Spirtual Awareness

उदारा: सर्व एवैते
ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थित: स हि युक्तात्मा
मामेवानुत्तमां गतिम् ।।18।।

श्री भगवान बोले- ये चारों भक्त बड़े उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्गत (मेरे में) मन-बुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 18 | Bhagavad Gita Chapter 7)

ये सब के सब भक्त उदार हैं, श्रेष्ठ भाव वाले हैं। भगवान ने यहाँ जो ‘उदाराः’ शब्द का प्रयोग किया है, उसमें कई विचित्र भाव हैं, जैसे-

1. चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि-‘‘भक्त जिस प्रकार मेरी शरण होते हैं, उसी प्रकार मैं उनका भजन करता हूँ।’’ भक्त भगवान को चाहते हैं और भगवान भक्त को चाहते हैं। परन्तु इन दोनों में पहले भक्त ने ही सम्बन्ध जोड़ा है और जो पहले सम्बन्ध जोड़ता है, वह उदार होता है। तात्पर्य यह है कि भगवान सम्बन्ध जोड़ें या न जोड़ें, इसकी भक्त परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफ से पहले सम्बन्ध जोड़ता है और अपने को समर्पित करता है इसलिए वह उदार है।

2. भगवान का भक्त अगर भगवान से कोई चीज माँगता है तो भगवान अगर उचित समझें तो वह चीज दे देते हैं। अर्थात् देने से उसकी भक्ति बढ़ती हो तो दे देते हैं और भक्ति न बढ़ती हो, संसार में फँसावट होती हो तो नहीं देते। कारण कि भगवान परमपिता हैं और परम्-हितैषी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपनी कामना की पूर्ति हो अथवा न हो, तो भी वे भगवान का ही भजन करते हैं, भगवान के भजन को नहीं छोड़ते- यह उनकी उदारता ही है।

3. संसार के भोग और रूपये-पैसे प्रत्यक्ष सुखदाई दिखते हैं और भगवान के भजन में प्रत्यक्ष जल्दी सुख नहीं दीखता, फिर भी संसार के प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर अर्थात् भोग-भोगने और संग्रह करने की लालसा को छोड़कर भगवान का भजन करते हैं, यह उनकी उदारता ही है।

4. भक्तों का लौकिक-पारलौकिक कामना पूर्ति के लिए अन्य की तरफ जरा भी ध्यान नहीं जाता, वे केवल भगवान से ही कामना पूर्ति चाहते हैं। भक्तों का यह अनन्य भाव ही उनकी उदारता है।
इस श्लोक में भगवान ने ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त की विलक्षणता बतलाई है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं हीं, पर ज्ञानी को उदार क्या कहें, वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूप में किसी निमित्त से, किसी कारण विशेष से प्रियता नहीं होती, प्रत्युत अपना स्वरूप होने से स्वतः स्वाभाविक प्रियता होती है।
‘‘केवल भगवान ही मेरे हैं’’– इस प्रकार मेरे में उसका जो अपनापन है, उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलता को लेकर किचिंनमात्र भी फर्क नहीं पड़ता, प्रत्युत वह अपनापन दृढ़ होता और बढ़ता ही चला जाता है (नित-नित वर्धमान)।

परिशिष्ट भाव

सांसारिक अर्थार्थी भगवान को छोड़कर केवल अर्थ को ही चाहता है। अतः वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि का भक्त होता है। उसके भीतर धन का महत्त्व अधिक होने से वह उदार नहीं होता, प्रत्युत महान् कृपण होता है। अतः उसके लिए उदार शब्द लागू नहीं होगा। परन्तु जो अर्थार्थी भगवान का भक्त होता है, उसके भीतर अर्थ का महत्त्व न होकर भगवान का महत्त्व होता है। इसलिए उसमें कृपणता नहीं होती, प्रत्युत उदारता होती है। अतः उसको भगवान ने यहाँ उदार कहा है। यहाँ उदार भाव का अर्थ है- ‘‘त्याग’’। अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु भक्त संसार (भोग और संग्रह) को छोड़कर भगवान में लग गये- यह उनका त्याग है। इसलिए वे सभी उदार हैं। एकमात्र भगवान का ही सम्बन्ध मुख्य होने से अर्थार्थी, आर्त व जिज्ञासु भी आगे चलकर स्वतः ‘‘ज्ञानी’’ हो जाते हैं।
एक मार्मिक बात है कि भगवान को न मानना, कामना से भी अधिक दोषी है। जो भगवान को छोड़कर अन्य देवताओं की उपासना करते हैं, उनमें यदि कामना रह जाये तो वे जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं (गीता- 9/2)। परन्तु जो केवल भगवान का ही भजन करते हैं, उनमें यदि कामना रह भी जाये तो भगवान की कृपा से और भजन के प्रभाव से वे भगवान को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि मनुष्य का किसी भी तरह भगवान के साथ सम्बन्ध जुड़ जाये तो वह भगवान को ही प्राप्त होता है (श्रीमद् भागवद् 7/1/29), क्योंकि वह मूल में भगवान का ही अंश है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।