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दक्ष प्रजापति व सती की कथा (Story Of Prajapati Daksha And Sati)

स्वायम्भुव मनु की तीन पुत्रियाँ थीं – अकुति, देवहूति और प्रसूति। इनमें से प्रसूति का विवाह दक्ष नाम के प्रजापति से हुआ। दक्ष को 16 कन्याओं की प्राप्ति हुई। इनमें से एक थी ‘सती’ जिनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ था, उनको किसी संतान की प्राप्ति नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने युवावस्था में ही अपने पिताजी के यहाँ देह का परित्याग कर दिया था।

विदुर जी ने कहा- कोई महिला ससुराल में देह त्याग करे तो बात समझ आती है, उसको प्रताड़ना दी गई होगी। लेकिन पिता के घर में आत्महत्या कर ले, ये बात समझ में नहीं आती।

मैत्रय जी कहते हैं – एक बार देवताओं की बड़ी सभा लगी हुई थी। दक्ष जो सती के पिता हैं, उस सभा के सभापति थे। दक्ष जब सभा में आये, सभी लोग उठकर खड़े हो गये। दो लोग उठकर खड़े नहीं हुए। ये थे भगवान शंकर और ब्रह्मा जी।

दक्ष द्वारा शिव जी का अपमान (Lord Shiva’s Insult By Daksha)

daksha yagyaदक्ष ने सोचा चलो ब्रह्मा जी तो पिता हैं वे खड़े नहीं हुए तो क्या हुआ पर शंकर जी तो दामाद हैं और दामाद पुत्र के समान होता है। दक्ष ने सोचा- मेरे आने पर ये खड़ा नहीं हुआ, ये कितना उद्दंड है। मैंने तो अपनी मृगनयनी बेटी का विवाह इस मरकट-लोचन के साथ कर दिया इसको तो कोई सभ्यता, शिष्टाचार ही नहीं। इस तरह से दक्ष ने भगवान शिव को बहुत अपशब्द बोले और खूब गाली-गलोच किया।

अब प्रश्न उठता है- दक्ष की सभा में शिवजी उसके सम्मान के लिए क्यों नही उठे? तो इसका उत्तर है शिवजी का उद्देश्य दक्ष का अपमान करना नहीं था, वे तो भगवान के ध्यान में ऐसे निमग्न बेठे थे की उनको पता ही नहीं लगा दक्ष कब आया? जब दक्ष गाली देने लगा तब उनका ध्यान टूटा। तब उन्होंने देखा दक्ष अत्यंत क्रोधित होकर उन्हें गाली दे रहा है।

यही है आत्मानिष्ठ महापुरुष की पहचान। अगर अनजाने में कोई मर्यादा का उलंघन हो जाये तो उसके परिणामस्वरूप समाज तो कुछ न कुछ बोलेगा ही, उनके बोलने पर भी महापुरुष की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।

इसी तरह यहाँ भी दक्ष गाली दे रहा है, शिवजी अपने ध्यान में बैठे हैं। उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं। न ही उन्होंने कोई जवाब दिया।

जब दक्ष ने देखा की उसकी गाली देने के बाद भी शिवजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है, तब उसने हाथ में जल लेकर शाप दे दिया- ‘आज के बाद किसी यज्ञ में तुम्हारा हिस्सा नहीं होगा।’ भगवान शिव तब भी कुछ नहीं बोले। दक्ष ऐसा शाप देकर सभा से चला गया।

नन्दीश्वर द्वारा दक्ष को शाप (Nandishwar Curses Daksha)

nandiउसके बाद नन्दीश्वर को क्रोध आ गया। उन्होंने दक्ष को शाप दे दिया- मेरे आराध्य को अकारण शाप दिया। तू इतनी देर से “मैं- मैं” कर रहा है- “मैं शिव का ससुर हूँ, मैं सभापति हूँ।” अगले जन्म में इसको बकरे का जन्म मिलेगा, फिर जीवन भर मैं-मैं करेगा।

