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Haridas

श्री बिहारी जी महाराज के प्रिय जिनकी असीम पे्रमाभक्ति के कारण आज लाखों-करोड़ो भावुक भक्तों को श्री बिहारी जी महाराज के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आइए, इन स्वामी हरिदास जी के विषय में कुछ जाने-

जन्म एवं किशोरावस्था

गर्भाचार्य के ये वशंज, परम्परा से श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे, मुल्तान के उच्चग्राम को, जो अब पाकिस्तान में है, इन्होंने अपना केन्द्र बनाया। आगे चलकर सैंकड़ों पीढि़यों के बाद इसी वंश में स्वामी श्री आशुधीर जी महाराज का आविर्भाव हुआ। इनकी पत्नी का नाम गंगा देवी था। मान्यता है कि श्री आशुधीर जी और गंगादेवी क्रमशः श्री गिरराज गोवर्धन और मानसी गंगा के अवतार थे। स्वामी श्री हरिदास जी इन्ही के आत्मज थे।

हरिदास जी के जन्म से पूर्व स्वामी आशुधीर जी अनेक तीर्थो का भ्रमण-दर्शन करते हुए अलीगढ़ जनपद की ‘‘कोल’’ तहसील में ब्रज के किनारे आकर एक गाँव में ठहरे। वहाँ गाँववासियों के आत्मीयतापूर्ण मधुर व्यवहार और आग्रह को देखकर वे वहीं बस गये। इसी गाँव में रहते हुए गंगादेवी ने क्रमशः तीन पुत्रों को जन्म दिया- हरिदास जी, जगन्नाथ जी और श्री गोविन्द। यूँ तो तीनों ही भाई बड़े संस्कारी थे, किन्तु उनमें हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। ये बचपन से ही एकान्तप्रिय थे। अनासक्त भाव से भगवद् भजन में लीन रहने से इन्हें बड़ा सुख मिलता था। श्री हरिदास जी का कण्ठ बड़ा ही मधुर था, जब वे कोई भजन गाते थे या कोई रागिनी छेड़ते थे तो गाँव भर के स्त्री-पुरूष, बूढ़े-बच्चे अपना काम छोड़कर उन्हें आ घेरते थे और गीत के मुग्ध कर देने वाले राग को सुनकर आनन्द-रस में निमग्न हो जाते।

धीरे-धीरे श्री हरिदास जी के यश का प्रकाश आस-पास के गाँव में भी फैल गया और किशोर अवस्था से बड़े होते-होते उनका यश इतना फ़ैल गया कि लोग इनके गाँव को ‘‘श्री हरिदास जी का गाँव’’ कहकर पुकारने लगे, जो आगे चलकर ‘‘हरिदास’’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है।

विवाह

अभी तीनों भाइयों ने यौवन की दहली पर पैर रखा ही था कि उनका विवाह हो गया। तीनों भाई गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो गये किन्तु श्री हरिदास जी के लिये जैसे कुछ हुआ ही नहीं, वे अब भी पूर्व की तरह अपनी साधना में लीन रहते थे। थोड़े वर्ष पश्चात् दोनों भाइयों को सन्तान प्राप्ति हुई, इनमें गोविन्द जी के दो पुत्र थे- श्री विट्ठलविपुल जी और श्री कृष्णप्रसाद जी।

स्वामी हरिदास जी की आसक्ति तो केवल अपने श्यामा कुंजबिहारी में थी, परन्तु अपने भतीजों से भी उन्हें स्नेह था क्योंकि वे सब भी संस्कारी थे, श्री हरि से उनका प्रेम था, इसलिये वे सदा उन्हें हरि भक्ति का ही उपदेश देते थे।

पत्नी का शरीर त्याग

हरिदास जी की पत्नी का नाम हरिमती था। एक दिन हरिमती जी से गंगादेवी ने कहा- बेटी मैं तेरी पीड़ा समझती हूँ, पर क्या करूँ कुछ कह नहीं सकती, मुझे भय लगता है कि कहा-सुनी करने से कहंी वह घर छोड़कर चला ना जाये।

हरिमती जी ने गम्भीर स्वर से कहा- माताजी! मुझे वह पीड़ा तनिक भी नहीं है, जिसका अनुमान आप लगा रही हैं, मैं तो ये सोचकर दुःखी हूँ कि इन्होनें मुझे अपने भक्तिमार्ग की बाधा समझ लिया है। गंगादेवी ने कहा- तो फिर तुम आज हरिदास से बात करके देखो।

