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विदुर एवं उनकी पत्नी सुलभा का भगवद्-प्रेम (Vidhur Ji & Sulbha’s Unconditional Love For Lord Krishna)

vidura jiराजा परीक्षित शुकदेव मुनि से भगवान के परम भक्त विदुरजी के बारे में पूछ रहें हैं कि विदुरजी ने अपने भाई बंधुओं को क्यों छोड़ा? और फिर बाद में उनके पास लौट क्यों आए? भगवान मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ? शुकदेव जी कहते हैं कि सबसे पहले आपको वह प्रसंग बताता हूँ जब आमंत्रण पाए बिना ही भगवान विदुरजी के घर गए थे।

विदुर जी महाभारत के समय के महत्वपूर्ण पात्रों में से एक हैं। व्यास जी के पुत्र होने के कारण ये धृतराष्ट्र व पांडु के छोटे भाई थे। परंतु इनकी माता परिश्रमी एक दासी थीं। अतः विदुर जी को परिवार में वह सम्मान नहीं मिलता था जिसके वह योग्य थे। विदुर जी धृतराष्ट्र के प्रमुख सलाहकार व प्रधान मंत्री थे।

यह उस समय की बात है जब धृतराष्ट्र ने पांडवों को लाक्षागृह में जला देने का प्रयत्न किया था। दु:शासन ने भरी सभा में पांडवों की पत्नी द्रौपदी का चीरहरण कर उसका अपमान किया था। दुर्योधन ने जुएमें धोखे से युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया और उन्हें वन में भेज दिया, किंतु वन से लौटने पर उनका न्यायोचित पैतृक भाग भी उन्हें नहीं दिया। तब विदुर जी ने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को न्याय व धर्म की बात समझाई परंतु पुत्र-मोह में अंधे धृतराष्ट्र ने उनकी एक ना मानी और वह अपने पुत्र की ही तरफ़दारी करता रहा। भरी सभा में दुर्योधन ने विदुर जी का बहुत अपमान किया व उन्हें अपशब्द कहे। विदुर जी निंदा व अपमान से विचलित नहीं हुए क्योंकि उन्हें अपने प्रभु श्रीकृष्ण का सहारा था। विदुर जी ने सोचा कि धृतराष्ट्र दुष्ट हैं और इन पिता-पुत्र का संग करने से उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाएगी। अतः उन्होने धृतराष्ट्र का संग छोड़ दिया।

विदुर जी का सात्विक जीवन (Vidhurji’s Pure Disciplined Life (Sattvik Jeevan) And Longing (Wait) For Lord Krishna)

vidur ji and sulbha jiविदुर जी अपनी पत्नी सुलभा के साथ समृद्ध घर का त्याग करके वन में चले गए। वे दोनों नदी किनारे एक कुटिया बना कर रहने लग गए व तपश्चर्या करने लगे। वे हर रोज़ तीन घंटे प्रभु का कीर्तन व तीन घंटे प्रभु की सेवा करने लगे। बारह वर्ष तक वे इस प्रकार प्रभु की आराधना करते रहे। भूख लगने पर वे केवल भाजी खाते थे, अन्न नहीं खाते थे। भाजी यानी सादा, सात्विक भोजन, ताकि आलस्य निद्रा ना आए और श्री भगवान का भजन निर्विघ्न कर सकें।

विदुर जी ने सुना कि द्वारिकानाथ पांडवों व कौरवों में संधि कराने हस्तिनापुर आ रहे हैं। धृतराष्ट्र व दुर्योधन एक महीने से श्री कृष्ण के आगमन की तैयारी कर रहे हैं, छप्पन भोग भी बनवाए हैं परंतु मन में कुभाव है। कुभाव मन में रख कर की गई सेवा से प्रभु प्रसन्न नहीं होते। गंगास्नान के समय विदुर जी ने सुना कि कल रथयात्रा निकल रही है। वे बड़े प्रसन्न हुए उन्होने घर आकर सुलभा से कहा क़ि-“मैंने कथा में सुना है जो बारह वर्ष तक सतत् सत्कर्म करे उस पर भगवान प्रसन्न होते हैं, जो बारह वर्ष तक एक ही स्थान पर रहकर जप करे उसको भगवान दर्शन देते हैं। मुझे ऐसा लग रहा है द्वारिकानाथ दुर्योधन के लिए नहीं, मेरे लिए ही आ रहे हैं।”

इधर सुलभा पति से पूछती हैं कि उनका प्रभु से कोई परिचय भी है या बस यों ही उम्मीद लगाए बैठे हैं?

विदुर जी कहते हैं कि जब वे श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं तो प्रभु उन्हें चाचाजी कहते हैं।

विदुर जी कहते हैं- “प्रभु मैं तो आपका दास हूँ, मुझे चाचाजी ना पुकारिए।” तात्पर्य यह है कि जब जीव नम्र होकर भगवान की शरण में जाता है तो भगवान भी उसका सम्मान करते हैं। सुलभा ने भी स्वप्न में रथयात्रा के दर्शन किए थे। अब तो उनकी यही इच्छा है कि भगवान प्रत्यक्ष दर्शन दें व उनके सामने बैठ कर भोजन करें।

