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तीर्थयात्रा का महत्व, विदुर जी का तीर्थाटन व माण्डव्य ऋषि की कथा (The Importance Of Going To Pilgrimages, Vidurji’s Pilgrimage Journey & The Story Of Rishi Mandavya)

Pilgrimagesतीर्थ अर्थात् तीर्थस्थानों की, श्री भगवान के जन्म स्थान की व उनकी विशेष लीला स्थलियों की विधिपूर्वक यात्रा व प्रेमपूर्वक दर्शन करना। भगवान के द्वारा पवित्र किये गये स्थानों का विशेष महातम्य होता है। भगवान वहाँ प्रकट हुए, खेले, बड़े हुए, लीलाएँ की व अंतर्ध्यान हो गये। तभी साधारण स्थान तपोभूमि व तीर्थस्थल बन जाते हैं।

यात्रा का अर्थ है, याति-त्राति। इंद्रियों को प्रतिकूल विषयों से हटा कर अनुकूल विषयों में लगा देना ही यात्रा है। तीर्थयात्रा उसी की सफल होती है, जो तीर्थ जैसा पवित्र हो कर ही वहाँ से लौटता है। केवल यात्रा करने से ही पुण्य नहीं हो जाता है। कई बार तो मनुष्य यात्रा करते-करते पाप की गठरी भी बाँध कर आता है।

तीर्थयात्रा से मन शुद्ध व पवित्र होता है। तीर्थयात्रा करते समय कुछ बातों का विशेष ध्यान रखें।

  • यात्रा विधिपूर्वक करनी चाहिए, विधिपूर्वक यात्रा करने से ही पुण्य प्राप्ति होती है। यात्रा करने के लिए निकलने से पहले प्रतिज्ञा करें कि अब मैं नियमों का पालन करूँगा, कभी क्रोध ना करूँगा, असत्य नहीं बोलूँगा, व्यर्थ भाषण नहीं करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद ही यात्रा का आरम्भ किया जाना चाहिए।
  • साधु संतो में श्रद्धा रखें, धन सम्पति बढ़ जाने पर तो धनिक लोग भी यात्रा के नाम पर घूमने निकल पड़ते हैं। इस प्रकार तो कौआ भी काशी मथुरा का चक्कर लगा लेता है। तीर्थों के सच्चे साधु-संतो, ब्राह्मणों की निंदा करने वालों को तीर्थयात्रा का पुण्य प्राप्त नहीं हो सकता। साधु-संतो के प्रति सद्भाव ना हो तो तीर्थयात्रा विफल रहती है। संत तीर्थों को पावन करते हैं। जब भरद्वाज मुनि स्नान करने आते थे तो गंगाजी पच्चीस सीढियाँ ऊपर आ जाती थीं। गंगाजी को ज्ञात था कि और लोग तो अपने पाप मुझे देने के लिए आते हैं परन्तु भरद्वाज मुनि तो मुझे पावन करने के लिए आते हैं।
  • तीर्थयात्रा में सरलता का पालन करें व सादा जीवन जिएं, तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। वहाँ कुल्ला ना करें व साबुन लगाकर स्नान ना करें। अतिशय विलासी और पापी लोग जब तीर्थस्थानों की ओर जाने लगे व अपने ही मनमाने चाल चलन से वहाँ रहने लगे तो तीर्थस्थानों की महिमा लुप्त होने लगी।
  • तीर्थ पर नियम पालन अवश्य करें- तीर्थ मे जाएँ तो उस दिन अनशन करें। ब्राह्मणों का अपमान कदापि ना करें। सच्चे साधु-संत, ब्राह्मणों का सम्मान करने से, मन की व शरीर की शुद्धि होती है। पाप जल जाते हैं और सात्विक भाव जाग्रत होता है।
  • एक-एक तीर्थ में एक-एक पाप छोड़ दें- जो भगवान के लिए कुछ त्याग कर सकता है, उसे ही प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है। अधिकतर लोग, अपनी जिस वस्तु में रूचि ना हो उसे ही छोड़ने की प्रतिज्ञा करते हैं। नापसंद साग-सब्जी या फल आदि के त्याग से कोई लाभ नहीं होगा, लाभ तभी होगा जब हम पाप और विकार आदि का त्याग करेंगे। ऐसा कहो कि काशी-विश्वनाथ के दर्शन करके मैंने काम छोड़ दिया और गोकुल मथुरा की यात्रा में क्रोध त्याग दिया।

