Spirtual Awareness

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।11।।

श्री भगवान बोले-  हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात् सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 11 | Bhagavad Gita Chapter 7) –

कठिन से कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना-आसक्ति रहित शुद्ध, निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होने पर भी ‘‘मेरा कार्य शास्त्र और धर्म के अनुकूल है तथा लोकमर्यादा के अनुसार सन्तजन अनुमोदित (सन्तजनों द्वारा बताया हुआ) है,’’ -ऐसे विचार से मन में एक उत्साह रहता है- इसका नाम बल है। यह बल भगवान् का ही स्वरूप है। अतः यह बल ग्राहय (रहने योग्य) है।

` इस श्लोक में जो बल की बात कही गई है, वह कामना और आसक्ति से रहित है, इसलिए यह सात्विक उत्साह का वाचक है और ग्राहय है।

मनुष्यों में धर्म से अविरूद्ध अर्थात् धर्मयुक्त ‘‘काम’’ मेरा स्वरूप है (यहाँ ‘काम‘ शब्द गृहस्थ धर्म के पालन का वाचक है) कारण कि शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार शुद्धभाव से केवल संतानोत्पत्ति के लिए जो काम होता है, वह काम मनुष्य के अधीन होता है। परन्तु आसक्ति, कामना, सुखभोग आदि के लिए जो काम होता है, उस काम में मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वश में होकर वह न करने लायक शास्त्रविरूद्ध काम में प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरूद्व काम पतन का तथा सम्पूर्ण पापों और दुखों का हेतु होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार केवल संतानोत्पत्ति के लिए काम का सेवन करें अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करे।

जो धर्मविरूद्व काम का आचरण करते हैं, उनको नरकरूप से भगवान् मिलते हैं, क्योंकि नरक भी भगवान् ही बने हैं। परन्तु गीता का उद्देश्य मनुष्य को नरकों में अथवा जन्म-मरण में भेजना नहीं है, प्रत्युत उसका कल्याण करना है। उद्देश्य सदा कल्याण का, आनन्द का ही होता है, दुःख का नहीं। दुःख कोई भी नहीं चाहता।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।