Spirtual Awareness

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संग्ङविवर्जित: ।।18।।
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत:स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।19।।

श्री भगवान् बोले – जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुख आदि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है। जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मनन शील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 18, 19 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

सर्वत्र भगवद् बुद्धि होने तथा राग-द्वेष से रहित होने के कारण सिद्ध भक्त का किसी के भी प्रति शत्रु -मित्र का भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता को देखकर उसमें मित्रता या शत्रुता का आरोप कर लेते हैं। परंतु भक्त अपने आपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदय में कभी किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव उत्पन्न नहीं होता है।

भक्त की अपनी कहलाने वाले शरीर में न तो अहमता होती है, न ममता। इसीलिए शरीर का मान-अपमान होने पर भी भक्त के अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य निरन्तर समता में स्थित रहता है।

इस श्लोक में “शीतोष्ण” शब्द समस्त इन्द्रियों के विषयों का वाचक है। प्रत्येक इन्द्रिय का अपने-अपने विषय के साथ संयोग होने पर भक्त को उन अनुकूल या प्रतिकूल विषयों का ज्ञान तो होता है, पर उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है।

साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थों की प्राप्ति में सुख तथा प्रतिकूल पदार्थों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव करते हैं। परन्तु उन्हीं पदार्थों के प्राप्त होने पर अथवा न होने पर सिद्ध भक्त के अन्तःकरण में कभी किंचिन मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थिति में सम रहता है।

सुख-दुख की परिस्थिति अवश्यम्भावी है, अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिए भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में सम रहता है। उसमें परिस्थितियों को लेकर हर्ष-शोक नहीं होता।

“सङ्गविवर्जितः” – संग शब्द का अर्थ सम्बन्ध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्य के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूप से सब पदार्थों का संग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके। क्योंकि जब तक मनुष्य जीवित रहता है, तब तक शरीर, मन-बुद्धि, इन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ शरीर से भिन्न कुछ पदार्थों का स्वरूप से त्याग किया जा सकता है।

जैसे कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़कर जंगल चला जाये पर यदि उसके अन्तःकरण में पदार्थों के प्रति किंचिन मात्र भी आसक्ति बनी हुई है तो उन प्राणि, पदार्थों से दूर होते हुये भी वास्त्व में उनसे उसका सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर गृहस्थ में रहते हुये भी यदि उसके अन्तःकरण में प्राणि, पदार्थों की किंचित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वह छूटा हुआ है। यदि पदार्थों का स्वरूप से त्याग करने पर ही मुक्ति होती, तो मरने वाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता,क्योंकि उसने तो अपने शरीर सहित समस्त सामग्री का परित्याग कर दिया। परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरण में आसक्ति के रहते हुये शरीर का त्याग करने पर भी संसार का बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्य को सांसारिक आसक्ति ही बाँधने वाली है। न कि सांसारिक प्राणि, पदार्थों का स्वरूप से सम्बन्ध।

संसार के प्रति यदि तनिक भी आसक्ति है तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधक को क्रमशः कामना, क्रोध, मूढ़ता आदि को प्राप्त कराती हुई उसे पतन के गर्त में गिराने का हेतु बन सकती है।– (गीता 2/62, 63)

भगवत्प्राप्ति से पहले भी आसक्ति की निवृत्ति हो सकती है, पर भगवत्प्राप्ति के बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। साधनावस्था में भी आसक्ति का सर्वथा अभाव होकर साधक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है।– (गीता – 5/21, 16/22) 

आसक्ति न तो परमात्मा के अंश शुद्ध चेतन में रहती है और न जड़ प्रकृति में ही। वह जड़ और चेतन के सम्बन्ध रूप ‘‘मैं’’ पन की मान्यता में रहती है। आसक्ति का कारण अविवेक है। अपने विवेक को पूर्णतया महत्व न देने से साधक में आसक्ति बनी रहती है। भक्त में अविवेक नहीं रहता। इसलिए वह आसक्ति से सर्वथा रहित होता है।
अपने अंशी भगवान से विमुख होकर भूल से संसार को अपना मान लेने से  संसार में राग हो जाता है और राग होने से आसक्ति हो जाती है। संसार से माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जाने से बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धि के सम होने पर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है।

वास्तव में जीव मात्र की भगवान् के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जब तक संसार के साथ भूल से माना हुआ अपनेपन का सम्बन्ध है, तब तक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती, प्रत्युत संसार में आसक्ति के रूप में प्रतीत होती है।

भक्त सब प्रकार से भगवान् के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियायें भगवान की प्रियता के लिए ही होती है। उससे प्रसन्न होकर भगवान् उस भक्त को अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेम को भी भगवान के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान् और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान् के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान् के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम के आदान प्रदान की यह लीला चलती रहती है।

‘‘तुल्यनिन्दास्तुतिः’’- निन्दा-स्तुति मुख्यतः नाम की होती है लोग अपने स्वभाव के अनुसार भक्त की निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्त में अपने कहलाने वाले नाम और शरीर में लेश मात्र भी अहमता और ममता नहीं होती। इसलिए निन्दा स्तुति का उस पर लेश मात्र भी असर नहीं पड़ता।

साधारण मनुष्यों के भीतर अपनी प्रशंसा की कामना रहा करती है, इसलिए वे अपनी निन्दा सुनकर दुख का और स्तुति सुनकर सुख का अनुभव करते हैं। भक्त की इन दोनों में ही समबुद्धि रहती है। साधक लोग निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं।