विदुर जी का तीर्थाटन (Vidurji’s Pilgrimage Journey)

vidur jiविदुर जी का तीर्थाटन अनुकरणीय है। जब दुर्योधन द्वारा अपमानित हो कर वे तीर्थयात्रा के लिए निकले तो उन्होंने कुछ भी साथ नहीं लिया। धृतराष्ट्र द्वारा भेजा गया धन भी उन्होंने लौटा दिया। विदुर जी जानते थे कि जितनी ज्यादा आवश्यकताएं बढेंगी, उतना ही पाप भी बढेगा। प्राप्त स्थिति से असंतोष का अनुभव ही मनुष्य को पाप करने की प्रेरणा देता है। विदुर जी 36 वर्षों की यात्रा करने के लिए निकले और साथ में क्या ले गये थे? कुछ भी नहीं। केवल कौरवों का पुण्य ही साथ ले गये थे।

कौरवों का पुण्य विदुर जी के साथ कैसे चला गया? इसलिए चला गया क्योंकि कौरवों द्वारा अपमानित होने पर भी विदुर जी शान्त रहे, सहन करते रहे व मौन रहे। कोई तुम्हारी निंदा करे अपमान करे और तुम उसे सह लोगे तो तुम्हारा पाप उस निंदक के पास जायेगा और उसका पुण्य तुम्हें मिलेगा।

विदुर जी प्रत्येक तीर्थ में अनशन करते थे और विधिपूर्वक स्नान करते थे। यात्रा किस प्रकार की जाये इस विषय में विदुर जी कहते हैं-

गां पर्यटन् मेध्यविविक्तवृतिः सादाप्लुतोऽधःश्यनोऽवधुतः ।
अलाक्षितः स्वैरवधूतवेषो व्रतानि चेरे हरितोषणानि ।।

पृथ्वी पर वे अवधूत वेष में परिभ्रमण करते थे जिससे स्नेही-सम्बन्धी उन्हें पहचान ना सकें, शरीर का श्रृंगार भी न करते थे। वे अल्पमात्रा में बिलकुल पवित्र भोजन करते थे। शुद्ध वृत्ति से जीवन निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते, भूमि पर ही शयन करते व भगवान जिनसे प्रसन्न हों, ऐसे व्रत करते थे।

यात्रा करते हुए विदुर जी यमुना किनारे वृन्दावन आये। विदुर जी व्रज के कृष्ण रमण से पवित्र रज में लोटते हैं। श्री कृष्ण की मंगलमय लीलाओं का चिंतन करते हैं। विदुर जी ने अनुभव किया कि श्री कृष्ण गायों को लेकर यमुना के किनारे आए हैं, वह कदम्ब का वृक्ष है। विदुर जी सोचते हैं कि मेरी अपेक्षा तो यह पशु श्रेष्ठ हैं, जो परमात्मा से मिलने के लिए आतुर होकर दौड़ते हैं। धिक्कार है मुझे कि अभी तक मुझमें कृष्ण मिलन की तीव्र इच्छा उत्पन्न नहीं हुई है। गायें दौड़ती हैं और मैं पत्थर सा बैठा हुआ हूँ। उनकी आंखे प्रेमाश्रुओं से गीली हो गईं। वे कृष्ण लीलाओं का चिंतन करते हुए कृष्ण प्रेम में अति तन्मय हो गये।

प्रभु उस समय प्रभास में थे। उद्धव को ज्ञान का उपदेश दिया, भागवत धर्म का उपदेश दिया परन्तु उद्धवजी का मन शांत ना हुआ। श्री भगवान ने उद्धव को अपनी चरण पादुकाएं देकर बद्रिकाश्रम जाने को कहा। उद्धव जी का प्रभु के प्रति प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि वे भगवान की पादुकाओं में भी भगवान का ही दर्शन करते हैं। वे प्रभु की पादुकाओं को अपने मस्तक पर धारण कर बद्रिकाश्रम की ओर चले। मार्ग में उन्हें यमुनाजी और ब्रज भूमि के दर्शन हुए। मेरे ठाकुर की यही तो लीला है।

तीर्थयात्रा में मात्र स्नान करने से मन पूरा शुद्ध नहीं होता। वहाँ बसे हुए किसी भजनानंदी संत का सत्संग करने से मन और अधिक शुद्ध होता है।

उद्धव जी ने सोचा कि मैं वहाँ कुछ दिन रहूँगा और किसी संत का, किसी वैष्णव का सत्संग करूँगा। वे निश्चय करते हैं कि कोई प्रभु का लाड़ला वैष्णव मिलेगा, तभी मैं बोलूँगा अन्यथा मौन रहूँगा।

