Spirtual Awareness

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्वं न संशय: ।।8।।

श्री भगवान् बोले – मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 8 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

सभी साधकों को भगवान् आज्ञा देते हैं कि मुझ परमेश्वर (God) को ही परम् श्रेष्ठ और परम प्राप्य (प्राप्त होने योग्य) मानकर बुद्धि (Intellect) को मेरे में लगा दे और मेरे को ही अपना परम् प्रियतम मानकर मन को मेरे में लगा दे।

भगवान् (God) से हमारा नित्य योग (Connection) है परन्तु भगवान् में मन-बुद्धि (mind-intellect) न लगने के कारण हमें उनके साथ अपने स्वतः सिद्ध नित्य सम्बन्ध का अनुभव नहीं होता।

मन-बुद्धि लगाने का तात्पर्य यह है कि अब तक मनुष्य जिस मन से जड़ संसार में ममता, आसक्ति, सुख-भोग की इच्छा, आशा (Affection, attachment and hoping to get happiness in this world which is changable) आदि के कारण बार-बार संसार का ही चिन्तन करता रहा है (Thinking only about the worldly matters) और बुद्धि से संसार में ही अच्छे बुरे का निश्चय करता रहा है (Using his intellect to decide whether events happening in this world are right or wrong), उस मन को संसार से हटाकर भगवान् में लगाएँ (Changing the direction of thoughts from worldly affairs towards God) तथा बुद्धि के द्वारा दृृढ़ता से निश्चय करे कि- ‘‘मैं केवल भगवान् का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं तथा मेरे लिए सर्वोपरि, परमश्रेष्ठ एवं परम प्राप्य (प्राप्त होने योग्य) भगवान ही हैं।’’ ऐसा दृढ़ निश्चय (Strong resolution) करने से संसार का चिन्तन और महत्व (Thinking about the world and giving it importance) समाप्त हो जायेगा और एक भगवान् के साथ ही सम्बन्ध रह जायेगा (Only our connection with the Supreme remains)। यही मन-बुद्धि का भगवान् में लगना है।

साधक को चाहिये कि बुद्धि से यह दृढ़ निश्चय कर ले कि ‘‘मुझे भगवत्प्राप्ति ही करनी है’’। इस निश्चय में बड़ी शक्ति है। ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि (Decisive, detremined and focussed mind) होने में सबसे बड़ी बाधा है- भोग और संग्रह का सुख लेना। सुख की आशा से ही मनुष्य की वृत्तियाँ धन, मान-बढ़ाई आदि पाने का उद्धेश्य बनाती हैं। इसलिए उसकी बुद्धि बहुत भेदों वाली तथा अनन्त हो जाती हैं। – (गीता 2/41)

परन्तु अगर भगवत्प्राप्ति का ही एक निश्चय हो, तो इस निश्चय में इनती पवित्रता और शक्ति है कि दुराचारी से दुराचारी पुरुष को भी भगवान साधु मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस निश्चय मात्र के प्रभाव से वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम् शांति प्राप्त कर लेता है (Attains the utmost peace in life)। (गीता 9/30, 31)

“मैं भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं”- ऐसा निश्चय स्वयं से करना है। स्वयं से किया हुआ निश्चय कभी भूलता नहीं। जैसे- ‘‘मैं विवाहित हूँ’’ यह ‘‘मैं’’ पन का निश्चय है, बुद्धि का नहीं। इसलिए मनुष्य इस बात को कभी नहीं भूलता। अगर कोई यह निश्चय कर ले कि ‘मैं अमुक गुरू का शिष्य हूँ’’, तो इस सम्बन्ध के लिए कोई अभ्यास न करने पर भी यह निश्चय उनके भीतर अटल रहता है।

‘‘मैं भगवान का ही हूँ’’ और ‘‘भगवान ही मेरे हैं’’ इस प्रकार ‘‘मैं’’ – पन (स्वयं) के भगवान में लग जाने से मन-बुद्धि भी स्वतः भगवान में लग जाते हैं।

विचार करें (Contemplation) –

अपना स्वरूप नहीं बदला, यह सभी का प्रत्यक्ष अनुभव है। भगवान् कभी नहीं बदले यह भक्तों का अनुभव है। दूसरी ओर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि (Physical Body, Senses, Mind and Intellect) आदि सब के सब बदल गये और संसार भी बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है (It is evident that the world is changable)। इससे सिद्ध हुआ कि कभी न बदलने वाले ‘‘स्वयं’’ और ‘‘भगवान्’’ दोनों एक जाति के हैं। अर्थात् दोनों चेतन होने से एक हैं। परमात्मा और आत्मा नाम से कहे जाते हैं। न बदलने वाले ‘‘स्वयं’’ और ‘‘भगवान्’’ दोनों ही व्यक्त रूप से नहीं दीखते, जबकि बदलने वाले शरीर और संसार दोनों ही व्यक्त रूप से प्रत्यक्ष दीखते हैं (The changeable physical body and the world- both have a form )।

वास्तव में ‘‘मैं क्या हूँ’’ इसका तो पता नहीं, पर ‘‘मैं हूँ’’ इस होने पन में थोड़ा भी सन्देह नहीं है। जैसे संसार प्रत्यक्ष दीखता है, ऐसे ही ‘‘मैं’’ – पन का भी भान होता है (A feeling of ‘I’ ness)। इसलिए तत्वतः ‘‘मैं’’ क्या है, इसकी खोज करना साधक के लिए बहुत उपयोगी है। ‘‘मैं’’ क्या है (“Who am I”) इसका तो पता नहीं परन्तु संसार, शरीर क्या है यह तो दीखता ही है और पता भी चलता है। संसार, शरीर उत्पत्ति विनाशशील वाले हैं, सदा एक से नहीं रहते, यह सब जानते हैं। इस अनुभव की निरन्तर जाग्रति रखनी चाहिये। यह नियम है कि ‘‘संसार’’ या ‘‘मैं’’ दोनोें में से किसी एक का ठीक-ठाक ज्ञान हो जाये तो दूसरे का भी ज्ञान हो जायेगा।

