Spirtual Awareness

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।12।।

श्री भगवान बोले-  जितने भी सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होने वाले हैं’- ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 12 | Bhagavad Gita Chapter 7)-

ये जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ और क्रिया) हैं, वे मेरे से ही उत्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि मात्र में जो कुछ हो रहा है, मूल में सबका आश्रय, आधार और प्रकाशक भगवान ही हैं अर्थात् सब भगवान से ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं।

सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान से ही होते हैं, इसलिए इनमें जो कुछ विलक्षणता दीखती है, वह सब भगवान की ही है। अतः मनुष्य की दृष्टि भगवानकी तरफ ही जानी चाहिए, सात्त्विक आदि भावों की तरफ नहीं। यदि उसकी दृष्टि भगवानकी तरफ जायेगी तो वह मुक्त हो जायेगा और यदि उसकी दृष्टि सात्त्विक आदि भावों की तरफ जायेगी तो वह बँध जायेगा।

सात्त्विक, राजस और तामस- इन भावों के (गुण, पदार्थ और क्रिया) अतिरिक्त कोई भाव है ही नहीं। ये सभी भगवद्-स्वरूप ही हैं। यहाँ शंका होती है कि अगर ये सभी भगवद्स्वरूप हैं तो हम कुछ भी करें, सब भगवद्-स्वरूप ही होगा। फिर ऐसा करना चाहिए और ऐसा नहीं करना चाहिए- यह विधि-निषेध कहाँ रहा? इसका समाधान यह है कि मनुष्यमात्र सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता। अनुकूल परिस्थिति विहित-कर्मों का फल है और प्रतिकूल परिस्थिति निषिद्ध-कर्मों का फल है। इसलिए कहा जाता है कि विहित-कर्म करो और निषिद्ध-कर्म मत करो। अगर निषिद्ध को भगवद्स्वरूप मानकर करोगे तो भगवान दुखों और नरकों के रूप में प्रकट होंगे। जो अशुभ कर्मों की उपासना करता है, उसके सामने भगवान अशुभ रूप से ही प्रकट होते हैं, क्योंकि दुख और नरक भी तो भगवान के ही स्वरूप हैं।

जहाँ मानने की बात है, वहाँ परमात्मा को ही मानकर उनके मिलने की उत्कण्ठा बढ़ानी चाहिए। उनको प्राप्त और प्रसन्न करने के लिये उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए तथा उनकी आज्ञा और सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये। भगवान की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करेंगे तो उनको प्रसन्नता कैसे होगी ? और विरुद्ध कार्य करने वाले को उनकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रेम कैसे मिलेगा ?

जहाँ जानने की बात है, वहाँ संसार को जानना चाहिए। जो उत्पत्ति-विनाशशील है, सदा साथ रहने वाला नहीं है, वह अपना नहीं है और अपने लिए भी नहीं है- ऐसा जानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। उसमें कामना, ममता, आसक्ति नहीं करनी चाहिये। उसका महत्त्व हृदय से उठा देना चाहिये। इससे सत्य तत्त्व प्रत्यक्ष हो जायेगा और जानना पूर्ण हो जायेगा। असत् (नाशवान) वस्तु हमारे साथ रहने वाली नहीं है- ऐसा समझने पर भी अगर समय-समय पर उसको महत्त्व देते रहेंगे तो वास्तविकता (सत्य वस्तु)- की प्राप्ति नहीं होगी।

भगवान रचना करते हैं तो प्रकृति को लेकर ही करते हैं तो मुख्यता भगवानकी ही हुई और प्रकृति भगवान की अध्यक्षता में रचना करती है तो भी मुख्यता भगवान की ही हुई। इसी बात को यहाँ कहा है कि ‘‘मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ’’ (7/16) और इसका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि “सात्त्विक, राजस और तामस- ये भाव मेरे से ही होते हैं”।

मैं उनमें नहीं हूँ और वे मेरे में नहीं है। तात्पर्य है कि उन गुणों की मेरे सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अर्थात् ‘‘मैं ही मैं हूँ’’; मेरे सिवाय और कुछ है ही नहीं। वे सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी प्राकृत पदार्थ और क्रियायें हैं वे सब-के-सब उत्पन्न और नष्ट होते हैं। परन्तु मैं उत्पन्न भी नहीं होता और नष्ट भी नहीं होता। अगर मैं उनमें होता तो उनका नाश होने पर मेरा भी नाश हो जाता; परन्तु मेरा कभी नाश नहीं होता, इसलिए मैं उनमें नहीं हूँ। अगर वे मेरे में होते तो मैं जैसा अविनाशी हूँ, वे भी वैसे ही अविनाशी होते। परन्तु वे तो नष्ट होते हैं और मैं रहता हूँ। इसलिए वे मेरे में नहीं हैं।

