Spirtual Awareness

चैतन्य महाप्रभु (Chaitanya Mahaprabhu)

“जहाँ तुम्हारे नाम की आवाज़ सुनी, वहीं दोनों आँखें आसुओं से लबालब भर आयें, गले से आवाज न निकले और शरीर के सभी रोम खड़े हो जायें! हे मेरे प्यारे। क्या कभी मेरे हृदय की स्थिति ऐसी होगी?”  पराभक्ति के लक्षणों से ओत-प्रोत ये भाव महाप्रभु चैतन्य के जीवन चरित्र की उन्हीं के शब्दों में सबसे निकटतम व्याख्या है।

अगर एक शब्द में महाप्रभु के जीवन और मानवमात्र के लिए किए गए उनके महान कार्य को व्यक्त करना हो तो वह शब्द है- प्रेम! महाप्रभु के जीवन में कृष्ण प्रेम ही एक प्रधान वस्तु है। उनका जीवन कृष्णमय था या कह लें वे स्वयं भगवान श्री कृष्ण के प्रेमावतार थे।

चैतन्य महाप्रभु का जन्म (The Birth Of Mahaprabhu Chaitanya)

पुण्यवती नवद्वीप नगरी में श्री जगन्नाथ मिश्र के यहाँ भाग्यवती शचीदेवी के गर्भ में तेरह मास रहकर महाप्रभु गौरांगदेव सं0 1407 फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए। बाल्यकाल से ही इन्होंने अपने अदभुत ऐश्वर्य प्रदर्शित किये। शैशव अवस्था में एक दिन ये छोटे खटोले पर पड़े-पड़े बहुत जोरों से रो रहे थे। माता ने बहुत चेष्टा की किन्तु ये चुप नहीं हुए। जब माता इन्हें- “हरि बोल, हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।” यह पद गा गाकर धीरे-धीरे हिलाने लगीं। बस, इसका श्रवण करना था कि ये चुप हो गये। माता को इन्हें चुप करने का सहज ही उपाय मिल गया। जब कभी ये रोते तभी माता अपने कोमल कंठ से गाने लगतीं- “हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।”

Chaitanya MahaPrabhu doing Sankirtanaगया यात्रा एवं ईश्वरपुरी द्वारा मंत्र दीक्षा (Mahaprabhu’s Life Changing Journey to Gaya And Spiritual Initiation By Ishwar Puri Ji)

कालान्तर में इनके पूज्य पिता परलोकवासी हुए, तब सम्पूर्ण घर-गृहस्थी का भार इन्हीं के ऊपर आ पड़ा। इसलिए सोलह वर्ष की अल्पायु में ही ये अध्यापकी के अत्युच्च आसन पर आसीन हुए और कुछ काल के अनन्तर द्रव्योपार्जन तथा मनोरंजन और लोक-शिक्षण के निमित्त इन्होंने राढ़ देश में भ्रमण किया। कुछ काल अध्यापन करते हुए और गृहस्थ जीवन का सुख भोगने के अनन्तर इन्होंने पित्र-ऋण से उऋण होने के निमित्त अपने पूर्व पितरों की प्रसन्नता और श्राद्ध करने के लिये श्रीगयाधाम की यात्रा की। वहीं पर स्वनामधन्य श्रीईश्वरपुरी ने न जाने इनके कान में कौन सा मन्त्र फूँक दिया कि उसके सुनते ही ये सदा प्रेम वारुणी का पान किये हुए उसके मद में भूले-से, भटके-से, उन्मत्त से लोकबाह्य प्रलाप सा करने लगे। तदनन्तर बस प्रेम में उन्मत्त होकर प्रेमी भक्तों के सहित अहर्निश श्रीकृष्ण-कीर्तन और नृत्य करते रहना ही इनके जीवन का एकमात्र व्यापार बन गया। गया से आने पर अध्यापकी का अन्त होने पर इनके पुराने जीवन के कार्यक्रम का भी अन्त हो गया।

दीक्षा उपरान्त महाप्रभु का प्रेमोन्माद (After Initiation Mahaprabhu In The State Of Bliss)

