Spirtual Awareness

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।।10।।

श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 10 | Bhagavad Gita Chapter 7) –

हे पार्थ! सम्पूर्ण प्राणियों का सनातन (अविनाशी) बीज मैं ही हूँ अर्थात् सबका कारण मैं ही हूँ। सम्पूर्ण प्राणी बीज रूप मेरे से उत्पन्न होते हैं, मेरे में ही रहते हैं और अन्त में मेरे में ही लीन होते हैं। मेरे बिना प्राणी की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।

जितने बीज होते हैं, वे सब वृक्ष से उत्पन्न होते हैं और वृक्ष पैदा करके नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यहाँ जिस बीज का वर्णन है, वह बीज ‘‘सनातन’’ है अर्थात् आदि-अन्त से रहित (अनादि एवं अनन्त) है। इसी को (9/18) में  ‘अव्यय बीज’ कहा गया है। यह चेतन तत्त्व अव्यय अर्थात् अविनाशी है। यह स्वयं विकाररहित रहते हुये ही सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, आश्रय और प्रकाशक है तथा जगत् का कारण है।

बुद्धिमानों में बुद्धि मैं हूँ । बुद्धि के कारण ही वे बुद्धिमान कहलाते हैं। अगर उनमें बुद्धि न रहे तो उनकी बुद्धिमान संज्ञा ही नहीं रहेगी।

तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। यह तेज देैवी सम्पत्ति का एक गुण है। तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों में एक विशेष तेज-शक्ति रहती है, जिसके प्रभाव से दुर्गुण-दुराचारी मनुष्य भी सदगुण-सदाचारी बन जाते हैं। यह तेज भगवान का ही स्वरूप है।

भगवान ही सम्पूर्ण संसार के कारण हैं, संसार के रहते हुये भी वे सब में परिपूर्ण हैं और सब संसार के मिटने पर भी वे रहते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सब कुछ भगवान ही हैं। इसके लिये उपनिषदों में दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे- सोने से बने हुए सब गहने सोना ही हैं, मिट्टी से बने हुए सब बर्तन मिट्टी ही हैं और लोहे से बने हुए सब अस्त्र-शस्त्र लोहा ही हैं, ऐसे ही भगवान से उत्पन्न हुआ सब संसार भगवान ही है।

गीता में भगवान ने कहा कि- सम्पूर्ण संसार का बीज मैं हूँ अर्थात् भगवान ने कहा है कि मैं अनादि बीज हूँ, पैदा हुआ बीज नहीं हूँ। संसार में तो बीज वृक्ष से पैदा होता है और वृक्ष को पैदा करके स्वयं नष्ट हो जाता है अर्थात् बीज से अंकुर निकल आता है, अंकुर से वृक्ष हो जाता है और बीज स्वयं मिट जाता है और फिर वृक्ष पर बीज निकल आते हैं। भगवान इनसे विलक्षण सनातन बीज हैं और अविनाशी बीज हैं।(7/10, 9/18) अविनाशी बीज कहने का तात्पर्य यह है कि संसार मेरे से पैदा हो जाता है, परन्तु मैं मिटता नहीं हूँ, जैसा का तैसा ही रहता हूँ।(श्रीमद्भागवत 10/3/25)

भगवान यहाँ बीजं मां सर्वभूतानां” कहकर सबको यह ज्ञान कराते हैं कि तुम्हारे को जितना यह संसार दीखता है, इसके पहले मैं ही था, मैं एक ही प्रजा रूप से बहुत रूपों में प्रकट हुआ हूँ (छान्दोग्य 6/2/3) और इनके समाप्त होने पर मैं ही रह जाता हूँ। तात्पर्य है कि पहले भी मैं ही था और पीछे भी मैं ही रहता हूँ, तो बीच में भी मैं ही हूँ ।

विचार करें कि इन शरीरों के मूल में क्या है ? माँ-बाप में जो रज-वीर्य रूप अंश होता है, जिससे शरीर बनता है, वह अंश अन्न से पैदा होता है, अन्न मिट्टी से पैदा होता है। अतः यह शरीर मिट्टी से ही पैदा होता है और अन्त में मिट्टी में ही लीन हो जाता है। अन्त में शरीर की तीन गतियाँ होती हैं- चाहे जमीन में गाढ़ दिया जाये, चाहे जला दिया जाये, चाहे पशु-पक्षी खा जायें। तीनों ही उपायों से वह अन्त में मिट्टी हो जाता है। इस तरह पहले और आखिर में मिट्टी होने से बीच में भी शरीर या संसार मिट्टी ही है। परन्तु बीच में यह शरीर या संसार देखने में मिट्टी नहीं दीखता। विचार करने से ही मिट्टी दीखता है, आँखों से नहीं। इसी तरह यह संसार विचार करने से ही परमात्म-स्वरूप दीखता है। विचार करें तो जब भगवान ने यह संसार रचा तो कहीं से कोई सामान नहीं मँगवाया, जिससे संसार को बनाया हो और बनाने वाला भी दूसरा नहीं हुआ है। भगवान आप ही संसार को बनाने वाले हैं और आप ही संसार बन गये। शरीरों की रचना करके आप ही उनमें प्रविष्ट हो गए। -(तैत्तिरीयोपनिषद 2/6) इन शरीरों में जीवरूप से भी वे ही परमात्मा हैं। अतः यह संसार भी परमात्मा का स्वरूप ही है।

परिशिष्ट भाव-

सृष्टि की एक-एक वस्तु में अनेक भेद हैं। विभिन्न देशों में मनुष्यों की अनेक जातियाँ हैं। उनमें भी इतना भेद है कि दो मनुष्यों के अंँगूठे की रेखायें भी परस्पर नहीं मिलती, उनके रूप, स्वभाव, रुचि, प्रकृति, मान्यता, भाव आदि भी परस्पर नहीं मिलते। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, ऊंट, कुत्ता आदि की अनेक जातियाँ हैं और उनकी एक-एक जाति में भी अनेक भेद हैं। वृक्षों में भी एक-एक वृक्ष की अनेक जातियाँ होती हैं। एक-एक विद्या को देखें तो उसमें इतने भेद हैं कि उनका अन्त नहीं आता। मूल रंग तीन हैं, पर उनके मिश्रण से अनेक रंग बन जाते हैं। उनमें भी एक-एक रंग में इतने भेद है कि दो व्यक्तियों को भी एक रंग समान रूप से नहीं दीखता। इस प्रकार सृष्टि में एक समान दीखने वाली दो चीजें भी वास्तव में समान नहीं होती। इतनी अनेकता होने पर भी सृष्टि का बीज एक ही है। तात्पर्य है कि एक ही भगवान अनेक रूपों में प्रकट होते हैं और अनेक रूपों में प्रकट होने पर भी एक ही रहते हैं।

भगवान देशकाल आदि सभी सृष्टियों से अनन्त हैं। जब भगवान की बनाई हुई सृष्टि का भी अन्त नहीं आ सकता तो फिर भगवान का अन्त आ ही कैसे सकता है? आज तक भगवान के विषय में जो कुछ सोचा गया है, जो कुछ कहा गया है, जो कुछ लिखा गया है, जो कुछ माना गया है, वह पूरा का पूरा मिलकर भी अधूरा है। इतना ही नहीं भगवान भी अपने विषय में पूरी बात नहीं कह सकते, अगर कह दें तो अनन्त कैसे रहेंगे?

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।