मनुष्यों के हृदय में प्रायः यह बात बैठी हुई है कि कर्म अच्छे होंगे, आचरण अच्छे होंगे, एकान्त में ध्यान लगायेंगे तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी और यदि इस प्रकार साधन नहीं कर पाये तो परमात्मा प्राप्ति असम्भव है। इस भ्रम को दूर करने के लिए भगवान कहते हैं- कि मेरी प्राप्ति का उद्धेश्य रखकर मुझमें ही मन-बुद्धि लगाने पर तू मुझमें ही निवास करेगा। इसमें संशय नहीं है। भगवान का होकर भगवान में लगना ही महत्वपूर्ण है, साधना करना उतना महत्वपूर्ण नहीं।

जब तक बुद्धि में संसार का महत्व है और मन से संसार का चिन्तन होता रहता है, तब तक (परमात्मा में स्वाभाविक स्थिति होते हुये भी) अपनी स्थिति संसार में मालूम पड़ती है। संसार का संग रहने से ही संसार चक्र में घूमना पड़ता है।

भगवान कहते हैं- ‘‘जिस क्षण तेरे मन-बुद्धि एकमात्र मेरे में सर्वथा लग जायेंगे, उसी क्षण तू मुझमें ही निवास करेगा।

मन-बुद्धि भगवान् में लगाने के सिवाय साधक के लिए और कोई कर्तव्य नहीं है। मन भगवान में लगाने से संसार का चिन्तन नहीं होगा और बुद्धि भगवान् में लगाने से साधक संसार के आश्रय से रहित हो जायेगा। संसार का किसी प्रकार का चिन्तन और आश्रय न रहने से भगवान् का ही चिन्तन और भगवान् का ही आश्रय होगा। जिससे भगवान् की ही प्राप्ति होगी।

मैं उसी परमात्मा का अंश हूँ और सर्वथा उसी में स्थित हूँ (I am a part of the Supreme Consciousness / God and always reside/dwell in Him), यह भूलकर वह अपनी अलग सत्ता (Existence) मानने लगता है। जैसे एक करोड़पति का मूर्ख पुत्र उससे अलग होकर अपनी विशाल कोठी के एक कमरे पर अपना अधिकार जमाकर, ‘‘मैने बड़ा काम कर लिया’’, ऐसा सोचता है। परन्तु जब उसे अपनी भूल समझ में आ जाती है तब वह अपने पिता के पास पहुँचकर भूल स्वीकार करता है और उसे उत्तराधिकारी होने में कठिनाई नहीं होती।

इसी लक्ष्य से भगवान् कहते हैं कि जब तू इन मन-बुद्धि को मेरे अर्पण कर देगा (God says when you offer/surrender your mind-intellect unto Me) (जो स्वतः ही मेरे हैं) तो स्वयं इनसे मुक्त होकर (जो वास्तव में पहले से ही मेरा अंश और मेरे में स्थित होने के कारण) निःसन्देह मेरे में ही निवास करेगा।

जैसे पुत्र अपने पिता से विमुख होकर, दोस्तों के चक्कर में पड़ जाये और फिर समय के साथ उसे दुःख मिले और वैराग्य आये तो उसे पिता के पास लौटने में, संकोच और विलम्ब न करके, जो स्वतः सिद्ध अपनेपन का सम्बन्ध है उसका इस्तेमाल करके पिता के पास लौट आना चाहिए। इसीसे उसका कल्याण हो जायेगा।

मन से निश्चय- कोई पूछे केला खाना है? हम सोचेंगे, विचार करेंगे, हाँ, नहीं, ठीक है, आधा ले लेते हैं। ये सब मन से निश्चय हुआ, मन डाँवाडोल होता है।

बुद्धि से निश्चय- कोई पूछे तुम्हारे पास कितने पैसे हैं? थोड़ा सोच विचारकर कितने हैं, हमबता देंगे। ये बुद्धि से निश्चय हुआ।

मन से निश्चय – कोई पूछे केला खाना है? हम सोचेंगे, विचार करेंगे, हाँ, नहीं, ठीक है, आधा ले लेते हैं। ये सब मन से निश्चय हुआ, मन डाँवाडोल होता है।

बुद्धि से निश्चय – कोई पूछे तुम्हारे पास कितने पैसे हैं? थोड़ा सोच विचारकर कितने हैं, हम बता देंगे। ये बुद्धि से निश्चय हुआ।

स्वयं से निश्चय – हम किसी भी अवस्था में हैं, सोये हुए हैं, जगे हैं फिर भी निश्चय रहता है की “मैं विवाहित हूँ या अविवाहित हूँ।” कोई कभी भी पूछे हमें पक्का निश्चय रहता है। यह स्वयं से निश्चय है।

मन के निश्चय डाँवाडोल होते हैं। बुद्धि में निश्चय है पर स्वयं का निश्चय कभी भूलता ही नहीं। ऐसे ही हमारा स्वयं से निश्चय हो जाये की “मैं भगवान का ही हूँ और वे ही मेरे हैं।

भगवान तो सदा ही हमें अपना मानते हैं-सब मम प्रिय सब मम उपजाए। पर हम संसार में अटककर भ्रमित हो गए। हमें वापस भगवान के पास लौटना है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।