Spirtual Awareness

भक्त रामदास (Bhakt Ramdas)

दक्षिण में गोदावरी के किनारे कनकावरी नाम की एक नगरी थी। वहीं रामदास रहता था। जाति का चमार था, परन्तु अत्यन्त सरल हृदय का, सत्य और न्याय की कमाई खाने वाला और प्रभु का निरन्तर चिन्तन करने वाला भक्त था। रामदास की पतिव्रता स्त्री का नाम मूली था। दम्पत्ती में बड़ा प्रेम था। इनके एक छोटा लड़का था, वह भी माता-पिता का परम भक्त था। तीनों प्राणियों के पेट भरने पर जो पैसे बचते, उनसे रामदास अतिथि की सेवा और पीड़ितों के दुःख दूर करने का प्रयास करता। वह समय-समय पर भगवान नाम का संकीर्तन सुनने जाया करता और बड़े प्रेम से स्वयं भी अपने घर कीर्तन करता। कीर्तन में सुनी हुई यह एक पंक्ति ‘हरि मैं जैसो तैसो बस तेरो।’ उसे बहुत प्यारी लगी और उसे कण्ठस्थ हो गयी। वह निरन्तर इसी पंक्ति को गुनगुनाता हुआ सारे काम किया करता। वह सचमुच अपने को भगवान का दास और आश्रित समझकर मन ही मन आनन्द में भरा रहता।

shaligram jiशालिग्राम प्रतिमा की प्राप्ति (Attainment Of Shaligram)

भगवान तो भाव के भूखे होते हैं, वह रामदास के ऐसे प्रेम को देखकर उसे अब अपनाना चाहते थे। कुछ चोर गहनों के साथ ही कहीं से एक सुन्दर विलक्षण स्वर्णयुक्त शालिग्राम की विशाल मूर्ति चुरा लाये थे, जो उनके लिए सिर्फ एक पत्थर था। उनमें से एक चोर के जूते टूट गये थे, उसने सोचा इस पत्थर के बदले में जूते की जोड़ी मिल जाए तो अच्छा है। भगवत् प्रेरणा से शालिग्राम की मूर्ति को लेकर वह सीधा रामदास के घर पहुँचा और मूर्ति उसे दिखाकर कहने लगा- अरे भाई! देख यह कैसा मजेदार पत्थर है, ज़रा अपने औजार को इस पर घिस तो सही, देख कैसा अच्छा काम देता है, पर इसके बदले में मुझे एक जोड़ी जूते देने पड़ेंगे। चोर की आव़ाज सुनकर वह चौंका, उसके भजन में भंग पड़ा। उसने समझा कोई ख़रीददार है उसने जूते की एक जोड़ी चोर के सामने रख दी, चोर ने उसे पहनकर दामों की जगह वह मूर्ति रामदास के हाथ पर रख दी। रामदास अभी तक अर्द्धचेतन अवस्था में था, उसका मन तो बस प्रभु के विग्रह की ओर खिंचा हुआ था इसलिए पैसे लेने की बात याद ही नहीं रही। मूर्ति को उसने अपने सामने रख दिया और उसी पर औज़ार घिसने लगा।

ब्राह्मण द्वारा शालिग्राम को मांगना (Brahmin Asked For Shaligram)

shaligram ji's worshipभगवान शालिग्राम बनकर प्यारे भक्त के घर आ गये। एक दिन एक ब्राह्मण उस तरफ़ से निकले, शालिग्राम की ऐसी अनोखी मूर्ति चमार के पत्थर की जगह देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उस समय रामदास उस गोल मूर्ति को पैरों के बीच में रखकर उस पर औजार घिस रहा था। ब्राह्मण ने विचार किया भला, बंदरों को हीरे की क़ीमत का क्या पता? यह चमार शालिग्राम को क्या पहचाने? उन्होंने मूर्ति खरीदने का विचार कर नज़दीक आकर उससे कहा- भाई! आज मैं तुमसे एक चीज़ माँगता हूँ, तू मुझे देकर पुण्य लाभ कर। यह पत्थर मुझे बहुत सुन्दर लगता है, मेरे नेत्र इससे हटाये नहीं हटते। रामदास जी ने ब्राह्मण के इस दीन भाव को देखकर वह पत्थर ब्राह्मण को दे दिया। पण्डित जी इस दुर्लभ मूर्ति को पाकर बड़े ही प्रसन्न हुए, वे उसे घर ले आये, उन्होंने कुएँ के जल से स्नान किया फिर पवित्र स्वच्छ वस्त्र पहनकर शालिग्राम भगवान को पंचामृत से स्नान करा सिंहासन पर पधारकर षोड शोपचार से उनकी पूजा की। पण्डित जी पूजा तो बड़ी विधि से करते थे, परन्तु उनके हृदय में दैवीय गुण नहीं थे। उसमें लोभ, इर्ष्या, कामना,भोगवासना, इन्द्रिय सुख की लालसा, क्रोध, वैर आदि दुर्गुण भरे थे।

भगवद्-इच्छा (The Divine Will)

रामदास अशिक्षित था, परन्तु उसका हृदय बड़ा ही पवित्र था। उसके मन में लोभ, इच्छा, भोगेच्छा, क्रोध और वैर आदि का नाम निशान भी नहीं था। भगवान शालिग्राम ने विचार किया- अहा! जब वह परम श्रद्धा व भक्तिपूर्वक गीत-गोविन्द गाता हुआ मेरी मूर्ति पर जल छोड़कर अपना औजार घिसता था उस समय मुझे ऐसा लगता था मानो कोई परम भक्त मेरा शरीर पोंछ रहा है, जब वह मेरा नाम-संकीर्तन करता हुआ मूर्ति को पैर पर रखकर उस पर चमड़ा रखकर काटता था, तब मुझे ऐसा लगता मानो मेरे अंगो पर कोई भक्त चन्दन, कस्तूरी का लेप कर रहा है। अवश्य ही उसको मेरे यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं है, परन्तु उसने अपनी सरल विशुद्ध, निस्वार्थ भक्ति से मुझे वश कर लिया है। मैं जैसा विशुद्ध और निस्वार्थ भक्ति से वश होता हूँ, वैसा दूसरे किसी साधन से नहीं होता।