ये बात हम सबके लिए है- यदि हम ज्यादा मैं-मैं करते हैं तो अगला जन्म किसका मिलेगा? बकरी या बकरा बनना पड़ेगा।

नन्दीश्वर ने दूसरा शाप ब्राह्मणों को दे दिया- तुम लोग दक्ष जैसे दुष्ट के यहाँ यज्ञ करने आये हो, तुम्हारी विद्या केवल जीविका के लिये रह जायगी। तुमको ज्ञान कभी नहीं होगा।

भृगु ऋषि द्वारा गणों को शाप (Rishi Bhrigu Imprecates The Ganas)

अब ब्राह्मणों के गुरु भृगु ऋषि बड़े क्रोधित हुए। वो बोले- हमनें क्या किया? हमें तो अकारण ही शाप दे दिया। उन्होंने भगवान शंकर के गणों को शाप दे दिया- जितने भगवान शंकर के भक्त हैं, सब पाखंडी हो जायेंगे। न स्नान करेंगे, न ठीक से पूजा करेंगे, भांग खायेंगे और हड्डियों की माला पहनेंगे। ये सब चीजें तामसी हैं।

आज जो हमें शिव भक्त गांजा पीते, शमशान की राख लपेटे, हड्डियों की माला पहने दीखते हैं वे शाप के कारण।भगवान शंकर तो एकदम सात्विक हैं। क्या वे अपने भक्तों को इन तामसिक प्रवत्तियों के लिये अनुमति देंगे? उन्होंने अनुमति नहीं दी! ये तो भृगु जी का शाप लगा हुआ है।

भगवान शंकर ने देखा शापा-शापी बढ़ रही है। अब यहाँ से चलना ठीक है। उन्होंने गणों को संभाला और कैलाश चले गये।

दक्ष द्वारा यज्ञ-आयोजन (The Sacred Yajna By Daksha)

दक्ष ने कनखल क्षेत्र में यज्ञ का आरम्भ किया। उसने ऐसा दुराग्रह किया कि यज्ञ में, मैं विष्णु की तो पूजा करूँगा पर शिव जी की नहीं। देवों ने उससे कहा कि तेरा यज्ञ सफल नहीं होगा। फिर भी उसने दुराग्रह से यज्ञ किया। इस तरह दक्ष ने भगवान विष्णु, ब्रह्माजी और देवराज इंद्र को निमंत्रण दिया पर शिव जी को निमंत्रण नहीं दिया।

सती एवं शिवजी संवाद (A Dialogue Between Lord Shiva & Sati)

हरिद्वार में कनखल नामक स्थान पर यज्ञ का आयोजन है। सारे देवता कैलाश पर्वत से होकर आ रहे हैं तो सती और भगवान शंकर को प्रणाम करके जा रहे हैं।

सती ने पूछा- कहाँ जा रहे हो?

उन्होंने कहा- तुम्हारे पिता के घर यज्ञ है और तुम हमसे पूछ रही हो, कहाँ जा रहे हो?

shiv and satiदेवता चले गये, इधर सती ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। बोलने में तो चतुर हैं, कहती हैं- प्रभो ! आपके ससुर के यहाँ इतने बड़े यज्ञ का आयोजन हो रहा है। ये भी कह सकती थीं कि मेरे पिता के यहाँ यज्ञ हो रहा है। अर्थ दोनों के एक ही हैं। लेकिन सती कहती हैं- “आपके ससुर के यहाँ” जिससे आपका संबध ज्यादा जुड़ जाये तो शायद चल पड़े। बोलने की चतुराई है।

