Spirtual Awareness

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ।।30।।

श्री भगवान बोले-  जो पुरुष  अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्त  वाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या-

यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टि का है, जिसमें तमोगुण की प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दिखाई देती है अर्थात् इसमें सत्यता, स्थिरता, सुखरूपता, श्रेष्ठता और आकर्षण दिखता है। यह सत्यता आदि सब-के-सब वास्तव में भगवान के ही हैं, क्षणभंगुर संसार के नहीं। तात्पर्य है कि जैसे- बर्फ की सत्ता जल के बिना नहीं हो सकती, ऐसे ही भौतिक स्थूल सृृष्टि अर्थात् अधिभूत की सत्ता जल के बिना नहीं हो सकती।  इस प्रकार तत्त्व से यह संसार भगवद्स्वरूप ही है- ऐसा जानना ही अधिभूत के सहित भगवान को जानना है।

‘‘अधिदैव’’ नाम सृष्टि की रचना करने वाले हिरण्यगर्भ (ब्रह्म) जी का है, जिनमें रजोगुण की प्रधानता है। भगवान ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्व से ब्रह्मा जी भगवद्-स्वरूप ही हैं- ऐसा जानना ही अधिदैव के सहित भगवान को जानना है।

‘‘अधियज्ञ’’ नाम भगवान् विष्णु का है, जो अन्तर्यामी रूप से सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता है। तत्त्व से भगवान ही अन्तर्यामी रूप से सबमें परिपूर्ण हैं- ऐसा जानना ही अधियज्ञ के सहित भगवान को जानना है।

अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान को जानने का तात्पर्य है कि भगवान श्रीकृष्ण के शरीर के किसी एक अंश में विराटरूप है (गीता- 10/42, 11/7) और उस विराटरूप में अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड), अधिदैव (ब्रह्मा जी) और अधियज्ञ (भगवान विष्णु ) आदि सभी हैं, जैसा कि अर्जुन ने कहा है- ‘‘हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों को, जिनकी नाभि से कमल निकला है, उन विष्णु को, कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को और शंकर आदि को देख रहा हूँ (गीता- 11/15)

अतः तत्त्व से अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं। जो संसार के भोगों और संग्रह की प्राप्ति अप्राप्ति में समान रहने वाले हैं तथा संसार से सर्वथा उपरत होकर भगवान में लगे हुए हैं, वे पुरुष युक्तचेता है। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकाल में भी मेरे को ही जानते हैं अर्थात् अन्तकाल की पीड़ा आदि में भी वे मेरे में ही अटलरूप से स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्म शरीर में कितनी ही हलचल होने पर भी कभी किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं होते।

भगवान के समग्ररूप सम्बन्धी विशेष बात-

प्रकृति और प्रकृति के कार्य- क्रिया, पदार्थ आदि के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया, पदार्थ आदि की प्रकट रूप से सत्ता दीखने लग जाती है।
जैसे- किसी व्यक्ति के विषय में हमारी जो अच्छे-बुरे की मान्यता है, वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्व से तो वह व्यक्ति भगवान का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्ति में तत्त्व के सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व है ही नहीं। ऐसे ही संसार में ‘‘यह ठीक है, यह गलत है’’ इस प्रकार ठीक-बेठीक की मान्यता हमारी ही की हुई है, तत्त्व से तो संसार भगवान का स्वरूप ही है। हाँ, संसार में जो वर्णाश्रम की मर्यादा है, ‘‘ऐसा काम करना चाहिए और ऐसा नहीं करना चाहिए’’- यह जो विधि-निषेध की मर्यादा है, इसको महापुरुषों ने जीवों के कल्याणर्थ व्यवहार के लिये मान्यता दी है।

जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी, तब भी भगवान थे और इसके लीन होने पर भी भगवान् रहेंगे- इस तरह से जब वास्तविक भगवत्तत्त्व का बोध हो जाता है, तब भौतिक सृष्टि की सत्ता भगवान में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टि की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका तात्पर्य है कि जो संसार की सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी, जो कि जीव के कल्याण में बाधक थी, वह नहीं रहती। जैसे- सोने के गहनों की अनेक तरह की आकृति और अलग-अलग उपयोग होने पर भी उन सबमें एक ही सोना है। ऐसे ही भगवद्-भक्त के द्वारा अनेक तरह का यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होने पर भी उन सबमें एक ही तत्त्व है- ऐसी अटल बुद्धि रहती है।