रात्रि का समय था। चारों ओर चन्द्रमा का प्रकाश फैला हुआ था। हरिदास जी अपने कक्ष में साधनालीन थे। तभी हल्की सी आहट के साथ दरवाजा खोलकर हरिमती जी ने प्रवेश किया। हरिदास जी ने आँखे खोली तो उन्हें पास जलते दीपक के मन्द प्रकाश में हरिमती जी दिखाई दी-

>आप अभी तक सोई नहीं ?- हरिदास जी ने पूछा। हे प्राणनाथ मैं आपकी अनुगामिनी हूँ, आप जागें और मैं सोऊँ हरिमती जी ने उत्तर दिया।

तो तुम भी अपने कक्ष में जाकर श्री हरि की आराधना करो- हरिदास जी ने समझाया

आप जिस भी लक्ष्य की ओर बढ़ेगें, मैं आपको वचन देती हूँ कि मैं सदा आपके पीछे रहूँगी- हरिमती जी ने कहा

हरिदास जी ने एक क्षण सोचकर कहा- ‘‘इसका प्रमाण’’ इतना सुनते ही हरिमती जी के मुखमण्डल पर तेज आ गया, उन्होने वहाँ जलते हुए दीपक से हाथ जोड़कर कहा- ‘‘हे अग्नि देव! स्वामी प्रमाण माँग रहे हैं, मेरी कुछ सहायता करो।’’

उसी क्षण दीपक में से दिव्य ज्योति प्रकट हुयी और उसने हरिमती जी की देह को हरिदास जी के चरणों में विलीन कर दिया।

कुछ देर बाद परिवार के अन्य सदस्य भी वहा आ गए। हरिदास जी ने सब कुछ दिया, किन्तु उनके माता-पिता के अतिरिक्त किसी को भी इस बात पर विश्वास न हुआ।

गृहत्याग एवं वृन्दावन गमन

वर्तमान में हरिमती जी की समाधि ‘‘विजय सती’’ की समाधि के नाम से वृन्दावन के विद्यापीठ चैराहे पर बनी हुई है। पत्नी के शरीर त्याग के उपरान्त हरिदास जी अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो उठे, एक दिन सु-अवसर पाकर उन्हांेेनें अपने पिता श्री आशुधीर जी महाराज से कहा- पिता जी आप मेरे पिता ही नहीं गुरु भी हैं आपने ही मुझे वैष्णवी दीक्षा दी। आपने मुझे श्री हरि की भक्ति का जो उपदेश दिया आज उस उपदेश के पथ पर अग्रसर होने का अवसर आ गया है। वृन्दावन धाम और मेरे प्राणप्रिय निंकुज बिहारी मुझे बुला रहे हैं। मुझे मेरे गन्तव्य पथ पर जाने की आज्ञा दीजिये।

पुत्र की बात सुनकर आशुधीर जी ने कहा- ‘‘जाओ अनुमति है, कोटि-कोटि शुभकामनाओं के साथ अनुमति है!’’ हरिदास जी माता-पिता की चरण धूलि अपने मस्तक पर रखकर जैसे ही चलने लगे तो सारे गाँववासी और परिवारी जन उनके पीछे हो लिये, हरिदास जी को हँसी आ गयी, बोले- मैं वृन्दावन जा रहा हूँ, देखा है तुम लोगो ने ? वहाँ घोर जंगल है, हिसंक जानवर हैं, आप थोडे़ दिन और यहीं रहें, जैसे ही कुछ इन्तजाम हो जायेगा तो आप लोग भी आ जाना। हरिदास जी जाते समय अपने भाई गोविन्द को माता-पिता एवं अपने आराध्य राधा रमण की सेवा का भार सौंपते गये। गोविन्द जी का बड़ा पुत्र विट्ठलविपुल हरिदास जी के पीछे-पीछे चल दिया, हरिदास जी ने उसका प्रेम एवं सेवा भाव देखकर उसे साथ रहने दिया। पच्चीस वर्ष की अवस्था में सं. 1560 में यमुना जी को पार करके उसके किनारे जहाँ आज निधिवन है उस स्थान पर ही साधनारत हो गये।

बाँके बिहारी जी का प्राकट्य

हरिदास जी के वृन्दावन पहुँचते ही वृन्दावन का दिव्य स्वरूप प्रकट हो गया, इस दिव्य मनोहर वातावरण में स्वामी हरिदास जी जब तानपुरा लेकर संगीत शुरू करते तो सम्पूर्ण वृन्दावन झूमने लगता और कुंजो के भीतर से निकल कर नूपुरों की सुमधुर झनकार विट्ठलविपुल जी को आश्चर्यचकित कर देती, वे सोचने लगते ये तो स्वामी जी के तानपुरे की झंकार नहीं है, फिर ये ध्वनि कैसी है और कहाँ से आ रही है?