भगवान शिव मौन हैं। वे जानते हैं क्या घटना हुई है। बताने से सती को सिर्फ दुःख ही होगा। सती कहती हैं- निमंत्रण नहीं मिला, इसलिए शायद आप जाना नहीं चाहते हैं। शास्त्रों में विधान है- गुरु के यहाँ, पिता के यहाँ और मित्र के यहाँ बिना निमंत्रण के भी जा सकते हैं। जब सती भगवान शिव को शास्त्र का विधान बताने लग गई तो भगवान शंकर को हँसी आ गई। भगवान शंकर सोचने लग गये- सारे संसार को उपदेश मैं करता हूँ। आज ये सती मुझे शास्त्र का विधान बता रही है।

शिवजी ने सती को समझाया- देवी ! तुम ठीक कहती हो- गुरु के यहाँ, पिता के यहाँ और मित्र के यहाँ बिना निमंत्रण के जा सकते हैं। पर यदि जानबूझकर निमंत्रण नहीं दिया गया हो तो बिल्कुल नहीं जाना चाहिये, क्योंकि उसके अन्दर कोई न कोई द्वेष है। वहाँ जाने से भलाई नहीं होगी। अत: मेरी सलाह है- तुमको अपने पिता के यहाँ इस समय नहीं जाना चाहिये।

इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गये। क्योंकि पता है- दक्ष पुत्री है- अपनी बुद्धि बहुत चलाती है,पता नहीं मानेगी या नहीं।

सती के अन्दर द्वन्द्व चल रहा था। पति की याद आये तो अन्दर, पिता की याद आये तो बाहर। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ? ऐसे अन्दर बाहर कर रहीं थी। फिर उनको गुस्सा आ गया। भगवान शंकर की और लाल-लाल नेत्रों से देखते हुए, बिना बताये चल पड़ीं।

भगवान शंकर ने गणों को आदेश दिया- तुम्हारी मालकिन जा रही है, तुम भी साथ में जाओ। नंदी को ले जाओ और सामान भी ले जाओ, क्योंकि ये अब लौटने वाली नहीं है।

देखिये भगवान शंकर अपनी पत्नी को नहीं समझा पाये। आपकी पत्नी आपकी बात न माने तो दुखी मत होना सोच लेना, ये तो सृष्टी की परम्परा है- ब्रह्मा जी अपने बेटों को नहीं समझा पाये, शंकर जी अपनी पत्नी को नहीं समझा पाये तो आप क्यों दुखी होते हो? ये दुनिया ऐसे ही चलती है।

सती द्वारा देह त्याग (Sati Leaves Her Body In Anger)

सती चली गई। भगवान शंकर को कोई चिंता नहीं, वे ध्यान में बैठ गये।

अपने पिता दक्ष के यहाँ जाकर सती ने देखा भगवान शंकर का कोई हिस्सा नहीं था। भगवान शिव का अपराध किया गया है, यह सोचकर सतीजी को क्रोध आया और उन्होंने अपने पिता से कहा- मूर्ख पिता ! क्या महादेव जैसे देवता दुनिया में हैं?

mata sati jiसती ने कहा- दक्ष ! तुमको छोड़कर इस विश्व में कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो शिव का विरोधी होगा। कोई विष्णु का विरोधी हो सकता है, ब्रह्मा का विरोधी हो सकता है, पर शिव का विरोधी तो रावण भी नहीं था, कुम्भकर्ण भी नहीं था, जरासंध भी नहीं था, हिरण्यकशिपु भी नहीं था। ये सब शिव भक्त थे। शिव इतने दयालु इतने कृपालु हैं की अपने भक्तों के लिये अपना सब-कुछ दे देते हैं, अपना भी ध्यान नहीं रखते। तुमने उनका विरोध किया।

शास्त्र में लिखा है- जहाँ गुरु का और भगवान का विरोध हो रहा है, तो कानों में उंगली लगाकर वहाँ से चले जाओ। जो सुनेगा और विरोध नहीं करेगा, उसको भी पाप का भागी बनना पड़ता है।

सती कहती हैं- मैं तेरी जीभ तो नहीं काट सकती पर अब मैं लौटकर कैलाश भी नहीं जा सकती।

