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संत तुकाराम जी (Sant Tukaram Ji)

तुकारामजी का जीवन परिचय (Tukaram Ji’s Life Introduction)

tukaram jiश्री तुकारामजी का जन्म दक्षिण के देहू नामक ग्राम में भगवदभक्तों के एक पवि़त्र कुल में संवत 1665 वि. में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम कनकाबाई और बोलोजी था। यह तीन भाई थे- सावजी, तुकारामजी और कान्हजी। तुकारामजी का बारह व़र्ष की आयु में विवाह हुआ। वधु का नाम रखुमाई था पर विवाह के बाद मालूम हुआ कि बहू को दमे की बीमारी है। इसलिए माता-पिता ने तुरंत ही इनका दूसरा विवाह जिजाबाई से करा दिया।

बोलोजी जब वद्ध हुए तब उन्होंने अपना काम-काज अपने बड़े पुत्र को सौंपना चाहा; पर वे विरक्त थे। अतः तुकाराम जी के ऊपर ही सारा भार आ पड़ा। उस समय इनकी अवस्था सत्रह वर्ष की थी। ये बड़ी दक्षता के साथ काम सम्भालने लगे।

चार वर्ष तक सिलसिला ठीक चला। इसके बाद तुकारामजी पर भारी संकट आने लगे। सबसे पहले माता-पिता ने साथ छोडा; जिससे ये अनाथ हो गए। उसके बाद बड़े भाई सावजी की स्त्री का देहान्त हो गया। जिसके कारण मानो सावजी का सारा प्रपंचपाश कट गया अैार वे पूर्ण विरक्त होकर तीर्थ यात्रा करने चले गए तथा उधर ही अपना जीवन बिता दिया। बड़े भाई का छत्र सिर पर न होने से तुकाराम के कष्ट और भी बढ़ गए। घर गृहस्थी के कामों से अब इनका भी मन उचटने लगा।

इनकी इस उदासीनवृत्ति से लाभ उठाकर इनके जो कर्जदार थे, उन्होनें रूपये देने की कल्पना ही नही की और लेने वाले आते, वे पूरा तकाजा करने लगे। पैतृक सम्पत्ति अस्त व्यस्त हो गयी। परिवार बड़ा था दो स्त्रियाॅ थी, एक बच्चा था, छोटा भाई था और बहनें थी। इतने प्राणियों को कमाकर खिलाने वाले अकेले तुकाराम थे; इनका मन-पंछी इस प्रपंच से भागना चाहता था। इनकी जो दुकान थी, उससे लाभ के बदले नुकसान ही होने लगा और ये कर्जदार बनते चले गए।

तुकाराम जी का दिवाला (Tukaram Ji’s Bankruptcy)

एक बार आत्मीयों ने सहायता देकर इनकी बात रखी, इनके ससुर ने भी एक-दो-बार सहायता की। परन्तु इनके उखडे पैर फिर नहीं जमे। पारिवारिक सुरूप भी इन्हें न के बराबर था। पहली पत्नी तो इनकी बडी सौम्य थी, परन्तु दूसरी पत्नी रात-दिन लड़ाई करती थी। घर में यह दशा और बाहर लेने वालों का तकाजा। आखिर दिवाला निकल ही गया। तुकाराम जी की सारी साख धूल में मिल गई। इनका दिल टूट गया। फिर भी एक बार हिम्मत करके मिर्च खरीदकर उसे बेचने के लिए ये कोंकण गए। परंतु वहां भी लोगो नें इन्हें खूब ठगा। जो कुछ दाम वसूल किए उन्हें एक धूर्त ने पीतल के कड़े की, जिस पर सोने का पानी चढा था, सोना बताकर उसके बदले में ले गया और चम्पत हो गया।

वे बड़े ही क्षमाशील और सहिष्णु थे। एक बार इनके खेत में कुछ गन्ने पके थे। ये उनका गठ्ठर बाँधकर ला रहे थे। रास्ते मे बच्चे पीछे हो गए। उन्होनें गन्ने मांगना शुरू किए। ये प्रसन्नता से देते चले गये। अन्त में एक गन्ना बचा, उसी को लेकर घर आए भूखी पत्नी के बड़ा क्रोध आया। उसने गन्ना छीनकर उनकी पीठ पर दे मारा। गन्ना टूट गया ये हँस पड़े। बोले तुम बड़ी साध्वी हो। हम दोनों के लिए मुझे गन्ने के दो टुकड़े करने पडते तुमने ही कर दिए। इससे इनकी क्षमाशीलता का पता चलता है।

