Spirtual Awareness

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते ।।5।। 

श्री भगवान् बोले –  उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति दु:खपूर्वक प्राप्त की जाती है।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 5 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

  1. सगुणोपासना में उपास्य तत्व के सगुण साकार होने के कारण साधक के मन, इन्द्रियों के लिए भगवान के स्वरूप, नाम, लीला-कथा आदि का आधार रहता है। भगवान के परायण होने से उसके मन इन्द्रियाँ भगवान के स्वरूप एवं लीलाओं के चिन्तन, कथा-श्रवण, भगवत् सेवा और पूजन में सरलता से लग जाते हैं। – (गीता 8/14) इसलिए उसके द्वारा सांसारिक विषय चिन्तन की सम्भावना कम हो जाती है।
  2. सांसारिक आसक्ति ही साधना में क्लेश देती है। भक्त इसको दूर करने के लिये भगवान् के ही आश्रित रहता है। वह अपने में भगवान् का ही बल मानता है। बिल्ली का बच्चा जैसे माँ पर निर्भर रहता है, ऐसे ही यह साधक भी भगवान पर निर्भर रहता है। भगवान् ही उसकी संभाल करते हैं।– (गीता 9/22) अतः उसकी सांसरिक आसक्ति आसानी से मिट जाती है। – (मानस-3/43/2,3)
  3. भक्तों के लिये भगवान् ने अपनी प्राप्ति शीघ्र ही बतायी है। – (गीता -12/7)
  4. भक्तों के अज्ञानरूप अंधकार को स्वयं भगवान् ही मिटा देते हैं। (गीता-10/11) भक्तों का उद्धार भगवान् करते हैं।- (गीता- 12/7)
  5. भक्तों में यदि कोई सूक्ष्म दोष रह भी जाता है तो भगवान् पर निर्भर होने के कारण सर्वज्ञ भगवान् कृपा करके उस दोष को दूर कर देते हैं। – (गीता 10/58, 66)
  6. भगवान् सर्वत्र परिपूर्ण हैं और उनकी पूर्णता में जरा भी सन्देह न रहने के कारण उनमें आसानी से श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा होने से वे नित्य-निरन्तर भगवत् परायण हो जाते हैं। श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता है जिससे उन्हें भगवत् प्राप्ति हो जाती है।- (गीता 10/10)
  7. ऐसे भक्त भगवान् को परम् कृपालु मानते हैं। अतः उनकी कृपा के आश्रय से वे सब कठिनाईयों को पार कर जाते हैं। भगवत् कृपा के बल से भक्त शीघ्र ही भगवत् प्राप्ति कर लेते हैं। – (गीता- 18/56, 57, 58)
  8. मनुष्य में कर्म करने का अभ्यास तो रहता ही है। – (गीता-3/5), भक्त को अपने कर्म भगवान् के प्रति करने में केवल भाव ही बदलना होता है, कर्म तो वे ही रहते हैं। अतः भक्त भगवान के लिये कर्म करते हैं और कर्म बंधन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाते हैं। – (गीता 18/46)
  9. भक्त के हृदय में भले ही पदार्थों का महत्व रहा हो परन्तु उन पदार्थों को भगवान का मानकर प्राणियों की सेवा में लगा देने से पदार्थों में ममत्व का त्याग सहज हो जाता है।
  10. भक्ति में विवेक और वैराग्य की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी प्रेम और विश्वास की है। द्रोपदी के मन में कौरवों के प्रति द्वेष था परन्तु भगवान् को अपना मानने के कारण द्रोपदी के पुकारने मात्र से भगवान प्रकट हो जाते थे। भगवान तो अपने भक्त का प्रेम और विश्वास देखते हैं उसके दोष नहीं देखते।
  11. भगवान के साथ अपनेपन का सम्बन्ध जोड़ना उतना कठिन नहीं है जितना कि पात्र बनना कठिन है। विवेक की कमी रह जाए, कर्तत्व अभिमान रह जाए, अहंकार आ जाए तो साधक कर्मबन्धन में बंध जायेगा। इसलिए भक्त भगवान के समर्पित हो जाता है। भक्त संसार से विमुख होकर भगवान के सन्मुख हो जाता है। साधन के आश्रित न होकर भगवान् के आश्रित हो जाता है। भगवान कृपा करके भक्त का शीघ्र ही उद्धार कर देते हैं। – (गीता 12/7, 8/14)

सगुणोपासना में जगत् को मिथ्या मानकर उसके त्याग की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसकी दृष्टि में जड़-चेतन, सत-असत् सब कुछ भगवान ही हैं। भक्त तो सब समय में सर्वत्र, सबमें भगवान को ही देखता है इसलिए वह किसी का तिरस्कार नहीं करता।

साधक या भक्त चाहे निराकार की उपासना करे या सगुण साकार की, कभी किसी तिरस्कार, निन्दा, खण्डन न करे। यह उपासकों के लिए बहुत घातक है, कारण कि प्रकृति भगवान की है अतः किसी की भी निन्दा करने से वह भगवान् की ही निन्दा होती है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।