एक दो बार उन्होंने स्वामी जी से पूछा भी तो स्वामी जी ने उत्तर दिया कि समय आने पर सब समझ जाओगे। इधर गोविन्द जी ने सोचा कि कई वर्ष हो गये विट्ठलविपुल वापिस नहीं आया, उनका हृदय पुत्र वियोग से व्याकुल हो गया। पुत्र से मिलने की इच्छा से अधीर होकर जैसे ही वे वृन्दावन जाने के लिये तैयार होने लगे तो उनके पिता आशुधीर जी ने उन्हें रोक दिया और उनके स्थान पर उनके दूसरे भाई जगन्नाथ जी को वृन्दावन भेज दिया।

जगन्नाथ जी जब वृन्दावन पहुँचे तो उन्होंने लताओं से घिरे हुऐ निकंुज के द्वार पर तानपुरा बजाते हुये स्वामी हरिदास जी और विट्ठलविपुल जी के दर्शन किये, दोनों ध्यानमग्न से थे।

कुछ देर बाद जब स्वामी जी स्थूल जगत में वापस लौटे तो उन्होनें जगन्नाथ जी की ओर देखकर कहा- स्थायीरूप से वृन्दावन के लिये कब आ रहे हो ? उत्तर में जगन्नाथ जी चरणों में लिपट गये, बोले- गुरुदेव! अब मुझे जाने के लिये न कहें।

प्रसन्न होकर स्वामी जी ने कहा- मैं तो चाहता हूँ कि सब प्राणी जल्दी-जल्दी इस रस वृन्दावन में आजाएँ ताकि विभिन्न योनियों के चक्कर काटने से बच जाएँ। धीरे-धीरे बहुत सारे भक्त वृन्दावन आने लगे।

स्वामी जी जिस निंकुज के द्वार पर बैठकर संगीत की रागिनी छेड़ते हैं उसके भीतर कौन विद्यमान है, जिससे वे एकान्त में बातें करते हैं इस कौतुहल से विट्ठलविपुल जी ने कई बार झाँक कर देखा, किन्तु उन्हें अंधेरे के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता था। एक दिन तो वे उसमें घूमकर भी देख आये, इस विषय में उन्होंने जगन्नाथ जी से भी कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि- ‘‘स्वामी जी की लीला तो स्वामी जी ही जानें। ये जो भी रहस्य है, वह स्वामी जी की कृपा से ही ज्ञान-गोचर हो पायेगा।’’

इसी बीच एकबार स्वामी जी ने विट्ठलविपुल जी को अपने पास बुलाया, पूछा- ‘‘तुम जानते हो आज किसका जन्मदिन है ?’’ विट्ठलविपुल जी ने कहा- नहीं!

‘‘ठीक है, न जानना ही अच्छा है, देखो आज तुम्हारा ही जन्मदिन है, इस अवसर पर मैं तुम्हें कुछ सौगात देना चाहता हूँ।’’

विट्ठलविपुल जी ने कहा- ’’मुझे सौगात नहीं चाहिये। मेरी तो केवल एक ही चाह है कि आपके निंकुज का रहस्य जानूँ और आपके प्राणाराध्य श्याम-कुंजबिहारी के स्वरूप की मुझे एक झलक मिले।’’ हरिदासजी ने कहा-‘‘वही सौगात मैं आज तुम्हें देना चाहता हूँ।’’