शिव तो परम दयालु हैं, वे तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु दुष्ट दक्ष! ये शरीर तेरा दिया हुआ है। तेरे जैसे दुष्ट के दिये शरीर से मैं वहाँ नहीं जा सकती। वो मुझे दक्ष-पुत्री कहकर बुलायेंगे तो मेरे लिये मरने के समान हो जायेगा।

इसके बाद सती ने भगवान शिव का ध्यान किया और यज्ञ की उत्तरी दिशा में बैठ कर योग के माध्यम से अग्नि को प्रकट किया और अपने शरीर को भस्म कर दिया।अब तो हा-हाकार मच गया। शिवजी के रूद्र, यज्ञ का विध्वंस करने लगे। भृगु जी ने देवतओं को प्रकट किया और रूद्रगणों को मार-मारकर भगा दिया।

शिव जी द्वारा वीरभद्र को यज्ञ विध्वंस की आज्ञा (Lord Shiva Orders Veerbhadra To Destroy Daksha’s Yajna )

ये समाचार जब नारद जी को मिला, नारद जी ने भगवान शिव को बताया- प्रभु ! सती की ये दशा हुई है।

अब भगवान शिव को रोष आया। शिव जी को अपने अपमान पर क्रोध नहीं आया पर आज सती का अपमान हुआ तो भयंकर क्रोध आया। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और जमीन पर पटक दी उससे एक विलक्षण पुरुष प्रकट हुआ जिसके तीन नेत्र थे, भयंकर विशाल शरीर वाला था, हाथ में त्रिशूल लिये-‘ये वीरभद्र भगवान थे।’

वीरभद्र ने शिव जी को प्रणाम किया और बोला- क्या आदेश है?

शिवजी ने कहा- एक ही आदेश है। दक्ष को मार डालो, यज्ञ को विध्वंस कर दो।

वीरभद्र जी उत्तराखंड होते हुये हरिद्वार की तरफ पहुँचे। अपरान्ह का समय था। दोपहर के तीन बज रहे थे, यजमान लोग विश्रामशाला में थे। पंडित और देवता लोग यज्ञशाला में थे। वहाँ जाकर वीरभद्र ने यज्ञ को विध्वंस कर दिया। यज्ञशाला के डंडे उखाड़ दिये, बाँसों से यजमानों की, देवताओं की, पंडितो की पिटाई की। यज्ञ में भगदड़ मच गयी। वीरभद्र ने चार लोगों को पकड़ लिया। एक तो यजमान दक्ष को, एक आचार्य भृगु जी को (जो यज्ञ करा रहे थे) और दो देवता जो शिव के विरोधी थे, ‘पूषा’ और ‘भग’ ।

veerbhadraसबसे पहले दक्षिणा आचार्य को मिली। शास्त्रों में कहा है- आचार्य को डबल दक्षिणा दी जाती है। उनके दाड़ी और मूंछ एक साथ उखाड़ दिए क्योंकि वो अपनी बड़ी-बड़ी दाड़ी फटकार करके शिव जी को सजा देने के लिए इशारा कर रहे थे।

अब पूषा के दांत निकाल दिये, क्योंकि जब दक्ष शिव जी को गाली दे रहा था, पूषा अपने बड़े-बड़े दांत निकाल कर हँस रहा था। इसका अर्थ है यदि हम अपने शरीर की किसी भी इन्द्रिय का उपयोग दूसरों के अहित के लिये करेंगे तो वो अंग बेकार हो जायेगा। पूषा ने दांतों का दुरुपयोग किया।

भग देवता की आँखे निकाल ली क्योंकि वो दक्ष को आँखों से इशारा कर रहा था- और गाली दो, और गाली दो।

अब वीरभद्र ने दक्ष के गले पर तलवार मारी पर वो मरा नहीं। वीरभद्र ने भगवान शिव का ध्यान किया और दक्ष की गर्दन मरोड़कर तोड़ डाली। फिर उसके सिर को हवनकुण्ड में भस्म कर दिया।