जिजाई ने एक बार अपने नाम से रुक्का लिखकर इन्हें दो सौ रुपये दिलाए, जिनसे इन्होनें नमक खरीदा और ढाई सौ रुपये बनाए। परन्तु ज्यौं ही उन्हे लेकर चले कि रास्ते में एक दुःखिया मिला। उसे देखकर इन्हें दया आ गई और सब रुपये उसे देकर निश्चिन्त हो गए। उन्हीं दिनों पूना प्रांत में भयंकर अकाल पड़ा। अन्न-पानी के बिना सहस्त्रों मनुष्यों ने तड़प तड़पकर प्राण त्याग दिए। इसके बाद तुकाराम जी की ज्येष्ठ पत्नी भी मर गयी और इनका बेटा भी चल बसा। अब तो दुःख और शोक की हद हो गयी थी।

तुकाराम जी को वैराग्य (Tukaram Ji Feels Reclusive)

devotee tukaram jiदुःख के इस प्रचण्ड दावानल से तुकारामजी का वैराग्य कंचन होकर निकला। अब इन्होंने योग-़क्षेम का सारा भार भगवान पर रखकर भगवद भजन करने का निश्चय किया। घर मे जो रुक्के रखे हुए थे, उनमे से आधे तो इन्होने अपने छोटे भाई को दे दिए और कहा- “देखो, बहुतों के यहाँ रकम पड़ी हुई है। इन रुक्कों से तुम चाहे तो वसूल करो या जो कुछ भी करो तुम्हारी जीविका तुम्हारे हाथ में है।” इसके बाद तुकारामजी ने बाकी रुक्कों को अपने वैराग्य में बाधक जाना और उन्हें इंद्रायणी नदी में फेंक दिया। अब इन्हें किसी की चिंत्ता नही रही। ये भगवदभजन में, कीर्तन में या कही एकान्त ध्यान में रहने लगे। प्रातःकाल नित्य कर्म से निवतृृ होकर ये विट्ठल भगवान के मन्दिर में जाते और वही पूजापाठ तथा सेवा करते। वहाँ से फिर इंद्रायणी नदी के उस पार कभी भागनाथ पर्वत पर, कभी गोण्डा या भाराडार पर्वत पर एकांत स्थल में ज्ञानेश्वरी या एकनाथी भागवत का पारायण करते और दिन भर हरि नाम स्मरण करते। संध्या होेने पर गाँव में हरि कीर्तन सुनते, जिसमें आधी रात बीत जाती।

इसी समय इनके घर का ही, श्री विश्रम्भर बाबा द्वारा बनवाया हुआ श्री विट्ठल जी का मन्दिर बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया था। उसकी इन्होने अपने हाथों से मरम्मत की। इस प्रकार अनेक साधनों के फलस्वरूप श्री तुकाराम जी की चित्तवृति अखण्ड नाम स्मरण में लीन होने लगाी। भगवत कृपा से कीर्तन करते समय इनके मुख से अभंग वाणी निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान ब्राह्मण और साधु संत इनकी प्रकाण्ड ज्ञानमयी कविताओं को देखकर इनके चरणों में नत होने लगे।

तुकाराम जी के मुख से अभंग वाणी (Abhang Vani From Tukaram Ji’s Srimukha)

पुना से सौ मिल दूर बाधोली नामक स्थान में एक वेद-वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित रहते थे। उनको तुकाराम जैसे शुद्र जाति वाले के मुख से मराठी अभंग निकले और अबाह्मण सब वर्णो के लोग इन्हें संत जानकर माने पूजे, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आई। उन्होनें देहू के हाकिम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कही चले जाने की आज्ञा दिलायी।

इस पर तुकारामजी पण्डित रामेश्रर भट्ट के पास गये और उनसे बोले- “मेरे मुख से जो अभंग निकलते हैं सो भगवान पाण्डुरंग की आज्ञा से ही निकलते है। आप ब्राह्मण है, ईश्वरवत है, आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना छोड़ दूँगा पर जो अभंग बन चुके है और जो लिखे रखे हैं उनका क्या करू़?”

