Spirtual Awareness

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ।।20।

श्री भगवान् बोले – परन्तु जो श्रद्वायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुये धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 20 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

‘‘श्रद्दधाना’’- श्रद्वालु भक्त भगवान के धर्ममय अमृत रूप उपदेश को (जो भगवान ने 13वें से 19वें श्लोक तक कहा है) भगवद्प्राप्ति के उद्देश्य से अपने में उतारने की चेष्टा किया करते हैं।

भक्त के साधन में श्रद्वा और प्रेम का तथा ज्ञान के साधन में विवेक का महत्व होता है। वास्तव में श्रद्वा और विवेक की सभी साधनों में बड़ी आवश्यकता है। विवेक होने से भक्ति-साधन में तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रों में तथा परमात्म तत्व में श्रद्धा होने से ही ज्ञान-साधन का पालन हो सकता है। इसलिये भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनों में श्रद्वा और विवेक सहायक है।

“मत्परमा”- साधक भक्तों का सिद्ध भक्तों में अत्यन्त पूज्य भाव होता है। उनकी सिद्ध भक्तों के गुणों में श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणों को आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसरण करने के लिये भगवान् के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान् का चिन्तन करने से और भगवान पर ही निर्भर रहने से वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं।

भगवद् परायण होने पर भगवद् कृपा से अपने आप साधन होता है और असाधन (साधनों के विघ्नों) का नाश होता है। जिस साधन में साधन विरोधी अंश सर्वथा नहीं होता, वह साधन अमृत तुल्य होता है।

जब साधक का उद्देश्य किंचित मात्र भी धन, मान-बढ़ाई, आदर-सत्कार, संग्रह, सुख-भोग आदि न होकर एक मात्र भगवत्प्राप्ति ही हो, तभी धर्ममय अमृत का सेवन हुआ।

प्रत्येक प्राणी में गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं। साधक सत्संग तो करता है, पर साथ ही साथ कुसंग भी करता है। वह संयम तो करता है, पर साथ ही साथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है, पर साथ ही साथ असाधन भी होता रहता है। जब तक साधन के साथ असाधन अथवा गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तब तक साधक की साधना पूर्ण नहीं होती, अर्थात् भगवत्प्राप्ति नहीं होती। अतः इस विषय में साधक को विशेष सावधान रहना चाहिये। यदि साधन में किसी कारण वश आंशिक रूप से कोई दोषमय वृत्ति उत्पन्न हो जाय तो उसकी अवहेलना न करके तत्परता से उसे हटाने की चेष्टा करनी चाहिये। चेष्टा करने पर भी न हटे तो व्याकुलता पूर्वक प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिये।

जितने सदगुण, सदाचार, सदभाव आदि हैं, वे सब के सब सत्य परमात्मा के सम्बन्ध से ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण, दुराचार, दुर्भाव आदि सब असत्य के सम्बन्ध से ही होते हैं। दुराचारी पुरुषों में भी सदगुण सदाचार का सर्वथा अभाव नहीं होता, क्योंकि सत परमात्मा का अंश होने के कारण जीव मात्र का ‘‘सत्’’ से नित्य सिद्ध सम्बन्ध है। परमात्मा से सम्बन्ध रहने के कारण किसी न किसी अंश में उसमें सदगुण सदाचार रहेंगे ही। परमात्मा की प्राप्ति होने पर असत् से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और दुर्गुण, दुराचार, दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।

सदगुण, सदाचार, सदभाव भगवान की सम्पत्ति हैं। इसलिए साधक जितना ही भगवान के सन्मुख अथवा भगवद् परायण होता जायेगा, उतने ही अंश में स्वतः सदगुण, सदाचार प्रकट होते जायेंगे ओैर दुर्गुण नष्ट होते जायेंगे।

राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि अन्तःकरण के विकार हैं, धर्म नहीं- (गीता 13/6) धर्मी के साथ धर्म का नित्य सम्बन्ध रहता है। जैसे सूर्य रूप धर्मी के साथ ऊष्णता रूप धर्म का नित्य सम्बन्ध रहता है, जो कभी मिट नहीं सकता। धर्मी और धर्म साथ-साथ रहते हैं। काम-क्रोध आदि विकार साधारण मनुष्य में भी हर समय नहीं रहते, साधन करने वाले में कम होते रहते हैं और सिद्व पुरुष में तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि यह विकार अन्तःकरण के धर्म होते, तो हर समय एक रूप से रहते और अन्तःकरण- (धर्मी) के रहते हुये कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अन्तःकरण के धर्म नहीं, प्रत्युत आगन्तुक (आने जाने वाले) विकार हैं। साधक जैसे-जैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान् की ओर बढ़ता है, वेैसे ही वैसे राग-द्वेष आदि विकार मिटते जाते हैं और भगवान् को प्राप्त होने पर उन विकारों का अत्यंत अभाव हो जाता है।