विट्ठलविपुल आनन्द से सिहर उठे,

स्वामी जी नेत्र मूँद कर बैठ गये, हाथ तानपुरे पर था, स्वामी जी ने गाना प्रारम्भ करा, तभी नील-गौर प्रकाश की किरणें फैलने लगीं और सहसा परस्पर हाथ थामे मुस्कुराते हुए श्यामा कुंजबिहारी के दर्शन हुए। प्रिया-प्रियतम मुस्कुरा रहे थे। गीत समाप्त होते ही प्रिया जी बोलीं- ‘‘ललिते!’’ स्वामी जी सकपकाये- ‘‘भूल हो गयी किशोरी जी! आपका मुग्धकारी स्वरूप ही ऐसा है।‘‘ बिहारी जी बोले- ‘‘ललिते! तुम्हारी इच्छा पूरी हो। अब हम यहाँ इसी रूप में रहेगें।‘‘

स्वामी जी ने विहवल होते हुये कहा- ‘‘प्राणाधार! आप ऐसे ही……! निकंुज के बाहर आपकी सेवा कैसे होगी ? बिहारी जी मुस्कुराये बोले- ‘‘सेवा तो लाड़-प्यार की होगी।‘‘ समझ गया, समझ गया, प्रेम-सिंधु मराल‘‘ – स्वामीजी ने निश्चिंत होकर कहा – ‘‘ एक प्रार्थना और है प्रभू- आप दोनों…. कैसी बाँकी छवि है ?, क्या इस अद्भुत रूप सौन्दर्य को जगत की आँखें झेल पायेंगी? आप दोनों एक ही रूप हो जायें, एकरूप, जैसे धन-दामिनी।‘‘

प्रिया-प्रियतम एक रूप हो गये, वह छवि बाँके बिहारी जी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। ‘‘बाँके बिहारी लाल की जय’’ का स्वर सम्पूर्ण निधिवनजी व उसके चारों ओर गूँजने लगा।

विशेष प्रसंग

स्वामी हरिदास जी अपने अव्यक्त निकंुज-बिहारी- श्यामा श्याम को रस विलासने के साथ ही साथ उनके प्रकट स्वरूप श्री बाँकेबिहारी जी को भी लाड़लड़ाते रहे। एक स्थान पर की गई उनकी सेवा दूसरी जगह भी प्रकट हो जाती थी।

स्वामी जी ने कुछ समय के पश्चात बिहारी जी को लाड़-लड़ाने की सेवा जगन्नाथ जी एवं उनके पुत्रों को दे दी, स्वामी जी ने ही बिहारी जी की तीन आरतियों का क्रम निर्धारित किया। सेवा के अवसर पर स्वामी जी स्वयं उपस्थित रहते थे और वे श्यामा जी की गद्दी के पास बैठकर राग गाते रहते थे, सेवा का क्रम ऐसा है कि पहले श्री किशोरी जी की गद्दी की सेवा होती है, बाद में बिहारी जी महाराज का श्रृगांर होता है।

एक दिन जगन्नाथ जी दत्तचित्त होकर प्रिया जी का श्रृगांर करने में संलग्न थे, वे चन्द्रिका उठाने के लिये जैसे ही नीचे झुके कि प्रिया जी ने प्रकट होकर उनकी गूदरी उठाकर दूर रख दी और अपनी चुँदरी ओढ़ा दी। गोस्वामी जी ने अपने ऊपर चुँदरी देखी तो हड़बड़ा गये- यह कैसा अपराध हो गया ? तो प्रिया जी बोली- ‘‘ऐसे ही रहो।’’ तब से जगन्नाथ जी वैसे ही रहने लगे।

एक दिन एक भक्त बिहारी जी की सेवा के लिये एक बहुत कीमती इत्र लाया, उस समय स्वामी जी यमुना पुलिन पर बैठे प्रिया-‘प्रियतम की होली लीला में सलग्ंन थे, सहसा प्रिया जी की पिचकारी का रंग समाप्त हो गया- स्वामी जी ने बिना नेत्र खोले भक्त की ओर हाथ बढ़ा दिया और इत्र की शीशी यमुना पुलिन में उड़ेल दी। भक्त अत्यन्त दुःखी हो गया। स्वामी जी ने जब नेत्र खोले तो जगन्नाथ जी को कहा कि भक्त कोे बिहारी जी के दर्शन करा दो। जगन्नाथजी ने जैसे ही मंदिर का पट खोला तो इत्र की खुशबू को वहाँ सर्वत्र व्याप्त देखकर भक्त अचंभित रह गया।