भट्टजी ने कहा- “उन्हें नदी मे डुबो दो।”

ब्राह्मण की आज्ञा शिरोधार्य कर तुकाराम जी ने देहू लौटकर अभंग की सारी बहियाँ इंद्रायणी नदी में डुबो दी और श्री विट्ठलनाथ मन्दिर के सामने एक शिला पर बैठ गए कि या तो भगवान ही मिलेंगें या इस जीवन का अंत होगा। इस प्रकार हठीले भक्त तुकारामजी श्री पाण्डुरंग के साक्षात दर्शन की लालसा लगाए, उस शिला पर तेरह दिन तक बिना कुूछ खाए-पिए बैठे रहे। अंत में भक्त के पराधीन भगवान का आसन हिला।

तुकारामजी को भगवद दर्शन (Shri Vitthal Nath Ji Pleases & Appears For Tukaram Ji)

bliss tukaram jiतुकाराम जी के हृदय में तो वे थे ही, अब वे बालवेश रूप धारण कर तुकारामजी के समक्ष प्रकट हो गए। तुकारामजी उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान ने उन्हें दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया।

भगवान नें तुकारामजी को बताया कि- “मैंनें तुम्हारे अभंगो की बहियों को इंद्रायणी के दह मे सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तों को दे दिया हैं” यह कहकर भगवान फिर तुकारामजी के हदय में अंतर्धान हो गए।

इस सगुण साक्षात्कार के पश्चात तुकारामजी का शरीर 15 वर्ष तक भूतल पर रहा। तब तक इनके मुख से सतत अमृत वाग्धारा की वर्षा होती रही। इनके स्वानुभवसि़द्ध उपदेशों को सुन-सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते थे। जिस समय इंद्रायणी में अभंगो की बहियाँ डुबा दी गयीं थी, उसके कई दिनों बाद वे ही पण्डित रामेश्रवरभट्ट पूने में श्री नागनाथ जी का दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में अनगढशाह की औलिया मे नहाने के लिए उतरें नहाकर जो उपर आए तो एकाएक उनके सारे शरीर में भयानक जलन पैदा हो गयी। शिष्यों ने बहुत उपचार किया। किन्तु कोई लाभ नही हुआ। अंत मे ज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हें स्वप्न में तुकाराम जी की शरण में आने को कहा, तब वे दौड़कर तुकाराम की शरण गए। इस प्रकार पण्डित कर्मनिष्ठ ब्राह्मण भी तुकाराम को महात्मा मानकर इनका शिष्य होने में अपना गौरव मानने लगे।

छ़त्रपति शिवाजी महारात तुकाराम जी को अपना गुरु बनाना चाहते थे। पर उनके नियत गुरू श्री समर्थ रामदास स्वामाी है। ये अंर्तदृष्टि से जानकर तुकाराम जी ने उन्ही की शरण में जाने का उपदेश दिया। फिर भी शिवाजी महाराज इनकी हरिकथाए बराबर सुना करते थे।

स० 1706 चैत्र कृष्ण के दिन प्रातःकाल श्री तुकाराम महाराज इस लोक से विदा हो गए। उनका मृत शरीर किसी ने नही देख, कई लोगो का मानना है कि वह मृत हुआ भी नही। भगवान स्वयं उन्हें सदेह विमान में बैठाकर अपने वैकुण्ठ धाम ले गये। वैकुण्ठ सिधारने के बाद भी तुकाराम जी महाराज कई बार भगवदभक्तों के सामने प्रकट हुए। देहू और लोहगाँव में महाराज के अनेक स्मारक हैं। उनका जीता जागता अैार सबसे बड़ा स्मारक अभंग समुदाय है। इनकी अभंग वाणी जगत की अमूल्य और अमर आध्यात्मिक सम्पत्ति है। यह तुकाराम जी की वाडमयी मूर्ति है।