अध्यापकी का अन्त होने के बाद प्रभु का सम्पूर्ण जीवन प्रेममय ही था। अहा! उस मूर्ति के स्मरण मात्र से हृदय में कितना भारी आनन्द प्राप्त होता है। पाठक प्रेम में नृत्य करते गौरांग का एक मनोहर-सा चित्र अपने हृदय पटल पर अंकित तो करें – सुवर्ण के समान देदिप्यमान शरीर पर पीताम्बर पड़ा हुआ है। जमीन तक लटकती हुई चौड़ी किनारीदार एक बहुत ही सुन्दर धोती बँधी हुई है। दोनों आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ी हुई हैं। खुली हुई आँखों की कोरों में से अश्रु निकलकर उन सुन्दर गोल-कपोलों को भिगोते हुए वक्षःस्थल को तर कर रहे हैं। दोनों हाथों को ऊपर ऊठाये गौरांग ‘हरि बोल‘, ‘हरि बोल‘ की सुमधुर ध्वनि से दिशा-विदिशाओं को गुंजायमान कर रहे हैं। चारों ओर आनन्द में उन्मत्त होकर भक्तवृन्द नाना भाँति के वाद्य बजा-बजाकर प्रभु के आनन्द को और भी अधिक बढ़ा रहे हैं। बीच-बीच में प्रभु किसी-किसी भाग्यवान् भक्त का गाढ़ालिंगन करते हैं, कभी किसी का हाथ पकड़कर उसके साथ नृत्य करने लगते हैं। भावुक भक्त प्रभु के चरणों के नीचे की धूलि उठा-उठा कर अपने सम्पूर्ण शरीर पर मल रहे हैं। इस स्मृति में कितना आनन्द है, कैसी मिठास है, कितनी प्रणयोपासना भरी हुई है।

महाप्रभु के समय का बंगाल (Bengal At The Time Of Mahaprabhu)

बंगाल प्रान्त में महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव का प्राकट्य जिस काल में हुआ, उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में चारों ओर राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी प्रकार की घोर क्रान्ति मची हुई थी। धार्मिक स्थिति तो उस समय की बहुत ही जटिल थी। निम्न श्रेणी के पुरुष भगवत्-प्राप्ति के अनाधिकारी समझे जाते, उन्हें किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों को करने का अधिकार नहीं था। लोग नीरस पद्धतियों से ऊबकर सरस पद्धति चाहते थे, ऐसे समय में भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बहुत-से महापुरुषों ने एक साथ अवतार लिया। स्वयं श्री भगवान ही जब कर्म की शिथिलता देखते हैं तब आप नरपति-विशेष के रुप में उत्पन्न होकर कर्म का प्रचार करते हैं, जब ज्ञान का लोप देखते हैं तब मुनि-विशेष के रुप में प्रकट होकर ज्ञान का प्रसार करते हैं और जब भक्ति को नष्ट होते देखते हैं तब भक्त-विशेष का रुप धारण करके भक्ति की महिमा बढ़ाते हैं। इसी क्रम में बंगाल में लोक कल्याण के निमित्त नामावतार चैतन्य महाप्रभु ने लोगों को नाम-संकीर्तन का अमूल्य उपहार दिया।

केशव भारती द्वारा सन्यास दीक्षा के उपरान्त महाप्रभु का जीवन (The Transformed & Blissfully Humble Life Of Mahaprabhu After Initiation By Keshav Bharti Ji)

shree krishna chaitanyaप्रेमावेष में महाप्रभु हर समय निर्जन स्थान में रहते। किसी बहिरंग व्यक्ति को देख सिर नीचे कर लेते और भक्तों को साष्टांग प्रणाम करते। सेवा में तत्पर रहकर किसी का कोई कार्य कर देते। मना करने पर कहते- “मैं भक्तिहीन, अधम व्यक्ति हूँ। भक्तों की सेवा ही मेरा एकमात्र सहारा है, उनकी कृपा से ही श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त कर सकता हूँ।” यह उनका यथार्थ भाव रहता है। तदनन्तर आचार्य अद्वैताचार्य को प्रेमदान, श्रीवास पंडित के घर पर श्रीकृष्ण कीर्तन की नींव डालना, जीवों के कल्याण के लिए अपनी माँ शचिदेवी तथा पत्नी विष्णुप्रिया का त्याग व केशव भारती जी से संन्यास दीक्षा ग्रहण करना, हरिदास नाई को प्रेमदान और शान्तिपुर के धोबी को ‘हरि बोल‘ नाम दान करने की दिव्य लीलाऐं करते हुए महाप्रभु चैतन्य अधिक से अधिक श्री कृष्ण-प्रेम के महाउन्माद में रहने लगे।

महाप्रभु गौरांगदेव चौबीस वर्ष की अल्पावस्था में कठोर संन्यास-धर्म की दीक्षा लेकर पुरी पधारे। पहले छः वर्षों में तो वे भारतवर्ष के विविध तीर्थाें में भ्रमण करते रहे और सबसे अन्त में आपने श्रीवृन्दावन धाम की यात्रा की। वृन्दावन से लौटकर अन्त में अठारह वर्षों तक आप अविच्छिनभाव से सचल जगन्नाथ के रुप में अथवा नीलांचल में ही अवस्थित रहे। फिर आपने पुरी की पावन धरती का परित्याग करके कहीं को भी पैर नहीं बढ़ाया। अन्त में आपका प्रेमोन्माद साधारण सीमा का उल्लंघन करके परकाष्ठा तक पहुँच गया। महाप्रभु का चित्त बारह वर्षों तक शरीर को छोड़कर वृन्दावन के किसी काले रंग के ग्वाल-बालक के साथ चला गया था।उनका बेमन का शरीर पुरी में काशी मिश्र के विशाल घर के एक निर्जन गम्भीरा-मन्दिर में पड़ा रहता था। इन बारह वर्षों में महाप्रभु के शरीर में जो-जो प्रेम के भाव उत्पन्न हुए, उनकी जैसी-जैसी अलौकिक दशाएँ हुईं वह किसी भी महापुरुष के शरीर में प्रत्यक्ष रीति से प्रकट नहीं हुईं। उन्होंने प्रेम की पराकाष्ठा करके दिखा दी, मधुर रस का आस्वादन किस प्रकार किया जाता है, इसका उन्होंने साकार स्वरुप दिखला दिया।

