Spirtual Awareness

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।16।।

श्री भगवान बोले-  हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 16 | Bhagavad Gita Chapter 7)

सुकृति पवित्रात्मा मनुष्य अर्थात् भगवद्-सम्बन्धी काम करने वाले मनुष्य चार प्रकार के होते हैं। ये चारों मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् स्वयं मेरी शरण होते हैं।
जिनकी भगवान में रुचि हो गई है वे ही भाग्यशाली हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने योग्य हैं। वह रुचि चाहे किसी पूर्व पुण्य से हो गई हो, चाहे आफत के समय दूसरों का सहारा छूट जाने से हो गई हो, चाहे किसी विश्वसनीय मनुष्य के द्वारा समय पर धोखा देने से हो गई हो- चाहे सत्संग, स्वाध्याय अथवा विचार आदि से हो गई हो, किसी भी कारण से भगवान् में रुचि होने से वे सभी सुकृति मनुष्य हैं। भगवान की तरफ रुचि हो जाना ही सच्ची सम्पत्ति है।

भगवान ने कृपा करके भगवद्प्राप्ति रूप जिस उद्देश्य को लेकर मानव शरीर दिया है, वे ‘‘जनाः’’ (मनुष्य) कहलाते हैं। भगवान का संकल्प मनुष्यमात्र के उद्धार के लिए बना है। अतः मनुष्यमात्र को भगवान् की प्राप्ति का अधिकार है। तात्पर्य है कि उस संकल्प में भगवान् ने मनुष्य को अपने उद्धार की स्वतन्त्रता दी है, जो कि अन्य प्राणियों को नहीं मिलती, क्योंकि वे भोग योनियाँ हैं और यह मानव शरीर कर्मयोनि है, साधन योनि है। इसलिए इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके मनुष्य शास्त्र-निषिद्ध कर्मों को छोड़कर अगर भगवद्-प्राप्ति के लिए ही लग जाये तो उसको भगवद्-कृपा से अनायास ही भगवद् प्राप्ति हो सकती है। भगवान् ने कृपा करके जो मानव शरीर दिया है, उस शरीर को पाकर भगवान का भजन करने वाले सुकृति मनुष्य ही ‘‘जनाः’’ अर्थात् मनुष्य कहलाने योग्य हैं।

अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी- ये चार प्रकार के भक्त भगवान का भजन करते हैं अर्थात् भगवान की शरण होते हैं।
अर्थार्थी भक्त- जिनको अपनी न्याय-युक्त (मिली हुई) सुख-सुविधा की इच्छा हो जाती है अर्थात् धन, सम्पत्ति, वैभव आदि की इच्छा हो जाती है, परन्तु उसको वे केवल भगवान् से ही चाहते हैं, दूसरों से नहीं, ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं।

चार प्रकार के भक्तों में अर्थार्थी आरम्भिक भक्त होता है। पूर्व संस्कारों से उसकी धन की इच्छा रहती है और वह धन के लिए चेष्टा भी करता है, पर वह समझता है कि भगवान् के समान धन की इच्छा पूरी करने वाला दूसरा कोई नहीं है– ऐसा समझकर वह धन प्राप्ति के लिए तत्परता पूर्वक भगवन्नाम का जप-कीर्तन, भगवद्-स्वरूप का ध्यान आदि करता है। धन प्राप्त करने के लिए उसका भगवान् पर ही विश्वास, निष्ठा होती है

भगवान के सम्बन्ध की मुख्यता होने के कारण वह क्रमशः भगवान की तरफ ही बढ़ता चला जाता है। भगवान में लगे रहने से उसकी धन की इच्छा भी कम होती चली जाती है। इसमें मुख्यतः ध्रुव जी का ही नाम लिया जाता है।

