Spirtual Awareness

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कर्वन्सिद्धिमवास्यसि ।।10।।

श्री भगवान् बोले – यदि तू उपर्युक्त अभ्यास योग में असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।

व्याख्या (Interpretation of Sloka 10 | Bhagavad Gita Chapter 12)-

भगवान् कहते हैं कि अगर तू अभ्यास योग में असमर्थ है तो केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्म करने के परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों (वर्ण, आश्रम, धर्म अनुसार, शरीर निर्वाह और आजीविका सम्बन्धी लौकिक एवं भजन (Bhajan), ध्यान (Meditation), नाप-जप (Chanting) आदि पारमार्थिक कर्मों (Spiritual Deeds)) का उद्धेश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो।

जो कर्म भगवत्प्राप्ति के लिए भगवद आज्ञा अनुसार किए जाते हैं, उनको ‘मत्कर्म’ कहते हैं। साधक का अपना सम्बन्ध भी भगवान् से हो और कर्मों का सम्बन्ध भी भगवान् के साथ रहे, तभी ‘मत्कर्म’ परायणता सिद्ध होगी।

साधक का धेय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा, तब निषिद्ध क्रियायें सर्वथा छूट जाएँगी। क्योंकि निषिद्ध क्रियाओं के अनुष्ठान में संसार की ‘‘कामना’’ ही हेतु है।- (गीता 3/37)

अतः भगवत्प्राप्ति का ही उद्धेश्य होने से साधक की सम्पूर्ण क्रियायें शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी।

जैसे धन (Money) प्राप्ति के लिए व्यापार (Business) आदि कर्म करने वाले मनुष्य को ज्यों-ज्यों धन प्राप्त  होता है, त्यों-त्यों उसके मन में धन का लोभ और कर्म करने का उत्साह बढ़ता है। ऐसे ही साधक जब भगवान् के लिए सम्पूर्ण कर्म करता है तब उसके मन में भी भगवद् प्राप्ति की उत्कण्ठा और साधन करने का उत्साह बढ़ता रहता है। उत्कण्ठा तीव्र होने पर जब उसको भगवान् का वियोग असहृय हो जाता है तब सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् उससे छिपे नहीं रहते। भगवान् अपनी कृृपा से उसको अपनी प्राप्ति करा ही देते हैं।

यदि साधक का उद्धेश्य भगवद् प्राप्ति ही है और सम्पूर्ण क्रियायें वह भगवान् के लिए ही करता है तो इसका अभिप्राय यह है कि उसने अपनी सारी समझ, सामग्री, सामर्थ्य और समय भगवद्प्राप्ति के लिए लगा दिया। इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता है? भगवान उस साधक से इससे अधिक अपेक्षा भी नहीं रखते। अतः उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। भगवान् अपनी प्राप्ति के लिए साधक से इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी योग्यता, सामर्थ्य आदि को मेरी प्राप्ति में लगा दे तथा इन योग्यता, सामर्थ्य आदि को अपनी भी न समझे।

भावार्थ- 

अभ्यास की अपेक्षा क्रियाओं को भगवान के अर्पण करना सरल है। कारण है कि अभ्यास तो हमारे लिए एक नया काम है जो करना पड़ता है पर कर्म करने की आदत हमको पड़ी हुई है इसलिए वे स्वतः होते हैं। अपने लिए कर्म करने से मनुष्य बँधता है और भगवान के अर्पण करने से मनुष्य सुगमतापूर्वक भगवान को प्राप्त हो जाता है। – (गीता 9/27, 28)

’मदर्थमपि’ पद का तात्पर्य है कि आरम्भ से भगवान् के लिए ही कर्म किए जाएँ।

संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।