“पर्युपासते”- साधक भक्तों की दृष्टि में भगवान के प्यारे सिद्व भक्त अत्यन्त श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान् की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होने के कारण उनमें दैवी सम्पत्ति अर्थात् सदगुण (भगवान् के होने से) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकों का उन सिद्ध महापुरुषों के गुणों के प्रति स्वाभाविक आदर भाव होता है और वे उन गुणों को अपने में उतारने की चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तों द्वारा  उन गुणों का अच्छी तरह से सेवन करना, उनको अपनाना है।

साधक में सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति करूणा का भाव पूर्ण रूप से भले ही न हो, पर उसमें किसी प्राणी के प्रति अकरूणा (निर्दयता) का भाव बिल्कुल भी नहीं रहना चाहिये।

साधक में भगवद् प्राप्ति की तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होने पर उसके अवगुण अपने आप नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणों को खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपने आप होने लगता है। इस कारण उसको भगवद्प्राप्ति जल्दी और सुगमता से हो जाती है।

“भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:”- भक्ति मार्ग पर चलने वाले भगवदाश्रित साधकों के लिए यहाँ ‘भक्ताः’ पद प्रयुक्त हुआ है।

भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के 53वें श्लोक में (11/53) वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदि से अपने दर्शन की दुर्लभता बताकर 54वें श्लोक में अनन्य भक्ति से अपने दर्शन की सुलभता का वर्णन किया। फिर 55वें श्लोक में अपने भक्तों के लक्षणों के रूप मे अनन्य भक्ति के स्वरूप का वर्णन किया। इस पर अर्जुन ने जब यह प्रश्न किया कि सगुण साकार के उपासकों और निर्गुण निराकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन है ? भगवान् ने उत्तर में सगुण साकार की उपासना करने वाले उन साधकों को श्रेष्ठ बताया, जो भगवान में मन लगाकर अत्यन्त श्रद्वापूर्वक उनकी उपासना करते हैं।

सिद्व भक्तों को ‘‘प्रिय’’ और साधकों को ‘‘अत्यन्त प्रिय’’ बताने के कारण इस प्रकार हैं-

  • सिद्व भक्तों को तो तत्व का अनुभव अर्थात् भगवद् प्राप्ति हो चुकी है किन्तु साधक भक्त भगवद् प्राप्ति न होने पर भी श्रद्वापूर्वक भगवान के परायण होते हैं। इसलिए वे भगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं।
  • सिद्व भक्त भगवान के बडे पुत्र के समान हैं। ‘‘मोरें प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी’’

परन्तु साधक भगवान् के छोटे-अबोध बालक के समान हैं- ‘‘बालक सुत सम दास अमानी’’ -(मानस 3/43/4) छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिए भगवान् को भी साधक भक्त अत्यन्त प्रिय हैं।

परिशिष्ट भाव –

कर्तव्य को धर्म कहते हैं, जो धर्म से विचलित नहीं होता उसको “धर्म्य” कहते हैं। सब कुछ भगवान ही हैं इसके समान कोई दूसरा सिद्धांत हेै ही नहीं, इसलिए यह धर्म्य है। –(गीता- 9/2)

श्रद्वा साधक में होती है, सिद्व में अनुभव होता है। एक भगवान् का अनुभव हो जाने पर श्रद्वा का काम पूरा हो गया। साधक की दृष्टि में दूसरी (संसार) सत्ता रहती है, इसलिए वह उपासना करता है (पर्युपासते) और उसका यह भाव रहता है कि भगवान के सिवाय अगर कुछ है (संसार) तो वह भी भगवान् की ही लीला है।

श्रीमद् भागवत में भगवान कहते हैं- (11/29/17) जब तक सम्पूर्ण प्राणियों में मेरा भाव अर्थात ‘‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’’– ऐसा वास्तविक भाव न होने लगे, तब तक इस प्रकार मन, वाणी और शरीर की सभी वृत्तियों (बर्ताव) से मेरी उपासना करता रहे।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।