जगन्नाथपुरी (गम्भीरा क्षेत्र) में प्रभु की कृष्ण-विरह अवस्था (In Jagannath Puri, Mahaprabhu’s Heart Rending State Of Krishna Virah)

chaitanya mahaprabhu in jagannath puriजगन्नाथ पुरी में महाप्रभु गरुडस्तम्भ के सहारे घंटों खड़े-खडे़ दर्शन करते रहते थे। जब तक वे दर्शन करते रहते उनके दोनों नेत्रों से जल की धाराऐं बहती रहती थीं। ऐसी अवस्था में एक दिन उड़ीसा प्रान्त की वृद्धामाई जगन्नाथजी के दर्शन न कर पाने से गरुडस्तम्भ पर चढ़कर और प्रभु के कन्धे पर पैर रखकर दर्शन करने लगी। पीछे खड़े हुए महाप्रभु के भक्त सेवक गोविन्द ने उसे ऐसा करने से निषेध किया। इस पर प्रभु ने कहा- “यह आदिशक्ति महामाया है, इसके दर्शनसुख में विघ्न मत डालो, इसे यथेष्ट दर्शन करने दो। “गोविन्द के कहने पर वह ‘वृद्धा माता जल्दी से उतरकर प्रभु के पादपद्यों में पड़कर पुनः-पुनः प्रणाम करती हुई अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगी। प्रभु ने गद्गद् कण्ठ से कहा – “मातेश्वरी! जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये तुम्हें जैसी विकलता है ऐसी विकलता जगन्नाथ जी ने मुझे नहीं दी। हा! मेरे जीवन को धिक्कार है। जननी! तुम्हारी ऐसी एकाग्रता को कोटि-कोटि धन्यवाद है। तुमने मेरे कन्धे पर पैर रखा और तुम्हें इसका पता भी नहीं।” इतना कहते-कहते प्रभु जोर-जोर से रुदन करने लगे।

महाप्रभु का जगन्नाथजी के विग्रह में लीन होना (Mahaprabhu Engrossed Enwrapped And Absorbed in Krishna’s Idol)

इसी क्रम में महाप्रभु एक दिन अपने नित्य के नियमित स्थान गरुडस्तम्भ के समीप नहीं रुके। वे सीधे मन्दिर के दरवाजे के समीप चले गये। सभी परम विस्मित से हो गये। महाप्रभु ने द्वार पर से ही उछलकर श्रीजगन्नाथजी की ओर देखा और फिर जल्दी से आप मन्दिर में घुस गये। महान आश्चर्य! मन्दिर के सभी कपाट अपने आप बंद हो गये, महाप्रभु अकेले ही मन्दिर के भीतर थे। गुंजाभवन में एक पूजा करने वाले भाग्यवान पुजारी प्रभु की इस अन्तिम लीला को प्रत्यक्ष देख रहे थे। उन्होंने देखा- महाप्रभु, जगन्नाथजी के सम्मुख हाथ जोड़ें खड़े हैं और गद्गद कण्ठ से प्रार्थना कर रहे हैं- ‘हे दीनवत्सल प्रभो! हे दयामय देव! हे जगत्पिता! हे जगन्नाथदेव! सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि- इन चारों युगों में कलियुग का एकमात्र धर्म श्रीकृष्णसंकीर्तन ही है। हे नाथ! आप अब जीवों पर ऐसी दया कीजिए कि वे निरन्तर आपके सुमधुर नामों का सदा कीर्तन करते रहें। प्रभो! अब घोर कलियुग आ गया है, इसमें जीवों को आपके चरणों के सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं। इन अनाश्रित जीवों पर कृपा करके अपने चरणकमलों का आश्रय प्रदान कीजिये।‘ बस इतना कहते-कहते प्रभु ने श्रीजगन्नाथजी के श्रीविग्रह को आलिंगन किया और उसी क्षण आप उसमें लीन हो गये। महाप्रभु की यह दिव्य लीला देखकर पुजारी मूर्छित होकर गिर पड़ा किन्तु प्रभु अब वहाँ कहाँ! वे तो इस धराधाम पर प्रेमरूपी अमृत की वर्षा करने के पश्चात् अपने असली स्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।