उद्धव और विदुर जी की भेंट (Uddhava & Vidur Ji’s Rencounter)

यमुना किनारे रमणरेती में विदुर जी बैठे हुए थे। दूर से उन्हें देख कर उद्धव जी को लगा कि कृष्ण प्रेम में भीगा कोई वैष्णव बैठा है। दोनों ने एक दूसरे को वंदन किया। श्री कृष्ण के भक्त तो श्री कृष्ण का ही गुणगान करेंगे। विदुर जी और उद्धव जी का दिव्य सत्संग प्रारंभ हुआ।

यमुना जी को आनंद हो रहा है कि ये भक्त आज मेरे प्रभु की लीला का वर्णन करेंगे। मेरे श्री कृष्ण की बाते करेंगे। मेरे श्यामसुन्दर का गुणानुवाद करेंगे, लीलागान करेंगे, मैं अपने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनूँगी। यमुना जी शांत, गंभीर हो गयीं। उन दो भक्तों ने प्रथम बाल लीला, फिर पौगंड लीला, प्रौढ़ लीला आदि सभी लीलाओं का वर्णन संक्षेप में किया।

uddhavji and lord krishnaविदुर जी उद्धव जी से कहते हैं, जिस भागवत धर्म का उपदेश आपको भगवान ने दिया था, वह मैं सुनना चाहता हूँ। मैं जातिहीन, कर्महीन व अधम हूँ परन्तु आप जैसे वैष्णव तो दया के सागर होते हैं। भगवान ने थोड़ी कृपा मुझ पर भी की थी। आप मेरी इच्छा पूर्ण करें। जो उपदेश प्रभु ने आपको दिया था, कृपया आप मुझे सुनाएं।

उद्धव जी कहते हैं, आप साधारण मानव नहीं हैं। जब प्रभु ने मुझे उपदेश दिया था तब मैत्रेय जी वहाँ बैठे थे। भगवान ने जब स्वधाम गमन किया, उस समय उन्होंने वसुदेव, देवकी, रुक्मणी, सत्यभामा आदि किसी को भी याद नहीं किया था। वे मुझसे कहते थे कि मुझे अपने विदुर की याद आ रही है। वह मुझे नहीं मिले। उसके यहाँ खाई भाजी का स्वाद आज भी मुझे याद आता है।

भगवान जिसे अपना कहें और अपना मानें उसका तो बेडा पार ही है। उद्धव जी बोले- विदुर जी आपकी भक्ति प्रशंसनीय है, आप बड़े ही भाग्यशाली हैं कि भगवान ने आपको तीन-तीन बार याद किया था। उन्होंने यह भी कहा कि सभी को मैंने कुछ न कुछ दिया है किन्तु विदुर जी को मैं कुछ ना दे सका। इसलिए मैत्रेय जी को उन्होंने आज्ञा दी कि जब विदुर जी तुमसे मिलें तो उन्हें इस भागवत धर्म का ज्ञान देना। इस बात को सुन कर विदुर जी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। प्रेम से विह्वल हो कर वे रो पड़े। कुछ देर बाद उद्धव जी बद्रिकाश्रम गये और विदुर जी मैत्रेय ऋषि के आश्रम को जाने के लिए निकले। यमुना जी ने कृपा करके विदुर जी को नवधा भक्ति का दान दिया।

विदुर जी का मैत्रेय ऋषि के आश्रम में आगमन (Vidur Ji’s Arrival In Rishi Maitreye’s Hermitage)

विदुर जी गंगा के किनारे मैत्रेय ऋषि के आश्रम में आये। गंगा जी की बड़ी महिमा है। विदुर जी ने गंगा जी में स्नान किया। विदुर जी सोच में डूबे हुए हैं कि जातिहीन होने से मुझे मैत्रेय ऋषि उपदेश देंगे या नहीं। मैं जातिहीन हूँ परन्तु कर्महीन नहीं। मैं पापी हूँ, अधम हूँ किन्तु परमात्मा ने मुझे अपनाया है। अत: मैत्रेय ऋषि मुझे उपदेश अवश्य देंगे। आश्रम में आ कर विदुर जी ने मैत्रेय जी को साष्टांग प्रणाम किया। उनके विनय विवेक से सब को आनंद हुआ।

माण्डव्य ऋषि की कथा (The Story Of Rishi Mandavya)

मैत्रेय ऋषि कहते हैं- विदुर जी! मैं आपको पहचानता हूँ। आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आप तो यमराज के अवतार हैं।माण्डव्य ऋषि के शाप के कारण दासीपुत्र के रूप में शूद्र के रूप में आपका जन्म हुआ था।

