Spirtual Awareness

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय: ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।4।।

श्री भगवान् बोले –  जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 3,4 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

भगवान् ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियों को सम्यक् प्रकार से एवं पूर्णतः वश में करे, जिससे वे किसी अन्य विषय में न जाये। इन्द्रियाँ पूर्णतः वश में न होने पर निर्गुण तत्व की उपासना में कठिनता होती है। सगुण उपासना में इन्द्रिय संयम की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है जितनी निर्गुण उपासना में है। सगुण उपासना में तो इन्द्रियाँ भगवान् में लग सकती हैं, निर्गुण उपासना में चिन्तन का कोई आधार न रहने से इन्द्रियों का सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहने पर) विषयों में मन जा सकता है और विषयों का चिन्तन होने से पतन की सम्भावना रहती है। अतः निर्गुणोपासक के लिए सभी इन्द्रियों को विषयों से हटाते हुए सम्यक् प्रकार से पूर्णतः वश में करना आवश्यक है। इन्द्रियों को केवल बाहर से ही वश में नहीं करना है प्रत्युत विषयों के प्रति साधक के अन्तःकरण में भी राग नहीं रहना चाहिए। क्योंकि जब तक विषयों में राग है तब तक ब्रह्म की प्राप्ति कठिन है।

गीता में इन्द्रियों को वश में करने की बात विशेष रूप से जितनी निर्गुणोपासना तथा कर्मयोग में आई है उतनी सगुणोपासना में नहीं है।अब भगवान ने कहा है-

कूटस्थम्- यह पद निर्विकार, सदा एक रस रहने वाले सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का वाचक है। सभी देश-काल, वस्तु-व्यक्ति आदि में रहते हुए भी वह तत्त्व सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहता है। उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिए वह कूटस्थ है। ‘कूट’ (अहरन, निहाई) में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र, औजार एवं तरह-तरह के गहने आदि पदार्थ गढ़े जाते हैं, पर कूट ज्यों का त्यों रहता है। इसी प्रकार संसार के भिन्न-भिन्न प्राणी पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश होने पर भी परमात्मा सदा ज्यों के त्यों रहते हैं।अचलम’- प्रकृति ‘चल’ है अर्थात् परिवर्तनशील है और ब्रह्म ‘अचल’ है अर्थात् एकरस है।

ध्रुवम- जिसकी सत्ता निश्चित (सत्य) और नित्य है, उसको ‘ध्रुव’ कहते हैं। सच्चिदानन्दघन ब्रह्म सत्ता रूप से सर्वत्र विद्यमान रहने से ‘ध्रुवम्’ है। उस तत्व का कभी कहीं किंचिन्मात्र भी अभाव नहीं होता। उसकी सत्ता से ही असत् संसार को सत्ता (Energy) मिल रही है।

अक्षरम्- जिसका कभी ‘क्षरण’ अर्थात् विनाश नहीं होता तथा जिसमें कभी कोई कमी नहीं आती, वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ‘अक्षरम्’ है।

‘अव्यक्तम्’- जो व्यक्त न हो, अर्थात् मन-बुद्धि इन्द्रियों का विषय न हो और जिसका कोई रूप या आकार न हो, उसको ‘अव्यक्तम्’ कहा गया है।

पर्युपासते- शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहम् भाव का अभाव तथा भाव रूप सच्चिदानन्दघन परमात्मा में अभिन्न भाव से (अपने को आत्मा जानना) नित्य निरन्तर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है।

सर्वभूतहिते रताः- कर्मयोग के साधन में आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थ के त्याग की मुख्यता है। मनुष्य जब शरीर, धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों को अपना और अपने लिए न मानकर उनको दूसरों की सेवा में लगाता है तब उसकी आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थ भाव का त्याग स्वतः हो जाता है। जिसका उद्देश्य प्राणी मात्र की सेवा करना ही है। वह अपने शरीर और पदार्थों को (दीन-दुःखी, अभावग्रस्त) प्राणियों की सेवा में लगायेगा ही। शरीरों को दूसरों की सेवा में लगाने से अहमता और पदार्थों को दूसरों की सेवा में लगाने से ममता नष्ट होती है। साधक का पहले से ही यह लक्ष्य होता है कि जो पदार्थ सेवा में लग रहे हैं वे सेव्य के ही हैं।

अतः कर्मयोग के साधन में सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहना अत्यन्त आवश्यक है। कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए कर्मयोग की प्रणाली को अपनाने की आवश्यकता ज्ञानयोग में भी है।

एक बात खास ध्यान देने की है कि शरीर, पदार्थ, क्रिया से जो सेवा की जाती है वो सीमित ही होती है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियायें मिलकर भी सीमित ही हैं।

परन्तु सेवा में प्राणीमात्र के हित का भाव असीम होने से सेवा भी असीम हो जाती है। अतः पदार्थों के अपने पास रहते हुए भी उनमें आसक्ति, ममता आदि न करके उनको सम्पूर्ण प्राणियों का मानकर उन्हीं की सेवा में लगाना है। क्योंकि वे पदार्थ समष्टि के ही हैं अर्थात् भगवान् के हैं। ऐसा असीम भाव होने पर जड़ता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने के कारण साधक को असीम तत्व (परमात्मा) की प्राप्ति हो जाती है।

जो साधक संसार से उदासीन (संसार से दूर) रहकर कहीं एकान्त में तत्त्व का चिन्तन करते रहते हैं, जिन्होंने कर्मों का स्वरूप से त्याग कर दिया है, परन्तु भोगों से वैराग्य और शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि में अपने-पन के त्याग की जो अत्यन्त आवश्यकता है वह रह जाती है। – (गीता 3/4) उस व्यक्तितत्त्वपने को दूर करने के लिए संसार मात्र के हित का भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है।

साधक का प्राणीमात्र के हित में लगने से शरीर से तादात्म्य और पदार्थों एवं व्यक्तियों से ममता मिटती है। उसे वैराग्य आता है। इसके लिए साधक को प्राणीमात्र के हित में लगना आवश्यक है।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।