श्री मनोहर दास बाबाजी (Shri Manohar Das Baba Ji)
श्री भोलानाथ महाशय की पत्नी सुन्दरी के गर्भ से महेन्द्र नामक एक पुत्र का जन्म सन् 1847 की कार्तिक शुक्ल पंचमी को माधवपुर ग्राम में हुआ। शिशुकाल में ही मातृदेवी का परलोक-गमन हुआ। छः वर्ष की आयु में महेन्द्र ने स्वप्न देखा कि एक साधु उसे घर से बाहर निकालकर वन में ले गये और वन के चारों ओर आग लगा दी। तभी से उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी। उन्होंने समझ लिया कि संसार एक वन है, जिसके चारों ओर आग लगी है। उसकी भीषण लपटों से परित्राण पाने के लिये श्रीहरि की शरण लेना आवश्यक है।
तेरह वर्ष की आयु में पितृ-वियोग के पश्चात् उन्होंने अद्वैत वंश के श्रीपाद नन्दकिशोर गोस्वामी से दीक्षा मंत्र और उसके पश्चात् नवद्वीप के बड़े अखाडे़ के श्रीरूपदास बाबा से वेश ग्रहण किया। वेश का नाम हुआ श्री मनोहरदास।
कुछ दिन नवद्वीप रह मनोहरदास बाबा ने सिद्ध श्रीचतैन्यदास बाबा और बड़े अखाडे़ के पण्डित श्री नरोत्तमदास बाबा जी महाराज का संग किया। कालना के सिद्ध श्री भगवान दास बाबा के भी दर्शन किये। सन् 1881 में वृन्दावन की यात्रा की। तत्पश्चात् कुसुमसरोवर, काम्यवन और नन्दग्राम में रहकर भजन किया। अन्त में 1883 के लगभग स्वप्नादेश प्राप्तकर गिरिराज-तटवर्ती गोविन्दकुण्ड में जाकर भजन करने लगे। कुछ दिन पश्चात् वहीं एक गुफा निर्माण कर उसमें रहने लगे।
श्री मनोहरदास बाबाजी निरन्तर हरिनाम करते। अष्टकालीन लीला-स्मरण में सदा आविष्ट रहते। सोते बहुत कम, बिछौना भी नहीं के बराबर रखते। आहार में होती मधुकरी के आटे की रोटी और नीम के पत्तों का रस। अन्त के कुछ दिनों में वह भी नहीं। केवल दूध, बहुत अल्प मात्रा में। बाहर के जगत् से कोई सम्बन्ध नहीं। एक मन्दिर का निर्माणकर मदनमोहन की सेवा चलायी अवश्य, पर मन्दिर की सेवा परिचालनादि से उदासीन रहे। वे लोक संग त्यागकर एकाकी समय व्यतीत करते। बोलते बहुत कम, शिष्यादि करने की बात होती, तो अस्थिर हो जाते। जिसको देखते उसे दण्डवत् करते। सदा आत्मनिंदा करते।किसी को चरण स्पर्श न करने देते। चरणधोते समय चरणों का जल घिसकर रज में मिला देते, कहीं उस जल को चरणामृत के रूप में ग्रहण न कर ले, इसलिए।
भजनावेश के कारण बाबा शरीर की तरफ तो ध्यान देते ही नहीं। मच्छरों से परेशान हो दूसरे साधु मसहरी का व्यवहार करने को बाध्य होते पर बाबा से कोई मसहरी लगाने को कहता, तो कहते- ‘क्यों भाई! मच्छर हमारा क्या बिगाड़ता है? वह तो अधिक निंद्रा आने में बाधा डालकर भजन में हमारी सहायता ही करता है।’
एक बार ब्रज में दारुण शीत पड़ी। ललिताकुण्ड में बर्फ तैरने लगी। बाबा के पास ओढ़ने के लिए एक फटी पिछौरी के सिवा और कुछ नहीं। रात्रि में भजन करते समय उनका शरीर थर-थर काँपने लगा। भजन में निविष्टता न होते देख उन्हें शरीर पर क्रोध आया। उसी समय कुण्ड के बरफीले पानी में जाकर खूब स्नान किया। निकट में नवद्वीपदास बाबा रहते थे। उन्होंने अर्धरात्रि में कुण्ड में स्नान करने का कारण पूछा, तो बोले- ‘‘देह बड़ा पौशाकी हो गया’’ अर्थात् लिहाफ और रजाई माँगने लगा है।
किसी वैष्णव ने उनसे पूछा- भजन में जो विघ्न आते हैं, उन पर कैसे काबू पाया जा सकता है?
उत्तर में उन्होंने कहा- ‘प्राणों की बाजी लगाकर भजन के लिए चेष्टा करने से भजन में आये सभी विघ्न दूर हो जाते हैं। साधक की सरलता व एकान्तिक चेष्टा देखकर परमात्मा प्रसन्न होते हैं और भजन का दरवाजा खोल देते हैं। यह एक दिन में नहीं होता। विघ्न भजन करते-करते क्रमशः अन्तर्धान होते हैं; भजन में जैसे दृढ़ता और एकान्तिकता की आवश्यकता है, वैसी ही धैर्य और सहिष्णुता की। भजन के लिए उपयुक्त अवस्था में चित्त को रखना बड़ा कठिन है। जड़ वस्तु से आसक्ति जाये बिना चित्त शुद्ध नहीं होता, भक्ति नहीं होती। भक्ति हुए बिना चिद्वस्तु के स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। भजन के प्रभाव से जैसे-जैसे जड़ीय संस्कारों का क्षय होता है, वैसे-वैसे चित्त निर्मल होता है और विघ्न दूर होते हैं।
सन् 1987 की श्रावणी शुक्ल त्रयोदशी को बाबा ने अप्राकृतिक लीला में प्रवेश किया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।