Dharmaraj_and_mandavyaएक बार कुछ चोरों ने राजकोष से चोरी की। चोरी करके वे भागने लगे। राजा के सेवकों को इस चोरी का समाचार मिला, तो उन्होंने चोरों का पीछा किया। राजा के सेवकों को पीछे आते हुए देखकर चोर घबरा गये। चोरी के माल के साथ भागना मुश्किल था। इतने में रास्ते में माण्डव्य ऋषि का आश्रम आया तो चोरों ने चुराई हुई वह सारी धन-सम्पत्ति उसी आश्रम में फेंक दी और भाग खड़े हुए। राजा के सैनिक पीछा करते हुए आश्रम में आये। वहाँ राजकोष से चुराई गई सारी धन संपत्ति को देखकर उन्होंने मान लिया कि यह माण्डव्य ऋषि ही चोर हैं।

उन्होंने ऋषि को पकड़ा और धन-संपत्ति के साथ राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। राजा ने देहांत दण्ड दिया। अब माण्डव्य ऋषि को वधस्तंभ पर खड़ा कर दिया गया। वे वहीं पर गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे। माण्डव्य मरते ही नहीं हैं। ऋषि का दिव्य तेज देखकर राजा को लगा कि यह तो कोई तपस्वी महात्मा लगते हैं। राजा भयभीत हो गया। ऋषि को वधस्तंभ से नीचे उतारा गया। सारी बात जानकर राजा को दुःख हुआ और पश्चाताप होने लगा कि मैंने निरपराध ऋषि को शूली पर चढ़ाना चाहा। माण्डव्य ऋषि से क्षमा करने के लिए प्रार्थना की।

माण्डव्य ऋषि कहते हैं- राजन ! तुम्हें तो मैं क्षमा कर दूंगा, पर यमराज से पूछूँगा कि मुझे ऐसा दण्ड क्यों दिया? मैंने कोई पाप नहीं किया, फिर भी मुझे ऐसा दण्ड क्यों दिया? मैं यमराज को क्षमा नहीं कर सकता।

यमराज की सभा में आकर ऋषि ने यमराज से पूछा कि जब मैंने कोई भी पाप नहीं किया है तो भी मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया? शूली पर लटकाने की सजा मुझे मेरे कौन से पाप के लिए दी गई? यमराज घबरा गये। उन्होंने सोचा कि यदि कहूँगा कि भूल हो गई तो ये मुनि मुझे शाप दे देंगे। अत: उन्होंने ऋषि से कहा कि जब आप तीन बरस के थे, तब आपने एक तितली को काँटा चुभोया था, उसी पाप की यह सजा दी गई है। जाने या अनजाने जो भी पाप किया जाये, उसका दण्ड भुगतना ही पड़ता है। भगवान पाप को नहीं स्वीकार करते।

पुण्य कृष्ण अर्पण हो सकता है, पाप नहीं। पाप तो भोगना ही पड़ेगा। अन्यथा पाप का नाश नहीं हो सकता। परमात्मा को हमेशा पुण्य समर्पित करो। सदा यही सोचो कि सजा मैं सह लूँगा और ठाकुर जी को सर्वोतम वस्तु अर्पित करनी चाहिए। इसका नाम ही भक्ति है, भगवान को पुण्य ही समर्पित किये जाने चाहिए।

माण्डव्य ऋषि ने यमराज से कहा शास्त्र की आज्ञा है कि यदि अज्ञान अवस्था में कोई मनुष्य कुछ पाप कर दे तो, उसका उसे स्वप्न में दण्ड दिया जाये। मैं बालक था अत: अबोध था। इसलिए उस समय किये गये पाप की सजा तुम्हें मुझे स्वप्न में ही देनी चाहिए थी। तुमने मुझे अयोग्य प्रकार से दण्ड दिया है।

अत: मैं तुम्हे शाप देता हूँ कि तुम्हारा जन्म शूद्र योनी में होगा। इस प्रकार माण्डव्य ऋषि के शाप के कारण यमराज को विदुर जी के रूप में दासी के घर जन्म लेना पड़ा। देव से भूल होने पर, उसे मनुष्य बनना पड़ता है और मनुष्य भूल करे तो उसे चार पग वाला पशु बनना पड़ता है। पापी मनुष्य पशु बनता है।

गुरु भगवान के अनंत अनंत शुक्राने हैं जो हमारे मन को हरिनाम में लगा कर हमे पाप करने से बचा लेते हैं व अपनी शरण में ले कर इस मनुष्य जन्म को सफल करते हैं।

संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण। 
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।