भक्त के द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभ कर्मो के होने में वह केवल भगवान को हेतु मानता है। फिर उसकी कोई निन्दा स्तुति करे, तो उसके चित्त में कोई विकार पैदा नहीं होता।

“मौनी” – सिद्व भक्त के द्वारा स्वतः स्वाभाविक भगवत्स्वरूप का मनन होता रहता है। इसलिए उसको मौनी अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरण में आने वाली प्रत्येक वृत्ति में उसको ‘‘वासुदेवः सर्वम’’- (गीता 7/19) सब कुछ भगवान ही हैं- यही दीखता है” इसलिए उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान् का मनन होता है।

संतुष्टो येन केनचित्”- भक्त प्रारब्ध अनुसार शरीर निर्वाह के लिए जो कुछ मिल जाये, उसी में संतुष्ट दीखता है, परन्तु वास्त्व में भक्त की सन्तुष्टि का कारण कोई सांसारिक पदार्थ, परिस्थिति आदि नहीं होती। एक मात्र भगवान में ही प्रेम होने के कारण वह नित्य निरन्तर भगवान में ही संतुष्ट रहता है। इस सन्तुष्टि के कारण वह संसार की प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहता है। क्योंकि उसके अनुभव में प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान के मंगलमय विधान से ही आती है।

“अनिकेतः”- चाहे ग्रहस्थ हो या साधु-सन्यासी, जिनकी अपने रहने के स्थान में ममता, आसक्ति नहीं है वे सभी “अनिकेत” हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर ) में लेश मात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिए उसको अनिकेतः कहा गया है।

“स्थिरमतिः”- भक्त की बुद्धि में भगवत्तत्व की सत्ता और स्वरूप के विषय में कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्व के ज्ञान से कभी किसी अवस्था में विचलित नहीं होती। इसलिए उसको स्थिरमतिः कहा गया है। भगवत्तत्व् को जानने के लिए उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्र विचार, स्वाध्याय आदि की जरूरत नहीं रहती, क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से भगवद्तत्व में लीन रहता है।

स्थिरबुद्वि होने में कामनायें ही बाधक होती हैं।- (गीता 2/44) अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिर बुद्धि होना सम्भव है।- (गीता 2/55)

अन्तःकरण में सांसारिक (संयोग जन्य) सुख की कामना रहने से संसार में आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसार को असत्य या मिथ्या जान लेने पर भी मिटती नहीं। जैसे – सिनेमा में दीखने वाले दृश्य (प्राणी, पदार्थ) को मिथ्या जानते हुये भी उसमें आसक्ति हो जाती है, वे सब दृश्य मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं अथवा जैसे भूतकाल की बातों को याद करते समय मानसिक दृष्टि के सामने आने वाले दृश्य को मिथ्या जानते हुये भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जब तक भीतर में सांसारिक सुख की कामना है, तब तक संसार को मिथ्या मानने पर भी संसार की आसक्ति नहीं मिटती। आसक्ति से संसार की स्वतन्त्र सत्ता दृढ होती है। सांसारिक सुख की कामना मिटने पर आसक्ति स्वतः मिट जाती है।

जैसे – बढ़िया गाड़ी में चलने पर बहुत आराम मिलता है, तो बढ़िया गाड़ी में हमारी आसक्ति हो जायेगी। यदि हमारा लक्ष्य गाड़ी का सुख लेना नहीं है अथवा सारा ध्यान गन्तव्य स्थान पर पहुँचने का है तो सुख की कामना समाप्त हो जाने से बढ़िया गाड़ी में आसक्ति नहीं रहेगी।

आसक्ति मिटने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्व में बुद्धि स्थिर हो जाती है।

“भक्तिमान्मे प्रियो नरः”- मनुष्य में स्वाभाविक रूप से ‘‘भक्ति’’ (भगवद् प्रेम) रहती ही है। मनुष्य से भूल यही होती है कि वह भगवान् को छोड़कर संसार की भक्ति करने लगता है। इसलिए उसे स्वाभाविक रहने वाली भगवत्भक्ति का रस नहीं मिलता और उसके जीवन में नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्ति रस में तल्लीन रहता है। इसलिए उसको भक्तिमान कहा गया है ऐसा भक्तिमान कहा गया है। ऐसा भक्तिमान मनुष्य भगवान को प्रिय होता है।

“नरः” पद देने का तात्पर्य है कि भगवान् को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्य जीवन सफल (सार्थक) कर लिया है, वही वास्तव में नर (मनुष्य) कहलाने योग्य है। जो मनुष्य शरीर को पाकर सांसारिक भोग और संग्रह में ही लगा हुआ है, वह नर कहलाने योग्य नहीं है।

शत्रु -मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुख और निन्दा-स्तुति- इन पांचों द्वन्द्वों में समता होने से ही साधक पूर्णतः समभाव में स्थित कहा जा सकता है। भक्त का न तो अनुकूलता में राग होता है और न प्रतिकूलता में द्वेष होता है। भक्त भक्ति के कारण भगवान को प्रिय होते हैं, गुणों (लक्षणों) के कारण नहीं। गुण मुख्य नहीं है, प्रत्युत भक्ति मुख्य है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता। 
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।