इसी प्रकार किसी भक्त को पारस मणि मिल गई और वह उसे लेकर स्वामी हरिदास जी के पास गया और बोला आप इस मणि को स्वीकार कर लीजिये तथा मुझे अपना शिष्य बना लीजिये। स्वामी जी उसकी आसक्ति समझ गए और बोले पहले जाकर इस पारस पत्थर को यमुना जी में डाल आओ।

वह भक्त परेशान हो गया, पर करता भी क्या ? स्वामी जी की आज्ञा मानकर वह चला गया और मणि को यमुना में डाल दिया। मणि यमुना में डालने के बाद उसका मन बहुत चलने लगा, लेकिन कुछ ही पलों में उसने देखा कि ज़मीन पर उसके चारों ओर मणि जैसे बहुत से बहुमूल्य पत्थर बिखरे पड़े थे। स्वामी जी उसके पीछे ही खड़े थे वे बोले- ‘‘इन मणियों में से अपनी मणि पहचान कर ले लो।‘‘ वह भक्त उनके चरणों में गिर पड़ा, स्वामी जी की कृपा से उसका विवेक जागृत हो गया।

एक दिन बादशाह अकबर ने तानसेन के गायन पर रीझकर कहा- तानसेन, तुम्हारे जैसा संगीतज्ञ और कोई नहीं है। तानसेन ने कान पकड़ लिये- बोला- ‘‘खुदा के लिये ऐसा मत कहिए। मेरे गुरु हरिदास जी के आगे तो मैं कुछ भी नहीं।‘‘

बादशाह ने कहा- ‘‘एक दिन उन्हें हमारे दरबार में दावत दो हम उनका संगीत सुनना चाहते हैं।’’ तानसेन ने कहा कि उनके गुरू सिर्फ अपने प्राण प्रियतम भगवान श्री कृष्ण के लिए ही गाते हैं, किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए नहीं और न ही धन व प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए। अगर आप उन्हें सुनना चाहते हैं तो अपने पद को भुलाकर व बादशाह के रूप को ढ़क कर चलना पड़ेगा।

अकबर ने कहा- ठीक है हम वहीं जाकर उनका दीदार करेगें। तानसेन ने कहा- आप अगर सेवक के रूप में तानपुरा उठाकर चलें तो शायद स्वामीजी का भजन सुनने में सफलता मिल जाये।

बादशाह राजी होकर साथ में चल दिये, उन्हें स्वामी जी का संगीत सुनने का मौका मिल गया, संगीत सुनकर बादशाह कृत्कृत्य हो गये और अपने वास्तविक रूप को प्रगट करते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होनंे कहा- स्वामी जी। ‘‘कुछ सेवा बताइऐ’’ स्वामी जी हँसे और बोले- सेवा करोगे ? और अपने शिष्य से कहा- इन्हें बिहार घाट की उस सीढ़ी को दिखा दो जिसका एक कोना क्षतिग्रस्त हो गया है।‘‘

बादशाह को स्वामीजी द्वारा बताई गई सेवा अपने ऐश्वर्य की तुलना में बहुत छोटी लगी। स्वामी जी ने कृपा करके उन्हें कुछ देर के लिये दिव्य दृष्टि दी जिससे वे ब्रम्हांड अधिपति श्री कृष्ण के धाम के परम ऐश्वर्य की एक झलक देख पायें। अकबर ने जब बिहार घाट जाकर उस क्षतिग्रस्त सीढ़ी को देखा तो उस पर जैसे बहुमूल्य रत्न जडे़ थे, वैसा एक रत्न भी उसके खजाने में नहीं था। वापस आकर वह भक्त हरिदास जी के चरणों में झुक गया।

हरिदास जी के बहुत से शिष्य हुये, इनमें से गोस्वामी जगन्नाथ के तीन पुत्रों में से गोपीनाथ जी श्रृंगार सेवा के, श्री मेघश्याम जी राजभोग सेवा के और श्री मुरारीदास जी शयन भोग सेवा के अधिकारी थे। मेघश्याम जी के चार पुत्रों में से दूसरे पुत्र बिहारीदास जी को स्वामी जी की विशेष कृपा प्राप्त हुयी, वे सतत् स्वामी हरिदास जी के साथ रहते।

अन्त में स्वामी जी ने बिहारीदास जी के समक्ष प्रियालाल की लीलाओं को उजागर किया और इन्हें अपने अव्यक्त निकुंज श्यामा-श्याम की सेवा का कार्य सौंप कर नित्य लीला में प्रवेश किया।