरण स्पर्श किये, तुलसीदास जी ने उसे सौभग्यवती होने का आर्शीवाद दिया तब वह स्त्री बोली कि मैं तो अपने मृतक पति के साथ सती होने जा रही हूँ।
तुलसीदास जी ने कहा कि अगर रामजी ने मेरे से यह वचन निकलवाये हैं तो वही इस वचन की रक्षा करेंगें। तुलसीदास जी उस मृतक के कुटुम्बियों सहित श्रीरामनाम का संकीर्तन करने लगे, संकीर्तन पूरा होते ही वह मृतक जीवित हो उठा।
तुलसीदास जी ने उस ब्राह्मण दम्पत्ति को दीक्षा देकर उनका जीवन भक्तिमय बना दिया। इसी तरह तुलसीदास जी ने श्रीरामजी की कृपा से बहुत लोगों को भगवन्नाम की दीक्षा देकर उनका उद्धार किया।
अन्तिम उपदेश (Last Preachings)
महाप्रयाण की शुभ घड़ी निकट जानकर तुलसीदास जी ने अपने समीपस्थ भक्तों से कहा –
रामचन्द्र यश बरनि कै, भयो चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिये अबहीं तुलसी सोन।।
आपका अभिप्राय समझकर भक्तों ने कुछ उपदेश का अनुरोध किया, तब आपने कहा-
अल्प तौं अवधि जीव, तामें बहुत सोच-पोच।
करिबे को बहुत है, काह काह कीजिये।।
पार न पुरान हूँ को, वेद हूँ को अन्त नाहीं।
बानी तो अनेक, चित्त कहाँ-कहाँ दीजिये।।
काव्य की कला अनन्त, छन्द को प्रबन्ध बहु।
राग तो रसीले, रस कहाँ-कहाँ पीजिये।।
लाखन में एक बात, तुलसी बताये जात।
जनम जौं सुधारा चाहौ, राम-नाम लीजिये।।
इस तरह तुलसीदासजी ने भगवान की महिमा पर इतने ग्रन्थ लिखने के बाद भी इस संसार सागर से पार जाने का आसान तरीका “नाम जप” को ही बताया।
कुछ ही दिनों बाद काशी में तुलसीदास जी ने अपना शरीर त्याग दिया।
संवत सोरह सै असी असी गंग के तीर।
श्रावण श्यामा तीज भानि तुलसी तज्यो सरीर।।