Shaligram Come Back To Ramdasशालिग्राम का रामदास के पास वापिस आना (Shaligram Come Back To Ramdas)

ब्राह्मण की पूजा सच्ची नहीं है, वह मेरा भक्त नहीं है वह तो अपनी कामनाओं का भक्त है, यह विचार कर भगवान शालिग्राम ने पुनः रामदास के घर जाने का निश्चय किया और रात को स्वप्न में ब्राह्मण से कहा- तू मुझे रामदास के घर पहुँचा दे। ब्राह्मण सुबह ही रामदास के घर शालिग्राम की मूर्ति को लेकर पहुँच गया और उसने रामदास से कहा- रामदास ये कोई साधारण पत्थर नहीं है ये तो साक्षात् भगवान ही हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब तू बहुत प्रेम से इनकी पूजा करना। ब्राह्मण के वचन सुनकर रामदास की आँखों में आँसू आ गये और वह प्रेमविह्वल हो गया और भगवान से प्रार्थना करने लगा- प्रभो! मैं अति दीन, हीन, अंजान, दुर्जन, पतित प्राणी हूँ, रात-दिन चमड़ा घिसना ही मेरा काम है। मुझमें न शौच है, न सदाचार। मुझ-सा नीच जगत् में और कौन होगा ? ऐसे पतित पर भी प्रभु ने कृपा की।

रामदास का भगवद्-प्रेम (Ramdas’s Love For Lord)

अब रामदास दिन और रात भगवान् के प्रेम में कभी रोता और कभी हँसता, तो कभी नाचता। अब तो उसे एक ही रट लग गयी नाथ! अब मुझे दर्शन दो, पहले तो मुझे पता ही नहीं था पर आपने ही मेरे हृदय में ये आग लगायी है। मैंने तो न पहचानकर आपकी मूर्ति का निरादर किया पर आप मुझे नहीं भूले और ब्राह्मण के द्वारा अपना स्वरूप बताकर मेरे घर आ गए। यदि दर्शन नहीं देने थे तो यह सब क्यों किया? एक बार अपने साँवरे-सलोने चाँद से मुखड़े की झाँकी दिखाकर मेरे मन को सदा के लिए चुरा लो। मेरे मोहन! करुणा की वर्षा कर दो इस कंगाल पर। एक बार दर्शन दो और मुझे कृतार्थ करो। भगवान भक्तवत्सल हैं। जो एकमात्र भगवान को ही अपना आश्रय मानकर उनसे प्रार्थना करता है तो उसकी प्रार्थना भगवान तत्काल सुनते हैं।

भगवान का वृद्ध ब्राह्मण के रूप में रामदास को भगवद्दर्शन (Shri Hari Revealed Himself To Ramdas As An Old Brahmin)

bhagwad darshanउसके ऐसे दिव्य प्रेम को देखकर भगवान से रहा न गया, वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरकर उसके घर आ गये। भगवान ने उसके घर आकर उसकी विरह वेदना को शान्त नहीं किया बल्कि उसकी विरह वेदना को पहले से भी और अधिक बढ़ा दिया और उससे कहा- अरे भाई! भगवान् का दर्शन कोई मामूली बात थोडे़ ही है। बडे़-बड़े देवता, योगी, मुनि अनन्तकाल तक तप, ध्यान और समाधि करने पर भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, तुझ जैसे मनुष्य को उनके दशर्न कैसे हो सकते हैं? यह सुनकर रामदास की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। उसने कहा- हे देव! मैं क्या करूँ? मुझसे रहा नहीं जाता और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे नाथ दीनबन्धु हैं, दया के अपार सागर हैं, मुझे वे दर्शन देंगे और ज़रूर देंगे।

पति कैसे ही रंग-रूप का क्यों न हो पर पत्नी का पति में अटूट प्रेम होता है, ऐसे ही मैं अपने स्वामी के स्नेह को परख चुका हूँ। यों कहते-कहते रामदास का कंठ रूंध गया, ऐसे दृढ़ विश्वास व अनन्य प्रेम को देखकर भगवान से बिल्कुल रहा ना गया। वे अपने भक्त को अपने से मिलाकर एक करने के लिए छटपटाने लगे। अकस्मात् अनन्त कोटि सूर्याें का प्रकाश छा गया। रामदास की आँखें मुँद गयीं। उसने हृदय में देखा,भगवान मदनमोहन त्रिभंगी लाल मुस्कुराते हुए मधुर-मधुरमुरली बजा रहे हैं और कह रहे हैं- आ मेरे पास आ। कैसा सुन्दर रूप है। वह आनन्द सागर में डूब गया। अचानक आँखें खुलीं देखता है सामने भी प्रभु का वही दिव्य सच्चिदानन्द घन विग्रह विराजमान है।

रामदास के आनन्द का पारावार नहीं रहा, उसकी सारी व्याकुलता सदा के लिए मिट गयी। भगवान ने उसे अपने में समा लिया और उसने प्रभु के दिव्य धाम में जा कर नित्य पार्षद का शरीर ग्रहण किया।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।