Spirtual Awareness

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ।।2।।

श्री भगवान् बोले –  मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से मुक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 2 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

नित्य युक्ताः – का तात्पर्य है कि साधक स्वयं भगवान् में लग जाये। ‘‘भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान् का ही हूँ”। यही स्वयं का भगवान् में लगना है। स्वयं का दृढ़ उद्देश्य भगवद् प्राप्ति होने पर ही मन -बुद्धि स्वतः भगवान् में लगते हैं। इसके विपरीत यदि हम मन-बुद्धि को भगवान् में लगाने का यत्न करेंगे तो वे पूरी तरह भगवान् में लगे न लगें। परन्तु जब स्वयं ही अपने आपको भगवान् का मान लें तब तो मन-बुद्धि भगवान् में तल्लीन हो ही जायेंगे।

साधक से भूल यह होती है कि वह स्वयं को संसारी मानता है और मन-बुद्धि को भगवान् में लगाने का अभ्यास करता है। स्वयं भगवान् का हुए बिना मन-बुद्धि को भगवान् में लगाना कठिन है। इसलिए साधकों की यह व्यापक शिकायत रहती है कि हमारा मन भगवान् में नहीं लगता। मन-बुद्धि एकाग्र होने से समाधि आदि तो हो सकती है परन्तु कल्याण स्वयं के भगवान् में लगने से ही होगा।

उपासना का तात्पर्य है – स्वयं (अपने आपको) भगवान् के अर्पित करना कि मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही मेरे हैं। स्वयं को भगवान् के अर्पित करने से नाम-जप, चिन्तन, ध्यान, सेवा-पूजा, आदि तथा शास्त्रविहित् क्रिया मात्र स्वतः भगवान् के लिए ही होती हैं।

शरीर प्रकृति का और जीव भगवान् (परमात्मा) का अंश है। प्रकृति के कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् से तादात्म्य, ममता और कामना न करके केवल भगवान् को ही अपना मानने वाला यह कह सकता है कि ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं।’ जीव का चेतन और नित्य होने के कारण भगवान् से स्वतः सिद्ध सम्बन्ध है किन्तु उस वास्तविक सम्बन्ध को भूलकर जीव ने अपना सम्बन्ध प्रकृति एवं उसके कार्य शरीर से मान लिया, जो अवास्तविक है। शरीर से सम्बन्ध टूटते ही भगवान् से अपना वास्तविक और नित्य सिद्ध सम्बन्ध प्रकट हो जाता है अर्थात् उसकी स्मृति प्राप्त हो जाती है।

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत (18/73)

जड़ता (प्रकृति) (शरीर) से सुख-भोग करते रहने के कारण जीव शरीर से मैंपन का सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् मैं शरीर हूँ- ऐसा मान लेता है। और वर्ण-आश्रम, जाति, नाम, व्यवसाय, बालकपन तथा जवानी आदि अवस्थाओं को अपनी ही मानता रहता है। यह भूल से की हुई सम्बन्ध की मान्यता (मैं शरीर हूँ- ऐसा मान लेना) इतनी दृढ़ रहती है कि बिना याद किये सदा याद रहती है। अगर वह अपने सजातीय (चेतन और नित्य) परमात्मा के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध को पहचान ले तो किसी भी अवस्था में परमात्मा को नहीं भूल सकता। फिर उठते -बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते हर समय प्रत्येक अवस्था में भगवान् का स्मरण चिन्तन स्वतः होने लगता है।

जहाँ प्रेम होता है, वहाँ मन लगता है और जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ बुद्धि लगती है। प्रेम में प्रेमास्पद के संग की तथा श्रद्धा में आज्ञापालन की मुख्यता रहती है। एकमात्र भगवान् में प्रेम होने से भक्त को भगवान् के साथ नित्य निरन्तर सम्बन्ध् का अनुभव होता है, कभी वियोग का अनुभव होता ही नहीं। इसलिए भगवान् के मत में ऐसे भक्त उत्तम योगवेत्ता हैं (सर्वश्रेष्ठ योगी)। 

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी – श्रीस्वामी रामसुखदासजी।