विदुर जी कहते हैं कि उनके आमंत्रण को प्रभु अस्वीकार तो नहीं करेंगे परंतु उनकी इस झोपड़ी में प्रभु को कष्ट होगा। महल में भगवान सुख से रहेंगे, छप्पन भोग ग्रहण करेंगे, उनके पास तो भाजी के सिवाय कुछ नहीं है। वे अपने सुख के लिए भगवान को तनिक भी कष्ट नही देना चाहते। परंतु सुलभा कहती हैं कि हमारे घर में चाहे सांसारिक वस्तुओं की कमी है पर हमारे ह्रदय में भगवान के लिए अपार प्रेम है। हम वही प्रेम प्रभु के चरणों में समर्पित कर देंगे।

अगले दिन-श्री भगवान रथ में विराजमान हुए। रथयात्रा का प्रारंभ हुआ। लोगों की भीड़ में विदुर सुलभा भी खड़े हैं। भगवान का रथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। भगवान ने विदुर चाचा को देखा, वे सुलभा की तरफ देख कर मुस्कुराए। विदुर सुलभा के नेत्रों से अश्रुपात हो रहा है। भगवान का भी दिल भर आया। सुलभा ने सोचा विदुर जी तो संकोचवश निमंत्रण नहीं दे रहें हैं परंतु मैं प्रभु को मन से आमंत्रित करती हूँ। प्रभु ने आखों ही आखों में कहा कि मैं आपके घर आऊंगा पर अति आनंद में डूबे हुए विदुर जी भगवान का संकेत समझ ही ना पाए।

lord krishnaश्री कृष्ण का कौरवों की सभा में शांतिदूत बन कर जाना (Lord Krishna As The Messenger Of Peace For Reconciliation Between Pandavas & Kauravas )

श्री कृष्ण हस्तिनापुर पहुँचे। परंतु यह सुनते ही कि वे द्वारिकाधीश की हैसियत से नहीं, पांडवो का दूत बन कर वहाँ आए हैं, दुर्योधन ने उनका अपमान कर दिया। दुर्योधन ने कहा कि भीख माँगने से राज्य नहीं मिलता। वह सुईं की नोक जितनी भूमि भी पांडवो को नहीं देगा और वह युद्ध के लिए तैयार है। धृतराष्ट्र ने प्रभु को भाइयों के झगड़े से दूर रह कर भोजन ग्रहण करने के लिए कहा परंतु श्री कृष्ण ने यह सोच कर कि इन पापियों के घर का अन्न खाने से उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाएगी, भोजन करने से इनकार कर दिया। द्रोणाचार्य सहित अनेक राजाओं ने श्री भगवान से अपने घर चलने को कहा परंतु प्रभु ने यह कह कर, कि उनका एक प्रिय भक्त गंगा किनारे उनका इंतजार कर रहा है सभी को मना कर दिया।

इधर विदुर जी सोच रहे हैं मैं अपात्र ही रह गया तभी प्रभु मेरे घर नहीं आते। सुलभा भी बड़ी ही कातरता और आर्द्रता से भगवान की प्रतीक्षा कर रही हैं। श्री भगवान का वास ना तो बैकुंठ में है और ना ही योगियों के हृदय में। प्रभु वहीं रहते हैं जहाँ उनके भक्त प्रेम से आर्द्र हो कर उनका कीर्तन करते हैं।

प्रेम के वशीभूत हो श्री कृष्ण का विदुर जी के घर आगमन (Lord Krishna’s Surprise Visit At Vidurji’s Home To Please & Bless Him)

झोपड़ी में विदुर सुलभा भगवान के नाम का कीर्तन कर रहे हैं। किंतु वे नहीं जानते कि वे जिनका कीर्तन कर रहे हैं, वह आज साक्षात उनके द्वार पर खड़े हैं। जो परमात्मा के लिए जीता है, परमात्मा उसके घर स्वयं आते हैं। बिना बुलाए ही भगवान आज विदुर जी के द्वार पर खड़े हैं। प्रभु को प्रतीक्षा करते दो घंटे बीत गए परंतु यह कीर्तन तो पूर्ण होने में ही ना आता था। व्याकुल हो कर कन्हैया ने द्वार खटखटाया और बोले,”चाचाजी! द्वार खोलिए मैं आ गया हूँ।”

 viduraniविदुर जी बोले-“देवी! लगता है द्वारिकानाथ आए हैं।” द्वार खोलने पर चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए।

अति हर्ष के आवेश में विदुर सुलभा आसन भी ना दे सके तो प्रभु ने स्वयं अपने हाथों से आसन बिछाया व उन्हें भी पास में बिठा लिया। भगवान ने कहा,“चाचाजी मैं भूखा हूँ, मुझे कुछ खाने को दो।” विदुर जी हतप्रभ रह गए कि प्रभु ने दुर्योधन के घर नहीं खाया।

प्रभु बोले- “चाचाजी जहाँ आप नहीं खाते, वहाँ मैं भी नहीं ख़ाता।”

पति पत्नी को संकोच हुआ कि प्रभु को भाजी कैसे खिलाएँ? दोनों को कुछ सूझ नहीं रहा था। इतने में द्वारिकानाथ ने चूल्हे से भाजी का बर्तन उतार लिया व उसे खाने भी लगे। स्वादिष्टता और मित्रता वस्तु में नहीं, प्रेम में है। शत्रु की हलवा पूड़ी भी विष जैसी लगती है। भगवान को दुर्योधन के छप्पन भोग, मिष्ठान अच्छे नहीं लगे, परंतु प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने विदुर जी की भाजी खाई।

दुर्योधन के मेवा त्याग्यो, साग विदुर घर खाई। सबसे ऊंची प्रेम सगाई।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।