उपासना की दृष्टि से भगवान के प्रायः दो रूपों का विशेष वर्णन आता है-

1.सगुण- इसमें सगुण के दो भेद होते हैं-

  • सगुण-साकार
  • सगुण-निराकार

2.निर्गुण- निर्गुण के दो भेद नहीं होते। निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ निराकार के दो भेद होते हैं।

  • सगुण-निराकार
  • निर्गुण-निराकार

उपासना करने वाले दो रूचि के होते हैं-

  1. सगुण विषयक रुचि वाला
  2. निर्गुण विषयक रुचि वाला

परन्तु इन दोनों की उपासना भगवान के ‘‘सगुण-निराकार’’ रूप से ही शुरू होती है। जैसे-परमात्मा-प्राप्ति के लिए कोई भी साधक चलता है तो वह पहले ‘‘ परमात्मा’’ हैं-  इस प्रकार परमात्मा की सत्ता को मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं, सबसे दयालु हैं , उनसे बढकर कोई है ही नहीं’’ ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुण-निराकार से ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि बुद्धि प्रकृति का कार्य (सगुण) होने से निर्गुण को पकड़ नहीं सकती। इसीलिए निर्गुण के उपासक का लक्ष्य तो निर्गुण-निराकार होता है, परन्तु बुद्धि से वह सगुण-निराकार का ही चिन्तन करता है।

सगुण की ही उपासना करने वाले पहले सगुण-साकार मानकर उपासना करते हैं। परन्तु मन में जब तक साकार रूप दृढ़ नहीं होता, तब तक ‘‘प्रभु हैं और वे मेरे साथ हैं ’’ ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यता में सगुण भगवान की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है, उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्त में जब वह सगुण-साकार रूप से भगवान् के दर्शन, भाषण, स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है, तब उसकी उपासना की पूर्णता हो जाती है। निर्गुण की उपासना करने वाले परमात्मा को सम्पूर्ण संसार में व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है, उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्त में सांसारिक आसक्ति और गुणों का सर्वथा त्याग होने पर जब ‘‘मैं’’, ‘‘तू’’ आदि कुछ भी नहीं रहता, केवल चिन्मय तत्त्व शेष रह जाता है, तब उसकी उपासना की पूर्णता हो जाती है।

वास्तव में परमात्मा सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार सब कुछ हैं। साधक परमात्मा को गुणों के सहित मानता है तो उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणों से रहित मानता है तो उसके लिए वे निर्गुण हैं। वास्तव में परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनो हैं और दोनों से परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकता का पता तभी लगता है, जब बोध होता है और बोध भगवद्कृृपा से ही होता है।

भगवान के सौंदर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण हैं , उन गुणों के सहित सर्वत्र व्यापक परमात्मा को ‘‘सगुण’’ कहते हैं।

परमात्मा चाहे सगुण-निराकार हों, चाहें सगुण-साकार हों, वे प्रकृति के सत्त्व, रज और तम- तीनों गुणों से सर्वथा रहित हैं, अतीत है। वे यद्यपि प्रकृति के गुणों को स्वीकार करके सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं, फिर भी वे प्रकृति के गुणों से सर्वथा रहित ही रहते हैं (गीता-7/13)।

यद्यपि कर्मयोगी या ज्ञानयोगी भी जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं, पर भक्त जन्म-मरण से मुक्त होने के साथ-साथ भगवान के समग्ररूप को भी जान लेते हैं। कारण कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी की तो आरम्भ से ही अपने साधन की निष्ठा होती है (गीता-3/3), पर भक्त आरम्भ से ही भगवन्निष्ठ अर्थात् भगवद्-परायण होता है। भगवन्निष्ठ होने से भगवान कृृपा करके उसको अपने समग्ररूप का ज्ञान करा देते हैं।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।