आर्त भक्त- प्राण संकट आने पर, आफत आने पर, मन के प्रतिकूल घटना घटने पर जो दुःखी होकर अपना दुःख दूर करने के लिए भगवान् को पुकारते हैं और दुख को दूर करना केवल भगवान से ही चाहते हैं, दूसरे किसी उपाय को काम में नहीं लेते- वे आर्त भक्त कहलाते हैं। आर्त भक्तों में उत्तरा का दृष्टान्त लेना ठीक बैठता है, कारण कि जब उस पर आफत आई, तब उसने भगवान् के सिवाय अन्य किसी उपाय का सहारा नहीं लिया। अन्य उपायों की तरफ उसकी दृष्टि गई ही नहीं, उसने केवल भगवान का ही सहारा लिया। तात्पर्य यह हुआ कि सकाम भाव रहने पर भी आर्त भक्त उसकी पूर्ति केवल भगवान से ही चाहते हैं।

जो भगवान के साथ अपनापन करके भगवान के परायण हैं और अनुकूलता की वैसी इच्छा नहीं करते, पर प्रतिकूल परिस्थिति आने पर इच्छा हो जाती है कि भगवान ने ऐसा क्यों किया? ‘‘यह प्रतिकूलता मिट जाये तो बहुत अच्छा है’’ इस प्रकार प्रतिकूलता को मिटाने का भाव पैदा होने से भी आर्त भक्त कहलाते हैं।

जिज्ञासु भक्त- जिसको अपने स्वरूप को, भगवद् तत्त्व को जानने की जोरदार इच्छा जाग्रत हो जाती है कि वास्तव में मेरा स्वरूप क्या है? भगवद तत्त्व क्या है? इस प्रकार तत्त्व को जानने के लिए शास्त्र, गुरु अथवा पुरुषार्थ (श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि उपायों) का भी आश्रय न रखते हुए केवल भगवान के आश्रित होकर उस तत्त्व को केवल भगवान् से ही जो जानना चाहते हैं, वे जिज्ञासु भक्त कहलाते हैं।

जिज्ञासु वही होता है, जिसकी जिज्ञासा केवल भगवद्-तत्त्व की ही होती है और उपाय केवल भगवद्-भक्ति ही होती है।

जिज्ञासु भक्तों में उद्धव जी का नाम लिया जाता है। भगवान् ने उद्धव जी को दिव्य ज्ञान का उपदेश दिया था, जो उद्धव गीता (श्रीमद्भागवत 11/7-30) के नाम से प्रसिद्ध है।

जो भगवान में अपनापन करके भगवान में ही तल्लीन रहते हैं; परन्तु कभी-कभी संग से, संस्कारों से, सत्संग से मन में यह भाव पैदा होता है कि वास्तव में मेरा स्वरूप क्या है? भगवद्तत्त्व क्या है? वे भी जिज्ञासु कहलाते हैं।

ज्ञानी (प्रेमी) भक्त- ज्ञानी भक्त को अनुकूल से अनुकूल और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति, घटना, व्यक्ति, वस्तु आदि सब भगवद्-स्वरूप ही दीखते हैं अर्थात् उसको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति केवल भगवत्-लीला ही दीखती है। जैसे- भगवान में अपने लिए अनुकूलता प्राप्त करने, प्रतिकूलता हटाने, बोध प्राप्त करने आदि किसी तरह की कभी जरा भी इच्छा होती ही नहीं, वे तो केवल भक्तों के प्रेम में ही मस्त रहते हैं; ऐसे ही ज्ञानी (प्रेमी) भक्तों में तनिक भी कोई इच्छा नहीं होती, वे केवल भगवान के प्रेम में ही मस्त, तृप्त, प्रसन्न रहते हैं।

ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तों में गोपिकाओं का नाम प्रसिद्ध है। देवर्षि नारद ने भी ‘‘यथा व्रज गोपिकानाम’’ (भक्तिसूत्र-21)कहकर गोपियों को प्रेमी भक्त का आदर्श माना है। कारण कि गोपियों में अपने सुख का सर्वथा त्याग था। प्रियतम भगवान का सुख ही उनका सुख था।

सन्तों की वाणी में आता है कि प्रेम तो केवल भगवान ही करते हैं, भक्त केवल भगवान में अपनापन करता है। कारण कि प्रेम वही करता है, जिसे कभी किसी से कुछ भी लेना नहीं है। भगवान ने जीवमात्र के प्रति अपने आप को सर्वथा अर्पित कर रखा है और जीव से कभी कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा की कोई सम्भावना ही नहीं रखी है। इसलिए भगवान् ही वास्तव में प्रेम करते हैं।

