Spirtual Awareness

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ।।17।।

श्री भगवान् बोले –  जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्ति युक्त पुरुष मुझको प्रिय है।

व्याख्या (Interpretation Of Sloka 17 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

मुख्य विकार चार होते हैं – राग,  द्वेष (Malice),  हर्ष (Joy),  शोक (Grief) (दुःख)।

सिद्ध भक्त में ये चारों विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसार का प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान् से कभी वियोग होता ही नहीं। संसार के साथ कभी संयोग था नहीं, है नहीं, रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। संसार की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है- इस वास्तविकता का अनुभव कर लेने के बाद भक्त का केवल भगवान् के साथ अपने नित्य सिद्ध सम्बन्ध का अनुभव अटल रूप से रहता है। इस कारण उसका अन्तःकरण राग-द्वेष आदि विकारों से सर्वथा मुक्त होता है। संसार की सत्ता नहीं है केवल एक भगवान की ही सत्ता है। ऐसा साक्षात्कार होने पर भक्त के सब विकार सर्वथा मिट जाते हैं।

साधनावस्था में भी साधक ज्यों-ज्यों साधन में आगे बढ़ता है, त्यों ही त्यों उसमें राग-द्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होने वाला होता है, वह मिटने वाला भी होता है। अतः जब साधनावस्था में ही विकार कम होने लगते हैं तब सिद्धावस्था में भक्त में ये विकार नहीं रहते, पूर्णतया मिट जाते हैं।

हर्ष और शोक दोनों राग-द्वेष के ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है, उसके संयोग से और जिसके प्रति द्वेष होता है उसके वियोग से हर्ष होता है। सिद्ध भक्त में राग-द्वेष का अत्यन्त अभाव होने से स्वतः एक साम्यावस्था निरन्तर रहती है। इसलिए वह विकारों से सर्वथा रहित होता है।

जैसे- रात्रि के समय अंधकार में दीपक जलाने की कामना होती है। कोई दीपक जला दे तो हर्ष होता है, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है। और पुनः दीपक कैसे जले- ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होने से ये चारों बातें होती हैं। परन्तु दिन में दीपक जलाने की कामना नहीं होती, दीपक जलाने से हर्ष नहीं होता, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और अंधेरा न होने से प्रकाश के अभाव की चिन्ता भी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान से विमुख और संसार के सम्मुख होने से शरीर निर्वाह और सुख के लिए अनुकूल पदार्थ, परिस्थिति आदि के मिलने की कामना होती है। इनके मिलने पर हर्ष होता है, इनकी प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है और इनके न मिलने पर – ‘‘कैसे मिलें’’ ऐसी चिन्ता होती है। किन्तु जिसको भगवत् प्राप्ति हो गई है, (जैसे सूर्य निकल आया हो) उसमें ये विकार कभी नहीं रहते। वह पूर्णकाम हो जाता है| अतः उसको संसार की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

‘‘शुभाशुभपरित्यागी’’- ममता, आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर ही शुभ कर्म करने के कारण भक्त के कर्म ‘‘अकर्म’’ हो जाते हैं। इसलिए भक्त को शुभ कर्मों का भी त्यागी कहा गया है। राग-द्वेष का सर्वथा अभाव होने के कारण उससे अशुभ कर्म होते ही नहीं। अशुभ कर्मों के होने में कामना, ममता, आसक्ति ही प्रधान कारण हैं और भक्त में इनका सर्वथा अभाव होता है। इसलिए उसको अशुभ कर्मों का भी त्यागी कहा गया है। राग-द्वेष का सर्वथा त्याग करने वाला ही सच्चा त्यागी है।

मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत कर्मों में राग-द्वेष ही बाँधते हैं। भक्त के सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेष रहित होते हैं, इसलिए वह शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मों का परित्यागी है।

शुभाशुभपरित्यागी पद का अर्थ शुभ और अशुभ कर्मो के फल का त्यागी भी लिया जा सकता है। शुभ और अशुभ कर्मों में राग-द्वेष का त्यागी ही सच्चा त्यागी है।

भक्त की भगवान में अत्यधिक प्रियता रहती है। उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भगवान का चिन्तन, स्मरण, भजन होता रहता है। ऐसे भक्त को यहाँ ‘‘भक्तिमान’’ कहा गया है।

भक्त का भगवान में अनन्य प्रेम होता है, इसलिए वह भगवान को प्रिय होता है

नारद भक्ति सूत्र में भी आया है – (श्लोक नं. 5) ‘‘जिस भक्ति के प्राप्त होने पर भक्त न तो किसी वस्तु की इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तु में आसक्त होता है और न उसे किसी वस्तु की प्राप्ति में उत्साह (हर्ष) होता है।”

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।