8वें श्लोक से लेकर यहाँ तक जितनी (17) विभूतियाँ बताई गई हैं, वे सब मेरे से ही उत्पन्न होती हैं, मेरे में ही रहती हैं और मेरे में ही लीन हो जाती हैं। परन्तु वे मेरे में नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ। मेरे सिवाय उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, इस दृष्टि से सब कुछ मैं ही हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान के सिवाय जितने सात्त्विक, राजस और तामस भाव अर्थात् प्राकृत पदार्थ और क्रियायें दिखाई देती हैं, उनकी सत्ता मानकर और उनको महत्ता देकर ये मनुष्य उनमें फँस रहे हैं। अतः भगवान उन मनुष्यों का लक्ष्य इधर कराते हैं कि इन सब पदार्थों और क्रियाओं में सत्ता और महत्ता मेरी ही है।

प्रकृति का भगवान से अभिन्न होने के कारण, ये सभी भाव भगवान से उत्पन्न होते हैं और भगवान में ही लीन हो जाते हैं, पर परा प्रकृति (जीवात्मा) ने इनके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया अर्थात् अपना और अपने लिए मान लिया- यही परा प्रकृति द्वारा (जीवात्मा द्वारा) जगत् को धारण करना है (अपना मानना है)। इसी से वह जन्मता-मरता रहता है। जब सब कुछ परमात्मा से उत्पन्न होता है, तब मनुष्य के साथ उन गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने साथ गुणों का सम्बन्ध न मानने से यह मनुष्य बँधता नहीं अर्थात् वे गुण उसके लिए जन्म-मरण के कारण नहीं बनते।

भक्तिमार्ग वाले भगवान के साथ अनन्य प्रेम से अभिन्न होकर प्रकृति से सर्वथा रहित हो जाते हैं और ज्ञानमार्ग वाले प्रकृति एवं पुरुष का विवेक करके (ज्ञानमार्ग में मानते हैं कि सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति से ही होते हैं) प्रकृति से बिल्कुल असम्बद्ध अपने स्वरूप का साक्षात् अनुभव करके प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-रहित हो जाते हैं।

परिशिष्ट भाव –

भगवान से उत्पन्न होने के कारण सब भाव भगवान के ही स्वरूप हैं (गीता 10/5)। तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि से जो कुछ भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किए जाते हैं, वे सब भगवान ही हैं। मन की स्फुरणामात्र चाहे अच्छी हो या बुरी, भगवान ही हैं। संसार में अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा -पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदि में आता है, वह सब केवल भगवान ही हैं। भगवान के सिवाय कहीं कुछ भी नहीं है।

अपना कुछ स्वार्थ रखें, लेने की इच्छा रखें, तभी सात्त्विक, राजस और तामस- ये तीन भेद होते हैं। यदि अपना कुछ स्वार्थ न रखें और दूसरों के हित की दृष्टि रखें तो ये गुण भगवान के ही स्वरूप हैं। इनको अपने लिए मानना, इनसे सुख लेना ही पतन का कारण है (गीता- 3/37)। जैसे- जमीन में जल सब जगह रहता है, पर उसकी प्राप्ति का स्थान कुआँ है। ऐसे ही भगवान सब जगह हैं, पर उनका प्राप्ति स्थान यज्ञ (कर्त्तव्य-कर्म) है -(गीता- 3/15)। परन्तु सात्त्विक, राजस, तामस भाव भगवान के प्राप्ति स्थान नहीं है अर्थात् इनके द्वारा भगवान की प्राप्ति नहीं होती –(गीता 7/13)। अतः ये साधक के लिए काम के नहीं हैं। इसलिए भगवान ने कहा है कि ये भाव मेरे से होने पर भी मैं इनमें और ये मेरे में नहीं हैं।

जैसे- बाजरी के खेत में बाजरी ही मुख्य होती है, पत्ती-डण्ठल नहीं। किसान का लक्ष्य केवल बाजरी को प्राप्त करने का ही होता है। पत्ती-डण्ठल तो पशुओं के खाने की चीज है। ऐसे ही साधक का लक्ष्य भी केवल भगवान का ही होना चाहिए, संसार का नहीं। भगवान को प्राप्त करने के लिए साधक को संसार की सेवा करनी चाहिये। सेवा के सिवाय संसार से अपना कोई मतलब नहीं रखना चाहिए। जैसे- महत्त्व बाजरी (दानें) का है, पत्ती-डण्ठल का नहीं। आरम्भ में भी बाजरी रहती है और अन्त में भी बाजरी ही रहती है। सात्त्विक, राजस, तामस भाव मूढ़ (अविवेकी) मनुष्यों के लिए हैं। ये तीनों ही भाव मनुष्यों को बाँधने वाले हैं -(गीता 14/5)। इसलिए ये भाव विवेकपूर्वक सांसारिक व्यवहार के लिए हैं। जैसे- जहर भी भगवान का रूप है, पर वह खाने के लिए नहीं है। 

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।