विशेष बात

चार लड़के खेल रहे थे। इतने में उनके पिताजी चार आम लेकर आये। उनको देखते ही एक लड़का आम माँगने लग गया और एक लड़का आम लेने के लिए रो पड़ा। पिताजी ने उन दोनों को एक-एक आम दे दिया। तीसरा लड़का न तो रोता है, न तो माँगता है, केवल आम की तरफ देखता है और चौथा लड़का आम की तरफ न देखकर जैसे पहले खेल रहा था, वैसे ही मस्ती से खेलता रहता है। उन दोनों को भी पिताजी ने एक-एक आम दिया। इस प्रकार चारों ही लड़कों को आम मिलता है। यहाँ आम माँगने वाला लडका अर्थार्थी है, रोने वाला लड़का आर्त है, केवल आम की तरफ देखने वाला जिज्ञासु है और आम की परवाह न करके खेल में लगे रहने वाला ज्ञानी है।

जो भगवान की शरण होते हैं, उनमें सकामभाव भी हो सकता है, परन्तु उनमें मुख्यता भगवन्ननिष्ठ होने की ही होती है।

भगवान के साथ अपनापन मानने के समान दूसरा कोई साधन नहीं है, कोई योग्यता नहीं है, कोई बल नहीं है, कोई अधिकारिता नहीं है। भगवान का प्राणीमात्र पर अपनापन सदा से है और सदा ही रहेगा। उस अपनेपन को केवल प्राणी ही भूला है और उसने भूल से संसार के साथ अपनापन मान लिया है। अतः इस भूल से किये हुये अपनेपन को हटाना है और प्रभु के साथ जो स्वतः सिद्ध अपनापन है, सम्बन्ध है, उसको मानना है। प्रभु को अपना मानने में मन, बुद्धि आदि किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ती, जबकि दूसरे साधनों में मन-बुद्धि आदि की सहायता लेनी पड़ती है।

भगवान के साथ अपनापन होने पर अर्थात् ‘‘मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं’’- ऐसा दृढ़ता से मान लेने पर साधक भक्त को अपने कहलाने वाले अन्तःकरण में भावों की, गुणों की कमी भी दीख सकती है, पर भगवान् के साथ अपनापन होने से यह टिकेगी नहीं। दूसरी बात, साधक भक्त में कुछ गुणों की कमी रहने पर भी भगवान की दृष्टि केवल अपनेपन पर ही जाती है, गुणों की कमी पर नहीं। कारण कि भगवान् के साथ हमारा जो अपनापन है, वह वास्तविक है।

भगवान के साथ अपनेपन का सम्बन्ध पहले से ही है, फिर भी कोई कामना उत्पन्न हो जाती है तो भक्त का भगवान के साथ अपनेपन का सम्बन्ध मुख्य होता है और कामना गौण होती है।

