चक्रिक भील (Chakrik Bheel)
द्वापर युग में चक्रिक नामक एकांत प्रिय सरल हृदय, मीठा बोलने वाला, दयालु दम्भहीन और माता-पिता की सेवा करने वाला भील हुआ है। यद्यपि उसने कभी शास्त्रों का श्रवण नहीं किया था, तथापि उसके हृदय में भगवान् की भक्ति का आविर्भाव हो गया था। वह सदा हरि, केशव, वासुदेव और जनार्दन आदि नामों का स्मरण किया करता था। वह जब भी कोई सुन्दर फल देखता तो पहले उसे चखता, मीठा होता तो भक्तिपूर्वक भगवान् को अर्पण करता अन्यथा उसे स्वयं ही खा लेता। उसको यह पता नहीं था, कि जूठा फल भगवान् को भोग नहीं लगाना चाहिये।
चक्रिक द्वारा भगवान को अदभुत भोग (Chakrik’s Unbelievable Offerings To The Deity)
एक दिन वन में घूमते हुए उसने पियाल वृक्ष पर पका हुआ फल देखा। उसने फल तोड़कर स्वाद जानने के लिये उसको जीभ पर रखा, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, परन्तु जीभ पर रखते ही वह गले में उतर गया। चक्रिक को बड़ा दुःख हुआ, भगवान् के भोग लगाने लायक अत्यन्त स्वादिष्ट फल खाने का वह अपना अधिकार नहीं समझता था। ‘‘सबसे अच्छी वस्तु ही भगवान् को अर्पण करनी चाहिये’’ उसकी सरल बुद्धि में यही सत्य समाया हुआ था। उसने दाहिने हाथ से अपना गला दबा लिया कि जिससे फल पेट में न चला जाये। वह चिन्ता करने लगा
कि ‘‘आज तो मैं भगवान् को मीठा फल न खिला सका, मेरे समान पापी और कौन होगा?’’ मुँह में अगुँली डालकर वमन किया तब भी गले में अटका हुआ फल नहीं निकला। उसने भगवान् की मूर्ति के समीप आकर कुल्हाड़ी से अपना गला काटकर फल निकाला और भगवान् को अर्पण किया। एक तरफ़ से उसके गले में से खून बहने लगाा। पीड़ा के मारे व्याकुल होकर वह गिर पड़ा।कृपामय भगवान् उस सरलहृदय शुद्धान्तःकरण प्रेमी भक्त की महती भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये और चतुर्भुज रूप में साक्षात् प्रकट होकर कहने लगे- ‘‘चक्रिक, तुम्हारे समान मेरा दूसरा कोई भक्त नहीं है, क्योंकि तुमने मेरे लिये अपने प्राणों की भी चिन्ता नहीं की और इतना भयंकर कष्ट सहन किया। मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे देकर मैं तुमसे उऋण हो सकूँ।’’ इतना कहकर भगवान् ने उसके मस्तक पर अपना हाथ रखा जिससे उसकी सारी पीड़ा खत्म हो गयी। वह उसी क्षण उठ बैठा।
श्री भगवान का ह्रदय द्रवित होना (Shri Hari’s Heart Melted)
भगवान् उसे उठाकर पिता की तरह अपने पीताम्बर से उसके अंगों की धूल साफ़ करने लगे। चक्रिक ने भगवान् को साक्षात् अपने सम्मुख देखकर हर्षित होते हुये गद्गद कण्ठ व मधुर वचनों से उनकी स्तुति की – ‘‘हे गोविन्द!, हे केशव!, हे हरि! यद्यपि मैं आपकी प्रार्थना करने योग्य वचन नहीं जानता तथापि मेरी रसना आपकी स्तुति करना चाहती है। हे स्वामी! कृपाकर मेरे इस महान् दोष का त्याग कीजिये। हे चराचरपति! जिस पूजा से प्रसन्न होकर आपने मुझ पर कृपा की है, आपकी उस पूजा को छोड़कर संसार के लोग जो दूसरी पूजा करते हैं, वह मूर्ख हैं।’’
भगवान् उसकी स्तुति से बड़े संतुष्ट हुए और उसे वर माँगने को कहा। वह बोला –‘‘हे परब्रह्म! हे परमधाम!! हे कृपामय परमात्मन्!!! जब मैंने साक्षात् आपके दर्शन प्राप्त कर लिये हैं तो मुझे और वर की क्या आवश्यकता है? परन्तु हे लक्ष्मीनारायण! आप वर देना चाहते हैं तो कृपाकर यही वर दीजिये कि मेरा चित्त आप में ही लगा रहे।’’
भक्तों को इस वर के सिवा और कौन-सा वर चाहिये? भगवान् परम प्रसन्न हो अपनी चारों भुजाओं से चक्रिक का आलिंगन करके, भक्ति का वर दे वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।
उसके बाद चक्रिक द्वारका चला गया और वहाँ भगवत्कृपा से ज्ञान प्राप्त कर देव-दुर्लभ मोक्ष पद को प्राप्त हो गया। जो कोई भी भगवान् की सरल, शुद्ध भक्ति करता है वह उन्हें अवश्य पाता है।
‘‘ये यजान्ति दृढया खलु भक्तया वासुदेवचरणाम्बुजयुग्मम्
वसवादिविबुधप्रवरेडयं ते व्रजन्ति मनुजाः किल मुक्तिम्।।’’ (पदम्पुराण)
अर्थ: जो मनुष्य दृढ़ भक्ति के द्वारा इन्द्रादि देव पूजित वासुदेव भगवान् के चरणकमल की पूजा करता है, वही मुक्ति प्राप्त कर सकता है।