Spirtual Awareness

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।6।।

श्री भगवान् बोले –  मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरन्तर चिन्तन करते हुये भजते हैं।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 6 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

भक्तों की भगवान् में ही अनन्यतापूर्वक लगे रहने के कारण उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती। कहीं भी आसक्ति न रहने के कारण उनके मन में किसी के भी प्रति वैर, द्वेष, क्रोध आदि का भाव नहीं रहता। साधक को किसी में किंचिन्मात्र भी द्वेष नहीं रखना चाहिए।

कर्म बन्धन से मुक्त होने के लिये यह आवश्यक है कि साधक कर्मों में ममता, आसक्ति और फ्लेच्छा का त्याग करे। क्योंकि ममता, आसक्ति और फ्लेच्छा से किए गए कर्म ही बन्धन कारक होते हैं।

यदि साधक का लक्ष्य भगवद् प्राप्ति होता है तो वह पदार्थों की इच्छा नहीं करता और अपने आपको भगवान् का समझने के कारण उसकी ममता, शरीर आदि से हटकर एक भगवान् में ही हो जाती है। स्वयं भगवान् के अर्पित होने से उसके सम्पूर्ण कर्म भी भगवद् अर्पित हो जाते हैं। भगवान के लिए कर्म करने के विषय में कई प्रकार हैं, जिनको गीता में  ‘मदर्पण कर्म’, ‘मदर्थ कर्म’ और ‘मतकर्म’ नाम से कहा गया है।

  • मदर्पण कर्म- उन कर्मों को कहते हैं जिनका उद्देश्य पहले कुछ और हो किन्तु कर्म करते समय अथवा कर्म करने के बाद उनको भगवान् के अर्पण कर दिया जाए।
  • मदर्थ कर्म- वे हैं जो आरम्भ से ही भगवान् के लिए किए जाए अथवा जो भगवद् सेवा रूप हों। भगवद् प्राप्ति के लिए कर्म करना, भगवान् की आज्ञा मानकर कर्म करना और भगवान् की प्रसन्नता के लिए कर्म करना- ये सभी भगवद् अर्थ कर्म हैं या मदर्थ कर्म हैं।
  • मत् कर्म- भगवान का ही काम समझकर सम्पूर्ण लौकिक कर्म जैसे व्यापार, नौकरी आदि और भगवद् सम्बन्धी कर्म जैसे जप, ध्यान आदि कर्मों को करना मत् कर्म हैं।

वास्तव में कर्म कैसे भी किए जाए, उनका उद्धेश्य एक-मात्र भगवत् प्राप्ति ही होना चाहिये।

साधक का कर्मों से किंचिन मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि उसमें न तो फलेच्छा और कर्तत्व अभिमान है और न पदार्थों में और शरीर मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों में ममता ही है। जब शरीर, मन, बुद्धि आदि साधन अपने नहीं हैं तो कर्मों में ममता कैसी? मेरे पन से मुक्त हो जाना ही वास्तविक समर्पण है। सिद्ध पुरुषो की क्रियाओं का स्वतः ही समर्पण होता है और साधक पूर्ण समर्पण का उद्देश्य रखकर वैसे ही कर्म करने की चेष्टा करता है।

जैसे- भक्तियोगी अपनी क्रियाओं को भगवान् के अर्पण करके कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानयोगी क्रियाओं को प्रकृति से हुई समझकर अपने को उनसे सर्वथा असंग और निर्लिप्त अनुभव करके कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।

  • मत्पराः- परायण होने का अर्थ है भगवान् को परम् पूज्य और सर्वश्रेष्ठ समझकर भगवान के प्रति समर्पण-भाव से रहना। भक्त अपने आपको भगवान् का यंत्र समझता है। अतः शुभ क्रियाओं को वह भगवान् के द्वारा ही करवाई हुई मानता है तथा संसार का उद्देश्य न रहने के कारण उसमें भोगों की कामना नहीं रहती और कामना न रहने के कारण उससे अशुभ क्रियायें होती ही नहीं।

भक्तों के इष्ट भगवान् ही होते हैं, उनके सिवाय अन्य कोई साध्य भक्त की दृष्टि में होता ही नहीं और भगवद् प्राप्ति के लिए आश्रय भी उन्हीं का होता है। वे भगवद् कृृपा से ही साधन की सिद्धि मानते हैं, अपने पुरुषार्थ  या साधन के बल से नहीं। उनके लिए भगवद्प्राप्ति कराने वाले भी भगवान् ही हैं। वे एक ही लक्ष्य रखकर जप, ध्यान, कीर्तन आदि करते हैं।

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’’  – अनन्य योग

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।