मार्मिक बात

कामना दो तरह की होती है- 1.पारमार्थिक 2.लौकिक

1. पारमार्थिक कामना- पारमार्थिक कामना दो तरह की होती है-

  • मुक्ति की (कल्याण)- जो मुक्ति की कामना है, उसमें तत्त्व को जानने की इच्छा होती है, जिसे जिज्ञासा कहते हैं। विचार किया जाये तो जिज्ञासा कामना नहीं है, क्योंकि वह अपने स्वरूप को अर्थात् तत्त्व को जानना चाहता है, जो वास्तव में उसकी आवश्यकता है। आवश्यकता उसको कहते हैं, जो जरूर पूरी होती है और पूरी होने पर फिर दूसरी आवश्यकता पैदा नहीं होती। आवश्यकता सत् विषय की होती है।
  • संसारी कामना वह होती है, जो कभी पूरी नहीं होती। एक कामना पूरी होने पर दूसरी कामना पैदा हो जाती है। जैसे- धन की कामना हुई। जितना धन चाहता है, उतना धन मिल जाये तो फिर और अधिक धन की कामना होती है। धन की तरह ही मान-बढ़ाई की, जीने की, भोग की, निरोगता की, यश-कीर्ति की, स्त्री-पुुत्र की आदि-आदि। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं की कामना होती है। ये धनादि वस्तुऐं अपनी नहीं हैं, क्योंकि इनमें से कोई भी वस्तु स्वयं तक पहुँचती ही नहीं। इनकी कामना-पूर्ति केवल शरीर और नाम तक पहुँचती है। कामना असत् विषय की होती है। कामना पूर्ति के बाद फिर और कामना पैदा हो जाती है, इस प्रकार अपूर्ति ही बाकी रहती है। अतः कामना त्याज्य है, क्योंकि ये चीजें तो रहेगी नहीं और उनकी पूर्ति के लिए की हुई कामना और प्रयत्न- ये दोनों ही निष्फल होंगे।
  • भक्ति की (भगवद् प्रेम)- दूसरी कामना प्रभु प्रेम प्राप्ति की होती है। उसमें अपना किंचिनमात्र भी प्रयोजन नहीं रहता। प्रभु के समर्पित होने का ही प्रयोजन रहता है। प्रेमी तो अपने आपको प्रभु के समर्पित कर देता है, जो कि उसी का अंश है। 

2. लौकिक कामना- लौकिक कामना भी दो प्रकार की होती है-

  • सुख प्राप्त करने की- शरीर को आराम मिले, जीते जी मेरा आदर सत्कार होता रहे, मरने के बाद लोग मुझे याद करें, स्वर्ग की प्राप्ति हो और दिव्य भोगों को भोगते रहें आदि-आदि।
  • दुःख दूर करने की- दूसरी कामना दुःख दूर करने की है। दुःख तीन प्रकार के होते हैं-
  1. आधिदैविक- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सर्दी, गर्मी, वायु आदि से जो दुःख होता है उसको आधिदैविक कहते हैं। यह दुःख देवताओं के अधिकार से होता है।
  2. आधिभौतिक- सिंह, साँप, चोर आदि अन्य प्राणियों से जो दुःख होता है, उसको आधिभौतिक कहते हैं।
  3. आध्यात्मिक- शरीर और अन्तःकरण को लेकर जो दुःख होता है वह आध्यात्मिक होता है। आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार के हैं-
  • आधि (मन की चिन्ता)
  • व्याधि (शरीर का रोग)- व्याधि भी दो प्रकार का होता है- 1. पागलपन 2. चिन्ता-शोक, भय, उद्वेग आदि।

पागलपन तो प्रारब्ध से होता है और चिन्ता-शोक आदि अज्ञान से होते हैं। ज्ञान होने पर चिन्ता, शोक आदि तो मिट जाते हैं, पर पागलपन प्रारब्ध वश रहता है। इन दुःखों को दूर करने की और सुख प्राप्त करने की जो कामना होती है, वह सर्वथा निरर्थक है।

परिशिष्ट भाव

जो हमारे से अलग है, उस संसार को अपना मानना सबसे बड़ा पाप है, दुष्कृत है और जो हमारे से अभिन्न है, उन भगवान को अपना मानना सबसे बड़ा सुकृत है अर्थात् पुण्य है। अतः जो संसार को अपना मानते हैं, वे दुष्कृति हैं और जो भगवान को अपना मानते हैं, वे सुकृति हैं।

जो विज्ञान सहित ज्ञान को अर्थात् परमात्मा के समग्र-रूप को जानना चाहता है, वह जिज्ञासु है। जिज्ञासु को भगवान की लीला-कथा में विशेष रस आता है। भगवान् ने मुमुक्षु न कहकर जिज्ञासु की बात कही है, क्योंकि मुमुक्षु तो केवल तत्त्व ज्ञान चाहने वाला होता है, पर जिज्ञासु ज्ञान चाहने वाला भी हो सकता है और भक्ति चाहने वाला भी। मुमुक्षु में अपने कल्याण की बात मुख्य होती है और जिज्ञासु भक्त को वासुदेवः सर्वम् का ज्ञान होता है।

जिस भक्त को सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार परमात्मा के समग्र रूप का ज्ञान हो गया है, उसको यहाँ ज्ञानी कहा गया है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।