इस तरह से दक्ष का यज्ञ विध्वंस हो गया। विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि ये यज्ञ धर्म की दृष्टी से नहीं था, ये तो शिव जी के अपमान के लिये था।

यहाँ सिखने की बात है यदि किसी कार्य का आरम्भ गलत भाव रखकर किया जाये तो वह कार्य सफल नहीं होता है। ऐसे बहुत से काम होते हैं- बाहर से दिखाई देगा जैसे ये धर्म का काम हो रहा है, पर उनका उद्देश्य गलत होने से वो अधर्म का काम होता है। यज्ञ विध्वंस होने के बाद ब्रह्मा जी सभी देवताओं को लेकर शिव जी के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना करने लगे।

भगवान शंकर के पिता हैं ब्रह्मा जी। शिव जी बोले – पिता जी! आप प्रार्थना मत करिये। आप आज्ञा करिये, क्या करना है?

ब्रह्माजी ने कहा- देखो यजमान को जीवित कर दो। दक्ष, यज्ञ पूरा किये बिना मर गया है। भृगु जी की दाड़ी-मूंछ अभी तक नहीं आयी है, उनको दाड़ी-मूंछे आ जाएं, ऐसी व्यवस्था कर दो। पूषा को दांत मिल जाये। भग देवता को आँखे मिल जाये। बस हम इतना ही मांगते हैं।

भगवान शिव हमेशा अपनी मस्ती में रहते हैं। बोले- अभी कर देता हूँ, इसमें कौन सी बड़ी बात है। अपने एक गण को बोला- किसी बकरे का सिर काट कर ले आओ। बकरे का सिर ही क्यों मँगाया? हाथी का, शेर का किसी का भी मँगा लेते। भगवान शिव ने सुना था कि नन्दीश्वर ने दक्ष को शाप दिया है की अगले जन्म में ये बकरा बनेगा। भगवान शिव ने सोचा- अगले जन्म में क्यों, इसी जन्म में बना देता हूँ। बकरे का सिर मंगाया और दक्ष के शरीर में जोड़ कर उसे जीवित कर दिया। दक्ष जीवित हो गया, उसने भगवान की स्तुति की और क्षमायाचना की।

सती जी का पुनर्जन्म (Rebirth Of Sati)

सती माता ने फिर से पार्वती के रूप में जन्म लिया। फिर कठिन साधना की और भगवान शिव के साथ उनका विवाह हुआ। अब उनकी बुद्धि अडोल थी। सती जी अब पार्वती रूप में अपनी ज्यादा बुद्धि नहीं लगाती हैं। वे जानती हैं जो पहले हुआ वो ज्यादा बुद्धि लगाने के कारण हुआ।

शिक्षा (Moral)

1. कोई भी सत्कर्म यदि गलत भाव रखकर किया जाता है तो वह सफल नहीं होता है।

2. दक्ष यानी intelligent । हम intelligent हैं पर अंहकार बहुत है तो जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकते।

3. जो ज्यादा मैं-मैं करता है उसे बकरे का जन्म मिलता है। दक्ष को भी बकरे का मुँह लगा।

4. जो एक देवता की अराधना करेगा और दुसरे का अपमान करेगा उसकी वही दशा होगी जो दक्ष की हुई।

उपासना की पद्धति है- अपने आराध्य की उपासना करो और सम्मान सबका करो अपमान किसी का मत करो। अगर आप श्री कृष्ण भक्त हैं और राम मंदिर गये तो राम जी से श्री कृष्ण प्रेम मांगो। सबका सम्मान करो और अराधना अपनी आराध्य की।

गुरु के प्रति, ईश्वर के प्रति अपनी ज्यादा बुद्धि नहीं लगानी चाहिये। जिज्ञासा करो पर कुर्तक मत करो। गुरु जो आदेश करें, उसको सुनो, समझो और मानो तो आपका कल्याण होगा।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।